मानव स्वभाव विपरीत परिस्थितियों में दो में से एक प्रकार की प्रतिक्रिया का चयन करता है। या तो वह चुनौतियों को स्वीकार कर डटकर उनके सम्मुख खड़े हो, उन परिस्थितियों को प्रति-चुनौती देता है या उनके सम्मुख नतमस्तक हो समायोजन करने का प्रयास करता है और कुण्ठा को अपनी नियति स्वीकार करता है। मैंने कुण्ठा को चुनौती देने का निश्चय किया और अपने जीवन को एक नई राह दी।
बात हाल ही की है जब उच्च शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् बेटी के प्रति सामाजिक व पारिवारिक दायित्व कहे जाने वाली रीत अर्थात् बेटी के लिए रिश्ता ढूँढ़ने मेरे पिता को घर की चौखट से बाहर एक विचित्र प्रश्न को अपने मुख पर तमाचे की भाँति सहन करना पड़ा। यह असमंजस्य है कि वह प्रश्न था अथवा उत्तर। शब्द कुछ इस प्रकार के थे कि ‘‘हम तीन बेटियों वाले घर में अपने बेटे का रिश्ता नहीं करेंगे। यहाँ आगे का परिवार तो खत्म ही हो जाना है।’’
संवाद बेहद कटु है परन्तु मानसिकता दया की पात्र है। जब यह उत्तर मैंने अपने माता-पिता के मुख से सुना तो मेरा प्रश्न एक था, ‘‘क्या आपको अपनी तीन बेटियाँ होने का कोई पछतावा, शर्मिंदगी या किसी प्रकार का दुःख है?’’ माता-पिता का उत्तर था- हमें गर्व है अपनी बेटियों पर। तो फिर पापा आप उनको फोन करके कह दीजिए कि आपके सुपुत्र न तो शैक्षिक योग्यता में मेरी बेटी के समतुल्य है और न ही उपलब्धियों में। इसलिए हम अपनी बेटी का विवाह आपके बेटे के साथ करने में अक्षम है।
निश्चित रूप से ऐसे किसी परिवार में विवाह किया जाना जहाँ स्त्री के वजूद का सम्मान न हो, मूर्खता है। परन्तु इस घटना ने मेरे आत्मसम्मान को झकझोर दिया और अपने परिवार की प्रतिष्ठा को उस समाज में पहचान दिलाने का जुनून सवार हो गया जहाँ मानवता व स्वतंत्र मस्तिष्क का वास हो। वर्तमान में मैं अपने दृढ़ संकल्प का अनुसरण करते हुए अपनी मंजिल की सीढ़ी चढ़ रही हूँ और अपने माता-पिता के साथ-साथ अपने अस्तित्व को भी अपेक्षित पहचान दिला रही हूँ।
चुनौती 'अस्तित्व की ' - दैनिक जागरण के 'झंकार' पृष्ट पर दिनांक 14 नवंबर 2011 को प्रकाशित यह कहानी "मेरी कहानी मेरा जागरण" प्रतियोगिता मे चयनित हुई........... इस कहानी की मूल प्रति समस्त पाठको को समर्पित.....................
बहुत अच्छी पोस्ट |बधाई |
ReplyDeleteआशा