29.11.11

व्यंग्य - जूते और थप्पड़ का कमाल

राजकुमार साहू, जांजगीर, छत्तीसगढ़
जूता, जितना भी महंगा हो, हम सब की नजर में मामूली ही होता है और उसकी कीमत कुछ नहीं होती। जूता चाहे विदेश से भी खरीदकर लाया गया हो, फिर भी उसे सिर पर न तो पहना जाता है और न ही रखा जाता है। जूते तो बस, पैर के लिए ही बने हैं। जैसे, ओहदेदार लोगों के लिए कुछ लोग जूते के समान होते हैं,। वैसे भी जूते का वजन, कहां कोई तौलता है। अभी देश में खास किस्म के जूते कभी-कभी नजर आ जाते हैं, जिनकी अहमियत के साथ पूछपरख भी होती है। यह जूते भी उतना ही मामूली होते हैं, जितना बाजार में मिलने वाले जूते। ऐसे कुछ जूतों की खासियत होती हैं कि उसकी पहचान, कुछ विशेष लोगों से जुड़ जाती हैं। जूते की प्रसिद्धि इसकदर बढ़ जाती है, जिसके सामने नामी-गिरामी कंपनी के जूते भी बौने साबित होते हैं।
पहली बार जब विदेशी धरती पर जूता उछला, उसके बाद जूते, जूते नहीं रहे, बल्कि रातों-रात ही यह ऐसे महान वस्तु बन गया, जिसका अब तक किसी ने कल्पना तक नहीं की थी। मीडिया ने तो जूते की महिमा ही बढ़ा दी। जूता उछलने के बाद इस तरह महिमामंडन किया गया, उसके बाद जूता, जूता नहीं रहा। अब तो जूते का धमाका हर कहीं होने लगा है। जूते की खुमारी ऐसी छाई कि हमारे देश मंे एक नहीं, बल्कि कई जूते उछाले गए व फेंके गए। देखिए, जूते जमाने से मामूली माने जाते रहे हैं, उछालने वाला भी मामूली व्यक्ति होता है, लेकिन जिन पर उछाला जाता है, वह नामचीन होते हैं। जूते के साथ ही मीडिया की मेहरबानी से वे व्यक्ति भी दिन-दूनी, रात-चौगनी की तर्ज पर इतना नाम कमा लेते हैं, जिसके बाद उन जैसों का नाम जुबानी याद हो जाता है। इस तरह वह ‘जूता वाला बाबा’ साबित होते हैं।
जूते की कहानी तो सुन ही रहे थे, जब थप्पड़ की धुन चल रही है। किसी को एक थप्पड़ पड़ी नहीं कि दूसरा कहता है, बस एक ही...। थप्पड़ का दर्द वही जान सकता है, जिसने महसूस किया हो। जिस तरह महंगाई का दर्द आम जनता सहती है, मगर उसका अहसास कहां किसी को होता है ? गरीब, गरीबी में मरता है और उसकी आने वाली पीढ़ी भी बरसों सिसकती रहती है। कई तरह की मार गरीब भी खाते हैं, भ्रष्टाचार व महंगाई की मार ने तो लोगों का जीना ही हराम कर दिया है। इतना जरूर है कि आम जनता, थप्पड़ का दर्द को नहीं जानती, क्योंकि वह पहले से ही गरीबी, महंगाई से कराहती रहती है, उसके बाद दर्द बढ़ने का पता कहां चल सकता है ?, दर्द सहने की आदत जो बन गई है।
जिन्ने कभी दर्द ही नहीं सहा हो, वह जान सकता है कि वास्तव में किसी तरह की मार की पीड़ा क्या होती है ?
देश में पहले जूते का शुरूर सवार था, अब थप्पड़ ने अपनी खूब पैठ जमा ली है। जनता भी थप्पड़ की धमक को हाथों-हाथ ले रही है। जूते व थप्पड़ का कमाल ऐसा चल पड़ा है कि महंगाई व भ्रष्टाचार की मार का दर्द भी सुन्न पड़ गया है। अब क्या करें, माहौल ही ऐसा बन गया है, जहां केवल जूते व थप्पड़ के ही चर्चे हैं।

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