दोस्तों, अपने देश में आजकल व्यापारी-नेताओं का ही बोलबाला है।शायद ऐसे बहुत कम नेता हैं जो किसी भी तरह के व्यापार में शामिल न हो।गृह मंत्री से लेकर कृषि मंत्री तक सभी नेता कम और व्यापारी ज्यादा हैं।और माननीय शहरी विकास मंत्री की तो क्या कहें।उनका तो लगता है जैसे व्यापार से जन्मों-जन्मों का नाता है।नेता और मंत्री सिर्फ नाम के हैं, मुख्य पेशा तो उनका व्यापार ही है।
भारत के गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने प्रधानमंत्री कार्यालय के वेबसाइट पर यह सूचना दी है कि उनकी कुल मिलाकर 20 करोड़ की संपत्ति है, जिसमें उनकी तीन कंपनियों में हिस्सेदारी भी है।अब आप ही बताएँ कि एक व्यक्ति तीन कंपनियों में हिस्सेदारी रख के क्या गृह मंत्रालय इतने महत्वपूर्ण मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाल सकता है।गृह मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद पर रहते हुए उनकी नाकामी स्वाभाविक है।तीन कंपनियों की हिस्सेदारी संभालने के बाद शायद ही उन्हें वक्त मिलता हो कि वह गृह मंत्रालय का काम संभाल सके।प्रधानमंत्री कार्यालय के वेबसाइट पर आपको इनकी घोषित संपत्ति का तो पता चल जाएगा और यह भी पता चल जाएगा कि इनकी तीन कंपनियों में हिस्सेदारी है पर इन्होंने यह सूचना नहीं दी है कि वो तीन कंपनियाँ हैं कौन जिनमें इनकी हिस्सेदारी है।क्या देश की जनता को यह जानने का अधिकार नहीं है कि आखिर वो तीन कंपनियाँ कौन हैं जो गृह मंत्री जैसे महत्वपूर्ण व्यक्ति के लिए अपने मंत्रालय से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है।केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार की कुल घोषित संपत्ति है 12 करोड़ की है।इनकी भी कई कंपनियों में हिस्सेदारी है जिनके बारे में इन्होंने कोई सूचना नहीं दी है।अब तो आप शरद पवार जी का अपने मंत्रालय के प्रति गैरजिम्मेदारी का कारण समझ ही गए होंगे।केन्द्रीय शहरी विकास मंत्री कमलनाथ की कुल घोषित संपत्ति 243 करोड़ की है।इनकी 25 कंपनियों में हिस्सेदारी है।इन्होंने भी उन 25 कंपनियों का खुल के जिक्र नहीं किया है।आखिर इन व्यापारी-नेताओं ने देश की जनता को समझ क्या रखा है?संपत्ति घोषणा करने की जो औपचारिकता है वो पूरी कर देते हैं और खुले तौर पर अपने व्यापार के बारे में कुछ नहीं बताते।क्या देश की जनता को यह जानने का अधिकार नहीं है कि आखिर वो कौन सी कंपनियाँ हैं जिनके वजह से नेता अपने मकसद से भटक जाते हैं और व्यापार को ही सर्वोपरि मानते हैं।
मुझे तो आश्चर्य होता है और जनता पर गुस्सा भी आता है कि आखिर जनता ऐसे व्यापारी-नेताओं को चुनाव में विजयी कैसे बना देती है!यह जानते हुए भी कि इन व्यापारी-नेताओं के लिए व्यापार पहले और जनता बाद में है, किस आधार पर जनता इन्हें चुनाव में वोट देती है और विजयी बना देती है?क्या जनता इस आशा के साथ वोट देती है कि विजयी होने के बाद ये व्यापारी-नेता इन्हें भी अपनी कंपनियों में हिस्सेदारी दे देंगे?मुझे तो इसके अलावा और कोई कारण नजर नहीं आता है क्योंकि जो भी जनता अपने क्षेत्र का विकास चाहेगी वो इन व्यापारी-नेताओं को कभी नहीं वोट देगी।चुनाव जितने के बाद पाँच वर्षों तक तो क्षेत्र में अपना चेहरा भी नहीं दिखाते हैं ये व्यापारी-नेता और जब चुनाव नजदीक आता है और इन्हें जनता कि जरूरत महसूस होती है तभी ये क्षेत्र में अपना कदम रखते हैं।सांसद बनने के बाद पता नहीं क्या करते हैं कि पाँच वर्षों में ही इनके देश-विदेश में उद्योग फैल जाते हैं और न जाने कितने ही बड़े-बड़े उद्योगपतियों के साथ इनकी दोस्ती हो जाती है।पाँच वर्षों तक बस उद्योग और उद्योगपतियों में ही ऐसा व्यस्त रहते हैं जैसे आम जनता से इनका कोई नाता ही न हो।पाँच वर्षों के बीच में अगर क्षेत्र की कोई जनता अपनी समस्या को लेकर फोन भी करे तो ये फोन तक नहीं उठाते हैं।आखिर फोन उठाएँ भी क्यों, इन्हें तो सिर्फ बड़े-बड़े उद्योगपतियों के फोन उठाने की आदत हो जाती है।ये व्यापारी नेता भूल जाते हैं कि देश की सर्वोच्च संस्था की सदस्यता इन्हें कोई उद्योगपति नहीं बल्कि सिर्फ आम जनता ही दिला सकती है।चुनाव जितने के बाद जिस जनता को पहचानते नहीं है, चुनाव के वक्त उसी जनता के दरवाजे पर वोट माँगने जाते हैं।इन व्यापारी-नेताओं की हिम्मत की तो दाद देनी होगी।पाँच वर्षों तक जनता के हित में बिना कोई काम किए चुनाव के वक्त जनता के पास वोट माँगने चले जाना किसी हिम्मतवाले का ही काम हो सकता है।
मुझे तो आश्चर्य होता है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत का कानून इतना ढीला है कि मंत्रियों को भी व्यापार करने की खुली छूट मिली हुई है।आखिर क्या जरूरत है इन मंत्रियों को व्यापार की जिनके पास विभिन्न मंत्रालयों की महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ होती हैं।आखिर इतने महत्वपूर्ण पदों पर बैठे मंत्रियों को व्यापार की खुली छूट मिली कैसे हुई है?क्या यह सोचकर मिली हुई है कि शायद ये मंत्री पद की शपथ लेने के बाद व्यापार छोड़ देंगे?ऐसा कानून बनना चाहिए कि कोई भी सांसद मंत्री पद की शपथ लेने के बाद अपना और अपने परिवार के किसी भी सदस्य का सारा व्यापार और विभिन्न कंपनियों की हिस्सेदारी भारत सरकार को जमा करा दें।मेरे ख्याल से मंत्रियों को भारत सरकार के द्वारा मिलने वाला वेतन एक अच्छी जिंदगी जीने के लिए काफी है।खासकर प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, वित्त मंत्री, रक्षा मंत्री और विदेश मंत्री जैसे महत्वपूर्ण व्यक्तियों को तो व्यापार करने की बिल्कुल भी इजाजत नहीं होनी चाहिए।जो भी व्यापारी-सांसद हैं जो कि किसी भी मंत्रालय के मंत्री नहीं हैं उनके भी व्यापार पर पाबंदी लगनी चाहिए।उनके लिए भी कानून बनना चाहिए कि जिन व्यापारी-सांसदों का या उनके परिवार के किसी भी सदस्य के कंपनियों का सालाना टर्नओवर अगर 18 लाख से ज्यादा है तो 18 लाख के अतिरिक्त सारी दौलत वे भारत सरकार को जमा कराएँ क्योंकि 18 लाख से ज्यादा तो भारत के राष्ट्रपति का भी वेतन नहीं है।उन व्यापारी सांसदों को वेतन भी नहीं मिलना चाहिए और दिल्ली के प्रमुख इलाके में आवास भी नहीं मिलना चाहिए।आखिर क्या जरूरत है इन व्यापारी-सांसदों को वेतन और राजधानी के प्रमुख इलाके में सरकारी आवास की अगर इन्हें अपने व्यापार का 18 लाख सालाना रखने की इजाजत मिल जाएगी।ऐसा कानून बनने से कुछ हद तक व्यापारी-नेताओं पर लगाम भी लगेगी और इस मंदी के दौर में भारत सरकार की आमदनी भी होगी।
व्यापार कोई गलत चीज नहीं है, गलत है तो नेतागिरी और व्यापार का मिलन जो कि देश के लिए बहुत बड़ा खतरा है।हर व्यापारी-नेताओं को भारत के मौजूदा रक्षा मंत्री श्री ए. के. एंटनी जी से सीख लेनी चाहिए कि इतने सालों से नेतागिरी में रहने के बावजूद व्यापार उन्हें छू भी नहीं पाया।मुझे तरस आता है इस देश पर कि आगे चलकर इस देश का क्या होगा जहाँ गृह मंत्री जैसे महत्वपूर्ण व्यक्ति को भी व्यापार करने की खुली छूट है।मेरी देश की जनता से यह गुजारिश है कि किसी भी व्यापारी-नेता को अपना बहुमूल्य वोट मत दो।ये नेता सिर्फ तुम्हें बेवकूफ़ बनाएँगे, और क्षेत्र का नहीं बल्कि सिर्फ अपने उद्योग का विकास करेंगे।मत जितने दो इन व्यापारी-नेताओं को क्योंकि अपना व्यापारिक दिमाग लगा के इन्होंने राजनीति जैसे सामाजिक क्षेत्र को भी व्यापार ही बना दिया है।
भारत के गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने प्रधानमंत्री कार्यालय के वेबसाइट पर यह सूचना दी है कि उनकी कुल मिलाकर 20 करोड़ की संपत्ति है, जिसमें उनकी तीन कंपनियों में हिस्सेदारी भी है।अब आप ही बताएँ कि एक व्यक्ति तीन कंपनियों में हिस्सेदारी रख के क्या गृह मंत्रालय इतने महत्वपूर्ण मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाल सकता है।गृह मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद पर रहते हुए उनकी नाकामी स्वाभाविक है।तीन कंपनियों की हिस्सेदारी संभालने के बाद शायद ही उन्हें वक्त मिलता हो कि वह गृह मंत्रालय का काम संभाल सके।प्रधानमंत्री कार्यालय के वेबसाइट पर आपको इनकी घोषित संपत्ति का तो पता चल जाएगा और यह भी पता चल जाएगा कि इनकी तीन कंपनियों में हिस्सेदारी है पर इन्होंने यह सूचना नहीं दी है कि वो तीन कंपनियाँ हैं कौन जिनमें इनकी हिस्सेदारी है।क्या देश की जनता को यह जानने का अधिकार नहीं है कि आखिर वो तीन कंपनियाँ कौन हैं जो गृह मंत्री जैसे महत्वपूर्ण व्यक्ति के लिए अपने मंत्रालय से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है।केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार की कुल घोषित संपत्ति है 12 करोड़ की है।इनकी भी कई कंपनियों में हिस्सेदारी है जिनके बारे में इन्होंने कोई सूचना नहीं दी है।अब तो आप शरद पवार जी का अपने मंत्रालय के प्रति गैरजिम्मेदारी का कारण समझ ही गए होंगे।केन्द्रीय शहरी विकास मंत्री कमलनाथ की कुल घोषित संपत्ति 243 करोड़ की है।इनकी 25 कंपनियों में हिस्सेदारी है।इन्होंने भी उन 25 कंपनियों का खुल के जिक्र नहीं किया है।आखिर इन व्यापारी-नेताओं ने देश की जनता को समझ क्या रखा है?संपत्ति घोषणा करने की जो औपचारिकता है वो पूरी कर देते हैं और खुले तौर पर अपने व्यापार के बारे में कुछ नहीं बताते।क्या देश की जनता को यह जानने का अधिकार नहीं है कि आखिर वो कौन सी कंपनियाँ हैं जिनके वजह से नेता अपने मकसद से भटक जाते हैं और व्यापार को ही सर्वोपरि मानते हैं।
मुझे तो आश्चर्य होता है और जनता पर गुस्सा भी आता है कि आखिर जनता ऐसे व्यापारी-नेताओं को चुनाव में विजयी कैसे बना देती है!यह जानते हुए भी कि इन व्यापारी-नेताओं के लिए व्यापार पहले और जनता बाद में है, किस आधार पर जनता इन्हें चुनाव में वोट देती है और विजयी बना देती है?क्या जनता इस आशा के साथ वोट देती है कि विजयी होने के बाद ये व्यापारी-नेता इन्हें भी अपनी कंपनियों में हिस्सेदारी दे देंगे?मुझे तो इसके अलावा और कोई कारण नजर नहीं आता है क्योंकि जो भी जनता अपने क्षेत्र का विकास चाहेगी वो इन व्यापारी-नेताओं को कभी नहीं वोट देगी।चुनाव जितने के बाद पाँच वर्षों तक तो क्षेत्र में अपना चेहरा भी नहीं दिखाते हैं ये व्यापारी-नेता और जब चुनाव नजदीक आता है और इन्हें जनता कि जरूरत महसूस होती है तभी ये क्षेत्र में अपना कदम रखते हैं।सांसद बनने के बाद पता नहीं क्या करते हैं कि पाँच वर्षों में ही इनके देश-विदेश में उद्योग फैल जाते हैं और न जाने कितने ही बड़े-बड़े उद्योगपतियों के साथ इनकी दोस्ती हो जाती है।पाँच वर्षों तक बस उद्योग और उद्योगपतियों में ही ऐसा व्यस्त रहते हैं जैसे आम जनता से इनका कोई नाता ही न हो।पाँच वर्षों के बीच में अगर क्षेत्र की कोई जनता अपनी समस्या को लेकर फोन भी करे तो ये फोन तक नहीं उठाते हैं।आखिर फोन उठाएँ भी क्यों, इन्हें तो सिर्फ बड़े-बड़े उद्योगपतियों के फोन उठाने की आदत हो जाती है।ये व्यापारी नेता भूल जाते हैं कि देश की सर्वोच्च संस्था की सदस्यता इन्हें कोई उद्योगपति नहीं बल्कि सिर्फ आम जनता ही दिला सकती है।चुनाव जितने के बाद जिस जनता को पहचानते नहीं है, चुनाव के वक्त उसी जनता के दरवाजे पर वोट माँगने जाते हैं।इन व्यापारी-नेताओं की हिम्मत की तो दाद देनी होगी।पाँच वर्षों तक जनता के हित में बिना कोई काम किए चुनाव के वक्त जनता के पास वोट माँगने चले जाना किसी हिम्मतवाले का ही काम हो सकता है।
मुझे तो आश्चर्य होता है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत का कानून इतना ढीला है कि मंत्रियों को भी व्यापार करने की खुली छूट मिली हुई है।आखिर क्या जरूरत है इन मंत्रियों को व्यापार की जिनके पास विभिन्न मंत्रालयों की महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ होती हैं।आखिर इतने महत्वपूर्ण पदों पर बैठे मंत्रियों को व्यापार की खुली छूट मिली कैसे हुई है?क्या यह सोचकर मिली हुई है कि शायद ये मंत्री पद की शपथ लेने के बाद व्यापार छोड़ देंगे?ऐसा कानून बनना चाहिए कि कोई भी सांसद मंत्री पद की शपथ लेने के बाद अपना और अपने परिवार के किसी भी सदस्य का सारा व्यापार और विभिन्न कंपनियों की हिस्सेदारी भारत सरकार को जमा करा दें।मेरे ख्याल से मंत्रियों को भारत सरकार के द्वारा मिलने वाला वेतन एक अच्छी जिंदगी जीने के लिए काफी है।खासकर प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, वित्त मंत्री, रक्षा मंत्री और विदेश मंत्री जैसे महत्वपूर्ण व्यक्तियों को तो व्यापार करने की बिल्कुल भी इजाजत नहीं होनी चाहिए।जो भी व्यापारी-सांसद हैं जो कि किसी भी मंत्रालय के मंत्री नहीं हैं उनके भी व्यापार पर पाबंदी लगनी चाहिए।उनके लिए भी कानून बनना चाहिए कि जिन व्यापारी-सांसदों का या उनके परिवार के किसी भी सदस्य के कंपनियों का सालाना टर्नओवर अगर 18 लाख से ज्यादा है तो 18 लाख के अतिरिक्त सारी दौलत वे भारत सरकार को जमा कराएँ क्योंकि 18 लाख से ज्यादा तो भारत के राष्ट्रपति का भी वेतन नहीं है।उन व्यापारी सांसदों को वेतन भी नहीं मिलना चाहिए और दिल्ली के प्रमुख इलाके में आवास भी नहीं मिलना चाहिए।आखिर क्या जरूरत है इन व्यापारी-सांसदों को वेतन और राजधानी के प्रमुख इलाके में सरकारी आवास की अगर इन्हें अपने व्यापार का 18 लाख सालाना रखने की इजाजत मिल जाएगी।ऐसा कानून बनने से कुछ हद तक व्यापारी-नेताओं पर लगाम भी लगेगी और इस मंदी के दौर में भारत सरकार की आमदनी भी होगी।
व्यापार कोई गलत चीज नहीं है, गलत है तो नेतागिरी और व्यापार का मिलन जो कि देश के लिए बहुत बड़ा खतरा है।हर व्यापारी-नेताओं को भारत के मौजूदा रक्षा मंत्री श्री ए. के. एंटनी जी से सीख लेनी चाहिए कि इतने सालों से नेतागिरी में रहने के बावजूद व्यापार उन्हें छू भी नहीं पाया।मुझे तरस आता है इस देश पर कि आगे चलकर इस देश का क्या होगा जहाँ गृह मंत्री जैसे महत्वपूर्ण व्यक्ति को भी व्यापार करने की खुली छूट है।मेरी देश की जनता से यह गुजारिश है कि किसी भी व्यापारी-नेता को अपना बहुमूल्य वोट मत दो।ये नेता सिर्फ तुम्हें बेवकूफ़ बनाएँगे, और क्षेत्र का नहीं बल्कि सिर्फ अपने उद्योग का विकास करेंगे।मत जितने दो इन व्यापारी-नेताओं को क्योंकि अपना व्यापारिक दिमाग लगा के इन्होंने राजनीति जैसे सामाजिक क्षेत्र को भी व्यापार ही बना दिया है।
भड़ास पर लिखना मुबारक हो.बहुत ही अच्छा लिखा है तुमने.
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