यह चौंकाने वाली बात है कि झूठ-फरेब और धोखाधड़ी में अर्थशास्ति्रयों ने भी राजनेताओं के साथ हाथ मिला लिया है। गत सप्ताह ब्रिटिश वित्त अधिकारी सर स्टीफेन निकेल ने कहा कि इस साल भी सर्दियां पिछली बार की तरह सर्द होंगी। सर स्टीफेंस का स्पष्ट संकेत बड़े रिटेलरों की ओर है। पिछली सर्दियों में जिनके गरम कपड़ों की बिक्री ठंडी रही थी। हालांकि उनकी गणना का अधिक संबंध सांख्यिकीय बाजीगरी से है। जाहिर है, अत्यधिक सर्दी के कारण मंदी आती है जिसका असर कंपनियों के तिमाही नतीजों पर पड़ता है। हालांकि बर्फ पिघलने के साथ ही विकास के नए अंकुर फूटते हैं। असल में सर स्टीफेन उम्मीद पाले बैठे थे कि हताशाजनक या कहें कि नकारात्मक आर्थिक प्रदर्शन के बाद अर्थव्यवस्था में सुधार आएगा। अपनी तमाम कमियों के बावजूद भारत की अर्थव्यवस्था ब्रिटेन की तरह खतरे के मुहाने पर नहीं खड़ी है। आठ फीसदी की विकास दर गिरकर सात प्रतिशत पर आ सकती है, किंतु हमारी अर्थव्यवस्था ध्वस्त नहीं होने जा रही। योजना आयोग के उत्साही उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने महंगाई के गलत आकलन को स्वीकार जरूर किया, किंतु उनके इस कुबूलनामे को अखबारों के अंदर के पेज पर इतनी कम जगह मिली कि कोई भी उन्हें पद से हटाने की मांग तक नहीं कर सका। भारत में अर्थशास्ति्रयों पर शायद ही कभी अल्पज्ञता का आरोप लगा हो। यहां आर्थिक कुप्रबंधन का ठीकरा भी राजनेताओं के सिर ही फूटता है। पिछले सप्ताह वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा खुद को महत्वपूर्ण जताते हुए रिटेल के समर्थन में भारी-भरकम शब्दों का इस्तेमाल कर रहे थे। इस सप्ताह जब वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने घोषणा की कि रिटेल के लिए अभी और इंतजार जरूरी है, तो उनकी सारी हवा निकल गई। रिटेल पर उठे तूफान में दस दिन घिरे रहने के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बच तो निकले, किंतु इससे यह सिद्ध जरूर हो गया कि उनके मौन व्रत के बावजूद उनकी सरकार पर खतरा बरकरार है। भारत एक आदर्श लोकतंत्र है, जिसमें बड़े से बड़ा संकट आता है और चला जाता है, किंतु तीन प्रमुख राजनीतिक व्यक्तित्व-प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी और उनके उत्तराधिकारी राहुल गांधी किसी भी महत्वपूर्ण विषय पर एक शब्द तक नहीं बोलते। भारत के शासकों की चुप्पी के संबंध में आम जनमानस और सोशल मीडिया में इतना कुछ कहा गया कि कपिल सिब्बल को मजबूर होकर घोषणा करनी पड़ी अराजक सोशल मीडिया पर राजनीतिक सेंसरशिप लागू करना जरूरी है। कुछ अर्थशात्रियों को इस तर्क में जान नजर आती है कि अगर आप चीन को आर्थिक दौड़ में नहीं पछाड़ सकते तो कम से कम राजनीतिक रूप से तो उससे होड़ कर ही सकते हैं। शिकायतों का पुलिंदा लेकर उन्होंने नेटिजेनों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। नतीजा यह रहा कि कांग्रेस रिटेल में एफडीआइ तो ला नहीं पाई, उलटे खुद पर असहिष्णुता का लेबल और चिपका लिया। मोरारजी देसाई के खिलाफ बगावत का झंडा उठा कर जनता पार्टी का किला ध्वस्त करने वाले चरण सिंह के बाद से कोई सरकार इतनी लाचार दिखाई नहीं पड़ी। अनेक कारणों से संसद न चलने देने के लिए विपक्ष आंशिक रूप से ही जिम्मेदार है। इसका मूल कारण यह है कि कांग्रेस आश्वस्त नहीं है कि पहले कार्यकाल के विपरीत संप्रग का दूसरा कार्यकाल सही ढंग से चल नहीं पा रहा है। एक व्यक्ति के तौर पर अब भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का सम्मान बचा हुआ है, किंतु उनके राजनीतिक कुप्रबंधन ने पार्टी के अनेक वफादार सदस्यों को चिंतित कर दिया है कि अगर शीर्ष स्तर पर बदलाव नहीं किया जाता है तो अगले चुनाव में हार तय है। तमाम कांग्रेसी सहजवृत्ति से जानते हैं अगला उत्तराधिकारी कौन होगा। 2004 में मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद के लिए चुने जाने के बाद आखिर अब क्या परिवर्तन हो गया है? विकास दर के नौ फीसदी से घटने के कारण अब बड़ी कल्याणकारी योजनाएं लाने के हालात नहीं रह गए हैं। निर्बाधित फिजूलखर्ची का परिणाम राजकोषीय घाटे के रूप में सामने आया है, रुपये का मूल्य बराबर गिर रहा है और सरकार के सामने भुगतान संकट खड़ा होने के आसार बन रहे हैं। दूसरा कारण है सोनिया की स्वास्थ्य समस्याएं, जो अभी तक गोपनीयता के आवरण में लिपटी हैं। कांग्रेस जानती है कि अनिश्चित काल तक उत्तराधिकारी का मामला लटकाया नहीं जा सकता है। पहले यह माना जा रहा था कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में अपेक्षाकृत अच्छे प्रदर्शन के बाद राहुल गांधी की शीर्ष पद पर ताजपोशी कर दी जाए, किंतु जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं, उत्तर प्रदेश में नई जमीन तलाशने की कांग्रेस की उम्मीदें धूमिल पड़ती जा रही हैं। उत्तर प्रदेश में नतीजे कांग्रेस के लिए खराब आते हैं तो उनके लिए और मुश्किल हो जाएगी। सच्चाई यह भी है कि कांग्रेस समर्थक चिंतित है कि नेहरू-गांधी वंश के अलावा राहुल गांधी के पक्ष में और कुछ नहीं है। वह बिहार में भी जरूरी राजनीतिक लाभांश नहीं दे पाए थे। ऐसा नहीं है कि राहुल अनाकर्षक हंै। दरअसल वह करिश्माई नहीं हैं। 2014 के चुनाव में वह यही उम्मीद कर सकते हैं कि भाजपा कितने आत्मघाती गोल ठोंकती है और और गलत उम्मीदवार को प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में पेश करती है। अगर राहुल जीते भी तो दूसरों की गलती से जीतेंगे। वह उस तरह के यूथ आइकन नहीं बन पाए हैं, जैसा उन्हें बन जाना चाहिए था। वह तो राजवंश के चेहरे मात्र हैं। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
saabhar:-dainik jagran
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