9.12.11

माननीय, अब माफ कर दीजिए

Wednesday 7 December 2011

माननीय, अब माफ कर दीजिए

जरूरी नहीं है कि माननीय लोग जो भी टिप्पणी करें, वह माननीय ही हो। न्यायमूर्ति महोदय ने जब पहले डंडा भांजा था, तब मुझे वाकई खुशी हुई थी कि चलो प्रेस परिषद में अब रौनक हो जाएगी, लेकिन न्यायमूर्ति महोदय शायद यह भूल रहे हैं कि बार-बार एक ही डंडा भांजने वाले ग्वालों से भैंसें भी नहीं डरा करतीं।
विदर्भ में किसानों की आत्महत्या से ८८ वर्षीय देव आनंद की मौत की तुलना कदापि माननीय नहीं हो सकती। मौका एक ऐसे फिल्म वाले की मौत का था, जो दुर्लभ किस्म का था। एक ऐसा कलाकार जो अपने समय के समाज को अच्छी तरह समझता था। जिस दिन देव आनंद साहब का निधन हुआ, उस दिन प्रयाग शुक्ल जी मुझे बता रहे थे कि देव आनंद हिन्दी के बड़े कवि अज्ञेय जी से मिलने उनके कार्यालय आए थे। हिन्दी समाज में जो भी अज्ञेय जी से मिल चुका है, वह जानता है कि अज्ञेय से मिलना कितना मुश्किल और जटिल था। देव आनंद और उनके भाइयों के साहित्यिक
सरोकार किसी से छिपे नहीं थे। आर.के. लक्ष्मण के उपन्यास गाइड पर फिल्म बनाने का जोखिम उठाना कोई मामूली बात नहीं है। देव आनंद समाज से बहुत अच्छी तरह से जुड़े हुए थे, आपातकाल के विरोध में जिन बड़े अभिनेताओं ने आवाज उठाई, उसमें देव आनंद सबसे आगे थे। उन्होंने तो राजनीतिक पार्टी तक बना डाली। उनका जीवन अपने आप में एक सबक है। उनसे कम से कम दस गुण तो भारतीय समाज सीख ही सता है।
ऐसे देव आनंद के निधन का
समाचार अगर कोई पत्रकार पहले पृष्ठ पर नहीं छापेगा, तो बिलकुल यह माना जाना चाहिए कि उसने पत्रकारिता का ककहरा ठी से नहीं पढ़ा है।
न्यायमूर्ति साहब के साथ शायद यह दिक्कत है कि वे हिन्दी के अखबार नहीं पढ़ते हैं, अंग्रेजी वालों की चम
-दम में रहते हैं। हिन्दी अखबारों ने तो भारतीय सामाजि और आर्थि मुद्दों पर इतना छापा है कि समेटने की हिम्मत कोई नहीं कर सता। बार-बार यह हना कि पत्रकारों को प्राथमिता का ध्यान नहीं है, एक बेहद हल्की टिप्पणी है और उन लोगों का अपमान भी है, जो गंभीरता से पत्रकारिता कर रहे हैं। पत्रकारिता ने कभी न्यायमूर्ति का अपमान नहीं किया होगा, क्योंकि हमारे कानूनों ने भी न्यायमूर्तियों को ‘पवित्र गाय’ मान रखा है। किन्तु माफ कीजिएगा, न्यायमूर्ति जी, पत्रकारिता या पत्रकारों के संरक्षण के लिए अलग से कोई कानून नहीं है, इसलिए पत्रकारिता और पत्रकारों की धज्जियां सरेआम उड़ाई जाती हैं। जिसका मन करता है, वही प्राथमिकता और पेज थ्री के नाम पर पत्रकारिता और पत्रकारों को उपदेश सुना जाता है।
उपदेश देना बहुत आसान है। मैं जानना चाहूंगा कि अच्छे पत्रकारों और अच्छी पत्रकारिता के संरक्षण के लिए न्यायमूर्ति महोदय ने आज तक क्या किया है? उस दिन देव आनंद के निधन के समाचार के अलावा भी सामाजिक और आर्थि
सरोकार के समाचार व विचार अखबारों में प्रकाशित हुए थे, लेकिन लगता है न्यायमूर्ति महोदय देव आनंद को ही देखते रहे। मुझे लगता है, वे भी एक डंडा लेकर साधारणीकरण में जुटे हैं। वे चाहते हैं कि तमाम तरह के पत्रकारों को हांक कर एक ही तबेले में पहुंचा दें, जो कि संभव नहीं है। अभिव्यक्ति की आजादी का लक्ष्य कोई एक तबेला नहीं है। अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब ही यह है कि सबकी अपनी-अपनी अभिव्यक्ति होगी और सब जरूरी नहीं हैं कि एक ही तबेले या एक ही मंजिल पर पहुंचना चाहें। न्यायमूर्ति महोदय को ऐसी साधारण वैचारिकी से बचना चाहिए। उन्होंने बड़े मुंह से छोटी बात कही है, जो शोभा नहीं देती। साधारणीकरण या जेनरलाइज करके वे वही काम कर रहे हैं, जो अधिसंख्य पत्रकारों ने किया है, हर बात को जेनरलाइज करके देखना। समाचार-विचार को साधारण और अशिक्षित व आम लोगों के अनुकुल बनाते-बनाते पत्रकारिता ने अपना भाषाई और वैचारिक स्तर गिरा लिया है, यह गिरा हुआ स्तर अचानक से ऊपर नहीं आएगा।
आपकी प्राथमिकता देव आनंद की मौत का समाचार नहीं है, तो कोई बात नहीं, करोड़ों दूसरे लोग भी हैं, जो देव आनंद को पढऩा और याद करना चाहते हैं। न्यायमूर्ति महोदय अगर यह सोच रहे हैं कि विदर्भ के किसानों की आत्महत्या ही रोज प्रथम पृष्ठ पर छाई रहे, तो यह अन्याय है। अदालतों में हर तरह के मुद्दे आते हैं, क्या अदालतों ने कभी प्राथमिकता तय की है? क्या अदालतों ने कभी यह कहा है कि देखिए, पहले सारे हत्या के प्रकरणों को हम प्राथमिकता के आधार पर निपटाएंगे और चोरी के मामले को बाद में देखा जाएगा। कोई भी न्यायमूर्ति यह नहीं कहता कि छेड़छाड़ की तो सुनवाई ही भूल जाइए, पहले हत्या का मुकदमा निपटाया जाएगा। अदालतों ने कभी नहीं कहा कि पहले हम गरीबों के शोषण से निपट लेते हैं और बाद में अमीरों के आपसी झगड़े निपटाएंगे।
लगता है, न्यायमूर्ति महोदय किसी दूसरी दुनिया से आए हैं। अगर विदर्भ में किसान आत्महत्या कर रहे हैं, तो क्या इसके लिए मीडिया दोषी है? न्यायमूर्ति महोदय किसानों की मौत के लिए उस सरकार को क्यों नहीं रोज सुबह उठकर गरियाते हैं, जिसने उन्हें नियुक्त किया है? किसान आत्महत्या कर रहे हैं, तो इसके लिए सरकारें दोषी हैं? यह काम या यह नाकामी सरकार की है, उसे कोसा जाना चाहिए। यहां मीडिया को कोसने का तो कोई मतलब ही नहीं है। मीडिया पहले कालाहांडी के लिए खूब कागद कारे कर चुका है और विदर्भ के लिए भी कर रहा है।
माफ कीजिएगा, मीडिया के लिए जन्म और मृत्यु, दोनों ही समाचार हैं। शहर में मौतें होती रहती हैं, लेकिन उनकी वजह से शादियां नहीं रुकतीं, शादियों में नाच-गाना नहीं रुकता। शायद न्यायमूर्ति जी इस बात को भूल गए हैं।
न्यायमूर्ति महोदय को गरीबों की चिंता का शानदार शहर बसाने से पहले एक बार सरकार से भी पूछ लेना चाहिए कि सरकार क्या चाहती है। सरकार तो विलास ही पसंद करेगी, क्योंकि जो सरकारें अपनी जनता को खुश नहीं कर पाती हैं, वे देश में विलास को ही बढ़ावा देती हैं। वे चाहती हैं कि लोग मनोरंजन में उलझे रहें, सरकारी विफलता व भ्रष्टाचार की बात न करें। माननीय की इच्छा व प्रयासों के अनुरूप सामाजिक-आर्थिक प्राथमिकता जब पूरी तरह से छा जाएंगी, तो सबसे ज्यादा तकलीफ सरकारों को ही होगी, मीडिया तो हमेशा की तरह आलोचना झेल लेगा, लेकिन क्या न्यायमूर्ति महोदय झेल पाएंगे?

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