18.12.11

संसद पर हमले की दसवीं बरसी

संसद पर हमले की दसवीं बरसी पर इस हमले के दौरान अपने प्राणों की आहुति देकर देश के मान-सम्मान की रक्षा करने वाले सुरक्षा प्रहरियों के परिजनों का यह सवाल आहत करने वाला है कि आखिर आतंकी अफजल को फांसी की सजा कब मिलेगी? इस सवाल से देश के नीति-नियंता भले ही अविचलित बने रहें, लेकिन आम देशवासियों का मस्तक शर्म से झुक जाता है। यह अहसास किसी को भी क्षोभ से भर देने के लिए पर्याप्त है कि देश की अस्मिता को कुचलने की साजिश में शामिल रहे एक आतंकी की सजा पर सिर्फ इसलिए अमल नहीं किया जा रहा है, क्योंकि सत्ता में बैठे कुछ लोगों को अपने वोट बैंक पर विपरीत प्रभाव पड़ने का भय सता रहा है। यह निकृष्ट राजनीति ही नहीं, बल्कि जवानों के शौैर्य और बलिदान का जानबूझकर किया जाने वाला अपमान भी है। लज्जा की बात यह है कि पिछले सात वर्षो से अफजल की सजा पर अमल करने में आनाकानी की जा रही है। यह आतंकियों के समक्ष घुटने टेकना ही नहीं, बल्कि उन्हें प्रोत्साहित करने जैसा भी है। शासन के द्वारा संकीर्ण राजनीतिक कारणों से किसी आतंकी के प्रति ऐसी नरमी की मिसाल मिलना कठिन है। आखिर ऐसी सरकार आतंकवाद से लड़ने का दावा भी कैसे कर सकती है जिसे आतंकियों की सजा पर अमल करने में पसीने छूटते हों? अफजल को उसके किए की सजा न देने के लिए किस्म-किस्म के बहानों से देश आजिज आ चुका है, लेकिन बहाना बनाने वाले अपने काम पर लगे हुए हैं। अफजल की दया याचिका के बारे में लंबे अर्से तक देश को गुमराह करने के बाद अब नया बहाना यह बनाया जा रहा है कि मामला राष्ट्रपति के पास है और संविधान किसी दया याचिका पर फैसले के उद्देश्य से राष्ट्रपति के लिए कोई समयसीमा नहीं तय करता। इस कुतर्क के जरिए देश को यह समझाने की कुचेष्टा हो रही है कि राष्ट्रपति के समक्ष केंद्रीय सत्ता असहाय है। जो सरकार अपने संकीर्ण राजनीतिक हितों को पूरा करने के लिए विदेश यात्रा पर गए राष्ट्रपति को सोते से जगाने में संकोच न करती हो उसकी ओर से ऐसे बहाने गढ़ना यह बताता है कि उसने खुद को किस हद तक कमजोर बना लिया है। जब नेतृत्व कमजोर होता है तो वह निर्णयहीनता से ही ग्रस्त नहीं होता, बल्कि तरह-तरह के कुतर्को की आड़ भी लेता है। अफजल के मामले में ऐसा ही हो रहा है। जब सरकारें राजनीतिक इच्छाशक्ति से हीन हो जाती हैं तो वे अपनी जगहंसाई से भी बेपरवाह रहती हैं। अफजल की दया याचिका संबंधी फाइल पिछले सात वर्षो से जिस तरह दो-चार किलोमीटर के दायरे में स्थित विभिन्न कार्यालयों में घूम रही है उसे देखते हुए तो ऐसा लगता है कि उसकी सजा पर अमल होने में अभी कई और बरस खप जाएंगे। इसकी आशंका इसलिए भी बढ़ गई है, क्योंकि केंद्रीय सत्ता जहां दिन-प्रतिदिन कमजोर होती चली जा रही है वहीं फांसी की सजा पाए आतंकियों के मामले में राजनीति करने वाले दुस्साहसी होते चले जा रहे हैं। यह लगभग तय है कि जब मुंबई हमले में जिंदा पकड़े गए पाकिस्तानी आतंकी अजमल कसाब की सजा पर अमल की बारी आएगी तब भी केंद्रीय सत्ता ऐसी ही आनाकानी दिखाएगी। यदि ऐसा नहीं होता तो उसके मामले का अब तक निपटारा हो चुका होता।
साभार:-दैनिक जागरण

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