लोथर हरनाइसे के तीन इक्के (3E Program)
लोथर
हरनाइसे विश्व के महान कैंसर अनुसंधानकर्ता और जर्मनी की लाभ-निरपेक्ष
संस्था “पीपुल अगेन्स्ट कैंसर” के संस्थापक और अध्यक्ष हैं। यह अतर्राष्ट्रीय संस्था कैंसर पर अनुसंधान,
शिक्षा व वैकल्पिक और परम्परागत कैंसर चिकित्सा के लिए कार्य करती
है। इनकी पुस्तक कीमोथेरेपी हील्स कैंसर एन्ड द वर्ल्ड इज़ फ्लेट कुछ ही महीनों
में बैस्टसेलर साबित हुई। इस पुस्तक में लोथर ने 100 से ज्यादा वैकल्पिक कैंसर
चिकित्सा प्रणालियों पर वर्षों तक किये गये अनुसंधान, अनुभव,
कैंसर के नये तथा कैंसर को पराजित कर चुके रोगियों के साक्षातकार और
तजुर्बों के बारे में विस्तार से लिखा हैं। यहां
हम लोथर द्वारा कैंसर के कारण, बचाव और उपचार पर किये गये
अनुसंधान के बारे में चर्चा करेंगे। लोथर शुरू से ही डॉ. जॉहाना बुडबिज और आधुनिक
जर्मन चिकित्सा-विज्ञान के पिता के नाम से विख्यात डॉ.
राइक गीर्ड हेमर से बहुत प्रभावित थे। लोथर बीमारियों के कारण एवं उपचार में
आध्यात्मिक पहलुओं को काफी महत्व देते थे। वे कैंसर चिकित्सा में आहार, प्रकाश, ऊर्जा तथा जीवनशैली की भूमिका को बहुत
महत्वपूर्ण मानते थे और सभी वैकल्पिक कैंसर चिकित्सा प्रणालियों में डॉ. बुडविग
पद्धति को सबसे अच्छी मानते थे।
लोथर
ने विभिन्न वैकल्पिक कैंसर चिकित्सा प्रणालियों पर अनुसंधान किये। उन्होंने वर्षों
तक विभिन्न देशों का भ्रमण किया। कैंसर के सैंकड़ों कैंसर को परास्त कर सामान्य, स्वस्थ और कैंसरमुक्त जीवन जी रहे योद्धाओं से साक्षात्कार किया और उनके तजुर्बों के बारे में
बारीकी से पूछताछ की। इन अनुभवों को उन्होंने तीन बिंदुओं पर कैन्द्रित करते हुए
अपना कैंसर-रोधी कार्यक्रम तैयार किया था जो लोथर के तीन इक्कों (3E - Eat right, Eliminate or Detoxification and Energy) के नाम से मशहूर हुआ। मैं उनके अनुभवों
को उन्हीं के शब्दों में नीचे लिख रहा हूँ। क्योंकि हिन्दी
में ये बिन्दु उ से शुरू होते हैं इसलिए हम इन्हें तीन उ
– उपचार (उत्तम आहार, उत्सर्जन और ऊर्जा) कहेंगे।
उत्तम
आहार Eat right - कैंसर
पर विजय पाकर स्वस्थ जीवन जी रहे लोगों में से लगभग 80% ने अपने आहार में मूलभूत परिवर्तन किया था।
उत्सर्जन
Eliminate or Detoxification - कम
से कम 60% लोगों ने गहन विषहरण (Detoxification) क्रियाओं को पूरे विश्वास और भावना से अपनाया था।
ऊर्जा
Energy work - कैंसर
को परास्त कर चुके शत प्रतिशत लोगों में मैंने असीम शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक ऊर्जा का प्रवाह होते देखा।
उत्तम आहार
सही
आहार कैंसर उपचार का पहला बिंदु है। लेकिन जो लोग इन बातों पर
विश्वास नहीं यह करते हैं कि स्वस्थ और विवेकपूर्ण चुने हुए आहार को सेवन करने से
कैंसर जैसा घातक रोग भी ठीक हो सकता है या कैंसर चिकित्सालयों के बड़े बड़े
प्रोफेसर जो कैंसर-रोधी आहार को महज़ बकवास बताते हैं। तो वे सब झूंठे हैं। उन्हें
मेरा फोन नंबर दे दीजिये। मैं साबित कर दूँगा कि कैंसर उपचार में अच्छे आहार का
कितना ज्यादा महत्व है। सच तो यह है कि कैंसर-रोधी आहार कीमोथेरेपी और
रेडियोथेरेपी से ज्यादा प्रभावशाली है। मैं ऐसे हजारों लोगों को मिल चुका हूँ जिन्होंने
अपने आहार में बदलाव करके अपने कैंसर जैसे रोग पर विजय प्राप्त की है और आज सामान्य, स्वस्थ और
कैंसरमुक्त जीवन जी रहे हैं। मैं बराबर उनके सम्पर्क में हूँ। जब हम आहार की बात करते हैं तो ऊर्जा के बारे में चर्चा करना जरूरी हो
जाता है। हम तीन तरीकों से ऊर्जा ग्रहण करते हैं।
1- पहला है प्रकाश, जो सचमुच ऊर्जा का अव्वल स्रोत है। यह शत प्रतिशत सत्य है।
2- दूसरा तरीका है “जैविक आहार”, जो शरीर को ऊर्जा से भर देता है। दूसरी
ओर जब आप बर्गर खाते हैं (जिसमें कोई ऊर्जा नहीं है) तो खाने के बाद आप भारी और
ऊर्जाहीन महसूस करते हैं। क्योंकि जब भी आप बर्गर खाते हैं आपकी ऊर्जा का ह्रास
होता है।
3- तीसरा तरीका है अपने
विचारों या ध्यान द्वारा शरीर में ऊर्जा का मुक्त प्रवाह होने देना। याद कीजिये
अपने जीवन के वो लम्हें जब आपको पहली बार प्यार हुआ था। क्या वह अहसास आप आज तक भुला
सके हैं? क्या प्यार ने आपके डी.एन.ए. की संरचना में
बदलाव किया था? या आपकी सासों की लय बदल दी थी? सच में बदला तो कुछ भी नहीं था, हाँ पर शरीर की हर
कोशिका में एक नई उर्जा की अनुभूति हुई थी। क्योंकि प्यार ने आपके शरीर के सारे
चक्रों और बंधनों को खोल दिया था और शरीर में ऊर्जा का उन्मुक्त प्रवाह होने लगा
था। यही अच्छे स्वास्थ्य का रहस्य है कि शरीर इस आध्यत्मिक ऊर्जा से सराबोर रहे
और यह ऊर्जा शरीर में उन्मुक्त रूप से प्रवाहित भी होती रहे। इसका मतलब
यह हुआ कि हमारी मानसिक और आध्यात्मिक ऊर्जा स्वास्थ्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
हम
पुनः आहार पर चर्चा करते हैं। वैसे तो कई कैंसर-रोधी आहार पद्धतियां हैं लेकिन
सर्वश्रेष्ठ तो है बुडविग की आहार-पद्धति ही है। डॉ. जॉहाना बुडविग
की खोज सचमुच अदभुत, असाधारण और अविश्वसनीय
है। उन्होंने हमे बतलाया कि अलसी के तेल को पनीर यानी गंधकयुक्त अमाइनो एसिड जैसे
सिस्टीन और मीथियोनीन के साथ मिलाने पर एक नया पदार्थ बनता है जो पानी में घुलनशील
होता है। और सीधे कैंसर कोशिकाओं में पहुँच कर ऑक्सीजन को आकर्षित करता है और
कैंसर खत्म होने लगता है। यही इस पद्धति का रहस्य है।
डॉ. बुडविग
ने अपने उपचार से कैंसर के हजारों रोगियों का सफल उपचार
किया था। वे आज स्वस्थ हैं और सामान्य जीवन जी रहे हैं। मैं सौभाग्यशाली हूँ कि
डॉ. बुडविग में मुझे उनके पते दिये और उनसे मिलने की अनुमति दी। उनकी कैंसर उपचार
पद्धति सर्वोत्तम है। कैंसर जैसे जानलेवा रोग की अंतिम अवस्था के रोगी भी इस उपचार से पूर्णतया ठीक होकर आज सकून से जी रहे हैं। उनके
साक्षातकार सचमुच अविश्वसनीय, असाधारण और अचंभित करने वाले
थे। उनके द्वारा बनाये गये एलडी तेल के मालिश मात्र से कैंसर की अंतिम अवस्था से
जूझ रहे बेहोश रोगी उठ खड़े होते थे और वे ठीक होकर आज भी जीवित हैं। जो यह कहते हैं कि कैंसर को बुडविग आहार चिकित्सा ठीक नहीं कर सकती है,
उन्हें कहिये मुझसे मिलें मैं ऐसे सैंकड़ों रोगियों से हाथ मिला चुका हूँ जो
बुडविग आहार चिकित्सा से अपना कैंसर ठीक कर चुकें हैं।
उत्सर्जन
दूसरा
बिन्दु उत्सर्जन या निर्विषीकरण है अर्थात शरीर को हानिकारक या उत्सर्जी पदार्थों
से मुक्त रखना। निर्विषीकरण की शुरूवात आंतों की सफाई से शुरू होती है। मालिश, क्लींजिंग
एनीमा दिये जाते है। खराब और सड़े हुए दांत निकलवाना भी बहुत जरूरी है। खराब और
मृत दांतों की रूट केनाल कीटाणुओं से भरी रहती है तथा यकृत और लसिका तंत्र को
निरन्तर संक्रमण पहुंचाती रहती है। ऑक्सीजन की कमी के कारण कोशिकाएं ग्लुकोज को
पूरी तरह नहीं तोड़ पाती है और लैक्टिक एसिड बनाकर ऊर्जा प्राप्त करती है। यकृत इस
लैक्टिक एसिड को पुनः ग्लुकोज में बदल देता है और यह ग्लुकोज कैंसर का पोषण बनता
है। यह एक दुष्चक्र
है। लैक्टिक एसिड शरीर की अम्लता बढ़ाता है तथा कई तरह के कष्ट
और दर्द का कारक बनता है। इस लैक्टिक एसिड का उत्सर्जन बहुत जरूरी है। इस के लिए
सस्ता और सुन्दर समाधान सोडा-बाईकार्ब स्नान है जो सौ फी सदी कारगर उपचार है। आप रोजाना
अपने स्नान-कुण्ड (बाथटब) को गुनगुने (लगभग 370 दी 380 C) पानी से भरें, उसमें सौ या
डेढ़ सौ ग्राम खाने का सोडा मिलाकर हिलाएं और आधे घंटे तक कुण्ड में लेट कर स्नान का आनंद लें। सोडा पानी
को क्षारीय बनाता है जो शरीर से अम्लता निकालता है। शरीर से लैक्टिक एसिड निकल जाने पर रोगियों को दर्द
निवारक दवाइयां कम खानी पड़ती हैं। उष्मा शरीर से हानिकारक तत्वों के उत्सर्जन में
बहुत सहायक होती है। रोगी को खूब पानी पीना चाहिये, निर्विषीकरण में पानी के महत्व
को कभी भी कम न समझें।
ऊर्जा
हजारो
रोगियों और वैकल्पिक चिकित्साशास्त्रियों से साक्षात्कार करने के बाद लोथर इस
नतीजे पर पहुँचे कि जो रोगी अपनी बुद्धि और विवेक से ज्यादा अपने दिल की बात मानते
हैं, उन्हें सहजता से स्वास्थ्य की सही डगर मिल जाती है। यदि हम यह समझना चाहते
हैं कि कैंसर के गंभीर रोगी भी कैसे ठीक हों और पुनः स्वस्थ जीवन जीने लगें, तो
सबसे पहले हमें ऊर्जा या जीवन-शक्ति (Energy) के बारे में जानना होगा।
क्या कभी आपने सोचा है कि एक व्यक्ति के मृत शरीर और कुछ ही क्षण पहले जब बह जीवित
था, में क्या अन्तर होता है। शायद कुछ नहीं भले आप सूक्ष्मदर्शी से देखें या उसका
सी.टी. स्केन करें। कुछ कहेंगे कि उसकी आत्मा निकल जाती है, अब वह मात्र एक शरीर
है, मांस का लोथड़ा है। लेकिन लोथर कहते थे कि फर्क सिर्फ ऊर्जा का है। उन्होंने
इसे अपने तरीके से परिभाषित भी किया है। उनके अनुसार ऊर्जा एक अदृष्य शक्ति है जो न
तो नष्ट हो सकती है और न बनाई जा सकती है, यह सिर्फ या तो प्रवाहित हो सकती है या
नहीं हो सकती है।
हम
ऐसी स्थितियां पैदा कर सकते हैं कि जब इस ऊर्जा का उन्मुक्त प्रवाह शुरू हो जाये
जैसे एक नये शिशु का जन्म के समय होता है। या हम इस ऊर्जा के प्रवाह को कई तरह से
नुकसान पहुँचाने की कौशिश करते हैं (जिसे हम रोग की स्थिति कहते हैं) या इसके प्रवाह को पूरी तरह रोक देते
हैं (इस स्थिति को मृत्यु कहते हैं)। इनके बीच हजारों स्थितियां हो सकती हैं जैसे
प्यार, विश्वास, सहानुभूति, नफरत, करुणा, संताप, अवसाद आदि आदि, इन्हें हम आम जीवन
में रोज देखते हैं।
लोथर
मानते हैं कि इसी ऊर्जा का प्रवाह सुनिश्चित करता है कि रोगी मृत्यु को प्राप्त करेगा
या स्वास्थ्य की राह पर चल पड़ेगा। चिकित्साशास्त्रियों ने शरीर में इस ऊर्जा के
प्रवाह को सही करने के कई उपचार और समाधान बतलाये हैं जैसे प्रार्थना, ध्यान,
प्राणायम, योग, अपने कैंसर से अनुबन्ध करना, सुखद भविष्य के स्वप्न देखना या
कल्पना करना (जैसे कि आप कल्पना या Visualization) करते हैं कि आप छः
महीने बाद क्रिकेट खेल रहे हैं), जीवन में आशा और उत्साह भर देना, ई.एफ.टी.,
एक्यूप्रेशर, एक्यूपंचर आदि। ये सब शरीर में ऊर्जा का प्रवाह ठीक कर देते हैं। ईश्वर
पर विश्वास, सकारात्मकता सोच, कैंसर को परास्त कर देने का जज़्बा बहुत जरूरी है।
लोग भगवान से विनती करते हैं कि हे भगवान तू मुझे ठीक करदे मैं तुझे सवा सौ रुपये
का प्रसाद चढ़ाऊँगा या गौशाला में गायों के लिए हजार रुपये का चारा दान करूँगा और
ईश्वर उनकी मदद कर देता है। लोथर कहते हैं कि बहुत से रोगी अपने कैंसर से सौदेबाजी
कर लेते हैं। और उन्हें बहुत लाभ होता है। वे कैंसर से वार्तालाप करते हैं और कहते
है, हे अर्बुद श्रेष्ठ ! यदि आप इसी तरह बढ़ते रहेंगे तो मैं
भी मरूंगा और आपका अस्तित्व भी खत्म हो जायेगा। लेकिन यदि आप घुल कर छोटे से हो
जायेंगे, तो आपको भी मरना नहीं पड़ेगा और इसका मतलब है कि मैं भी जीवित रह सकूँगा।
इसके बदले में मैं अपनी जीवनशैली सुधार लूँगा, टॉक्सिन्स से हर हाल में बचूँगा और
बुडविग द्वारा बताये गये उपचार को पूरी श्रद्धा और भावना से लूँगा।
कैंसर
- समस्या नहीं समाधान
लोथर
बलपूर्वक कहते हैं कि कैंसर शरीर की समस्याओं का समाधान है। कई बार कैंसर की गांठ
इसलिए बनती है कि शरीर पर्याप्त ऐड्रिनेलीन नहीं बना पाता है। ऐड्रिनेलीन ग्लूकोज
का दहन करता है। आपको मालूम होगा कि अधिक ग्लूकोज शरीर के लिए घातक है और कैंसर के
जन्म देती है। उधर कैंसर ग्लूकोज का खमीर करके दहन करता है, कोशिकाओं का तेजी से
विभाजन करता है और जिसके लिए वह ऊर्जा ग्लूकोज से लेता है। इसीलिए कई कैंसर की
गांठ या ट्यूमर बड़ी तेजी से बढ़ता है। कैंसर कोशिकाएं यकृत की तरह कार्य करती हैं
परन्तु अधिक कुशलता से और शरीर के टॉक्सिन्स से हमारी रक्षा करती हैं। बिना ट्यूमर
के हम बीमार पड़ जायेंगे। इसीलिए लोथर कहते हैं कि ट्यूमर समस्या नहीं समाधान है,
जो शरीर के आन्तरिक आघात (टॉक्सिन्स, फंगस आदि) को हमारे रक्त-प्रवाह से दूर रखता
है। इसीलिए अक्सर बायोप्सी परीक्षण में ट्यूमर के गर्भ में फंगस आदि देखे जाते
हैं। जब शरीर पर इन टॉक्सिन्स का आतंक कम हो जाता है तो गांठे स्वतः पिघलने लगती
हैं। इसीलिए फ्रांस के डॉ. कोसमीन कहते हैं कि कैंसर की गांठों की तुरन्त
शल्य-क्रिया करवाने की नहीं सोचें। पहले शरीर का निर्विषीकरण (detoxify)
करें, फिर भी गांठे नहीं पिघलने लगें तो शल्य करवाएं।
कैंसर
का अहम कारक - तनाव
प्रसन्न
और सार्थक जीवन कैंसर उपचार की पहली सीढ़ी है। लोथर पूरे आत्मविश्वास से कहते हैं
कि कैंसर हमेशा तनाव से शुरू होता है, बिना तनाव के कैंसर होना असंभव सा है। यह
तनाव भौतिक या मनोवैज्ञानिक हो सकता है, कोशिका को क्या फर्क पड़ता है कि तनाव
कहां से आया है। कैंसर में हमेशा ग्लूकोज संबन्धी समस्या होती है। इंसुलिन ग्लूकोज
को कोशिका में भेजता है। ऐड्रिनेलीन ग्लूकोज को कोशिका से बाहर करते हैं, इस कार्य
में कोर्टीजोल और ग्लूकागोन भी थोड़ा हाथ बंटाते हैं। यह तो सभी जानते हैं कि जब
भी शरीर तनावग्रस्त होता है तो शुरू में शरीर का ऐड्रिनेलीन बढ़ता है। यह सही है
लेकिन यदि शरीर लंबे समय तक तनाव में रहे तो ऐड्रिनेलीन का स्राव धीरे-धीरे घटने
लगता है। कैंसर में यही होता है और कोशिका में ग्लूकोज की मात्रा भरपूर रहती है,
और उसका दहन नहीं
हो पाता है। ये कोशिकाएं मरने लगती हैं। इतनी मात्रा में ग्लूकोज एक
विष है, यह धमनियों, गुर्दों और हड्डियों को नुकसान पहुँचाता है। इस खतरे से बचाने
के लिए शरीर कैंसर को जन्म देता है क्योंकि ग्लूकोज की इस अधिकता से बचने के लिए शरीर
के पास यही एक अंतिम विकल्प बचता है।
कैंसर
- दूसरा जिगर (विषालय या Toxic Reservoir)
लोथर मानते हैं कि जब शरीर में टॉक्सिन्स या
उत्सर्जी पदार्थ इतने बढ़ जाते हैं कि गुर्दे और यकृत भी उनका उत्सर्जन नहीं कर
पाते हैं तो शरीर इन टॉक्सिन्स को मुख्य रक्त-प्रवाह से दूर रखने के उद्देष्य से
इन्हें कैंसर की गांठों में छुपा कर रख देता है। या यूँ कहे कि शरीर इन कैंसर की
गांठो या अर्बुद को आपातकालीन विषालय (Toxin Reservoir) के रूप में प्रयोग
करता है। जर्मनी के विख्यात टॉक्सिकोलोजिस्ट मैक्स डोन्डरर कैंसर की गांठों की
बॉयोप्सी किया करते थे और गांठों के भीतर सड़े हुए दांतो के भरे जाने वाले अमलगम
के अवशेष या अन्य धातुएं और फॉरमेल्डिहाइड आदि अक्सर देखने को मिलते थे। डॉ. हल्डा
क्लार्क पी.एचडी. ने अपनी पुस्तक "द
क्योर फॉर ऑल डिजीजेज" में लिखा है कि अधिकतर ठोस कैंसर की गांठों में
फाइबर-ग्लॉस, एस्बेस्टस, फ्रियॉन, प्रोपाइल अल्कॉहॉल और अन्य टॉक्सिन्स पाये जाते
हैं। ये टॉक्सिन्स तो बड़ी गांठों के कैंद्र में थोड़ी सी जगह ही घेरते हैं लेकिन
कालान्तर में इन गाठों में साल्मोनेला, शिगेला और स्टेफाइलोकोकस ऑरियस का संक्रमण
हो जाता है।
लोथर हरनाइसे द्वारा डॉ. बुडविग का साक्षात्कार
लोथर
- आपकी खोज का
मुख्य आधार क्या है?
डॉ.
जॉहाना बुडविग - यह सन् 1951 की बात है जब मैं फेडरल हेल्थ ऑफिस के फार्मास्युटिकल और फैट्स विभाग में
वरिष्ट विशेषज्ञ थी। यह देश का सबसे बड़ा पद था जो नई दवाओं को जारी करने की
स्वीकृति देता था। उन दिनों मेरे पास सल्फहाइड्रिल (सल्फर युक्त प्रोटीन यौगिक)
श्रेणी की कैंसररोधी दवाओं के कई आवेदन स्वीकृति के लिए आये थे। उन दिनों कैंसर के
उपचार में फैट्स की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण मानी जा रही थी। तत्कालीन विख्यात
प्राध्यापक नोनेनब्रुच की रिसर्च रिपोर्ट से भी यही संकेत मिल रहे थे। लेकिन
दुर्भाग्यवश उन दिनों फैट्स को पहचानने के लिए कोई रसायनिक परीक्षण उपलब्ध नहीं
नहीं थे।
सन् 1951
में ही मैं और प्रोफेसर कॉफमेन ने मिल कर फैट की रासायनिक रचना को पहचानने की
तकनीक विकसित की थी। कॉफमेन जनरल फेडरल इन्स्टिट्यूट में अनाज, आलू और फैट अनुसंधान कैंद्र के निर्देशक थे। मैने
पहली बार पेपर क्रोमेटोग्राफी तकनीक विकसित की थी। इसका मतलब यह है कि हम 0.1 ग्राम फैट में भी फैट्स, फैटी-एसिड्स और
लाइपोप्रोटीन्स को भी पहचान सकते थे। Co 60 आइसोटोप्स की मदद
से लिनोलेनिक एसिड और लिनोलिक एसिड को पृथक करने में सक्षम थे। रेडियोआयोडीन
द्वारा फैट्स की सही-सही आयोडीन वेल्यू का आंकलन कर सकते थे। यह खोज बहुत अहम थी।
सरकार ने हमारी सहायता के लिए 16 पीएच.डी. प्रवेशार्थी नियुक्त कर दिये थे। हमारी
खोज के प्रतिवेदन "फैट
अनुसंधान में नई दिशा" में
प्रकाशित हुए थे। हमने उन्हें सभी को बताये और सभी जरनल्स में खूब प्रचारित और प्रकाशित
करवाये। मैंने अपनी पुस्तक "फैट सिन्ड्रोम" (1956) में भी इन सबका विस्तार से वर्णन किया है।
तब
मैंने नोल कम्पनी, जो सल्फहाइड्रिल (सल्फर युक्त प्रोटीन यौगिक) श्रेणी की दवाओं
को कैंसर के उपचार हेतु स्वीकृत करवाना चाहती थी, से उनके द्वारा की गई शोध की
पूरी जानकारियां मांगी। 1951 में मेरे समझ में आ चुका था कि मुख्य समस्या कहाँ है।
तब सभी जीवित ऊतकों द्वारा ऑक्सीजन के अवशोषण की प्रक्रिया को जानना चाहते थे। तब
तक यह तो सब जान गये थे कि सल्फहाइड्रिल ग्रुप (सल्फर युक्त प्रोटीन्स) श्वसन
क्रिया कर रही कोशिकाओं में पाया जाता था। लेकिन हमें लगता था कि सल्फहाइड्रिल
ग्रुप के अलावा भी कोई तत्व है जो श्वसन क्रिया के लिए आवश्यक है। संभवतः यह कोई
अज्ञात फैट होना चाहिये जिसे हम पहचानने में असमर्थ थे। यही फैट वारबर्ग श्वसन
एंजाइम पथ में महत्वपूर्ण भूमिका रखता है।
वारबर्ग
यह तो जानते थे कि श्वसन एंजाइम या साइटोक्रोम ऑक्सीडेज के अलावा कोई अज्ञात तत्व
जो संभवतः कोई फैटी एसिड है, जो कोशिकाओं की श्वसन क्रिया के लिए जरूरी है और
जिसका सम्बंध कोशिकाओं में ऑक्सीजन की आपूर्ति के अवरुद्ध होने से है। इसी सिलसिले
में उन्होंने ब्युटिरिक एसिड द्वारा कोशिकाओं में ऑक्सीजन को आकर्षित करने हेतु कई
प्रयोग किये जिसमें वे असफल रहे।
लोथर
- क्या इसका मतलब यह है कि वारबर्ग पहले व्यक्ति
थे जो ब्युटिरिक एसिड द्वारा कोशिकाओं में ऑक्सीजन को खींचना चाहते थे?
डॉ. जॉहाना बुडविग - नहीं, सबसे पहले वॉन हेलमोल्ज ने कोशिकाओं में
ऑक्सीजन पहुंचाने की कौशिश की थी।पहले उन्होंने कुछ बतकों को ब्लीच्ड चावल खिला कर
उनकी श्वसन क्रिया को बाधित किया, जिसके कारण वे उनका दम घुटने लगा और वे छटपटाने
लगी। लेकिन उन्हें न तो विटामिन ए, बी, सी, डी, या ई खिलाने से और ना ही ऑक्सीजन देने
कोई फायदा हुआ और वे जल्दी मर गयी। यह बात आज भी सही है। यदि किसी अस्पताल में
ऑक्सीजन का बम रख दिया जाये तब भी ऑक्सीजन की कमी से जूझते रोगी को कोई फायदा नहीं
होगा, बल्कि वह जल्दी मरेगा।
सैंट गियोर्गी ने भी फैट के महत्व को समझा और प्रयोग भी किये थे। सन् 1952 में उन्होंने लिखा था कि
ऑक्सीकरण बहुत जल्दी-जल्दी हो जाता है और फैट्स को पहचानना असंभव सा लगता है। इस
संदर्भ में मैंने फैट्स के विश्लेषण हेतु संवेदनशील तथा विशिष्ट तरीके (Paper
Chromatography) और स्टेन्स बतलाये थे। पहली बार मैंने फैट्स और
उनके घटक फैटी-एसिड्स को सही-सही पहचानने और पृथक करने में सफलता पाई थी।
लोथर - ये फैटी-एसिड्स किस तरह कार्य
करते हैं?
डॉ.
जॉहाना बुडविग - ये
कोशिका के नाभिक में स्थित घनात्मक आवेशित प्रोटीन के विपरीत ऋणात्मक ध्रुव की तरह
कार्य करते हैं। ये कोशिका भित्ति में स्थित रहते हैं और पहले इन्हें लाइपॉयड्स (fatty
substances) कहा जाता था। पहले हमें यह नहीं मालूम था कि ट्यूमर में
विभाजित होती हुई ढ़ेर सारी कोशिकाएं क्यों मौजूद रहती हैं। चिकित्सा जगत में आज
भी यह गलत धारणा बनी हुई है कि कैंसर में कोशिकाओं का विभाजन बहुत बढ़ जाता है।
लेकिन यह असत्य है। 1956 में प्रकाशित मैंने एक लेख में कहा था कि ट्यूमर में
विभाजित हो रही ढ़ेर सारी कोशिकाएं तो होती
हैं और अमाइटोसिस (amitosis) की क्रिया शुरू हो चुकी होती
है। ट्यूमर में शिशु-कोशिकाओं का खंडीकरण नहीं होता है और जीर्ण कोशिकाएं बेकार हो
जाती हैं। जैसे किसी पौधे की पत्ती टूटती है तो उस जगह त्वचा की नई परत चढ़ जाती
है, यह क्षमता, जो कोशिका विकास के लिए
आवश्यक है, इलेक्ट्रोन युक्त फैटी एसिड्स के अभाव में बाधित
हो जाती है। क्योंकि यह नई परत फैटी एसिड्स से बनती है।
लोथर - इन फैटी-एसिड्स इलेक्ट्रोन्स
फोटोन्स को कैसे आकर्षित करते हैं?
डॉ. जॉहाना बुडविग - प्रसिद्ध भौतिकशास्त्री कैनेथ फोर्ड ने 1966 में
कहा था कि फैटी-एसिड में मंडराते गुंजन करते सक्रिय इलेक्ट्रोन्स का सूर्य के
फोटोन्स के प्रति आकर्षण और आवेश इतना प्रचण्ड होता है कि लगता तो ऐसा है जैसे
तेलीय बीजों में संचित इलेक्ट्रोन्स ने अपने पूर्वज सूर्य के फोटोन्स को पहचान
लिया हो। बीजों में इलेक्ट्रोन्स की ऊर्जा का संचय सूर्य के फोटोन्स के प्रभाव से
ही होता है, इसलिए सूर्य इन इलेक्ट्रोन का
पूर्वज ही कहलाया जायेगा। भौतिकशास्त्र के अनुसार यह सिद्ध भी हो चुका है। पौधे की
पत्तियों में सूर्य ऊर्जा का अवशोषण विशिष्ट तरंगदैर्ध्य (wavelength) पर होता है। विज्ञान इसे
क्वांटोजोम (quantosomes) के नाम से परिभाषित करता है।
पत्तियों में अवशोषित इस ऊर्जा (क्वांटा) की लय फोटोन की लय से बिलकुल मिलती है।
इसका मतलब यह हुआ कि यह ऊर्जा (क्वांटा) फोटोन्स के अलावा किसी को आकर्षित नहीं
करेगी। ऑक्सीजन की खपत और भोजन से ऊर्जा की उत्पत्ति घनात्मक सल्फरयुक्त प्रोटीन
और ऋणात्मक आवेशित इलेक्ट्रोन्स के अन्तरसंबन्ध और पारस्परिक आकर्षण पर निर्भर
करती है।
लोथर - ये इलेक्ट्रोन्स
के बादल क्या होते हैं?
डॉ. जॉहाना बुडविग - जब शरीर में वसा-अम्ल सूर्य के फोटोन्स का भरपूर
अवशोषण करते हैं तो वसा-अम्ल की लड़ में इलेक्ट्रोन्स का आवेश, ऊर्जा और सक्रियता
इतनी अधिक होती है कि ये हल्के-फुल्के इलेक्ट्रोन्स झुंड ऊपर उठ कर बादलों की तरह
तैरने लगते हैं और हाइड्रोजन के भारी परमाणु समेत वसा-अम्ल की भारी लड़ नीचे रह जाती है। इसीलिए इनको
इलेक्ट्रोन्स के बादल (electron cloud) कहते हैं।
लोथर - इन
बादलों का क्या महत्व है?
डॉ. जॉहाना बुडविग - इस पूरी कायनात
में सक्रिय और ऊर्जावान इलेक्ट्रोन्स और फोटोन्स को संचय करने की सबसे ज्यादा
क्षमता मनुष्य में ही होती है। यह इलेक्ट्रोनिक जीवन ऊर्जा मनुष्य के शरीर में
असंत्रप्त वसा-अम्ल में संचित रहती है, इसीलिए इन्हें सजीव और आवश्यक भोजन-तत्व की
संज्ञा दी गई है। इनके बिना मनुष्य जीवन अकल्पनीय है।
सामान्यतः रसायनशास्त्री आयोडीन-मान के आधार पर बतलाते हैं
कि अमुक तेल संत्रप्त है या संत्रप्त। लेकिन यदि इन तेलों को उच्च तापमान पर गर्म
किया जाता है, तो आयोडीन-मानक के आधार पर तो उन्हें असंत्रप्त वसा-अम्ल ही कहा
जायेगा। लेकिन उनकी जीवटता, सक्रियता और आवेश खत्म हो जाता है क्योंकि वे
ट्रांस-फैट्स में परिवर्तित हो जाते हैं, वसा के चयापचय में हानिकारक मुक्त-कण (Free radicals) की तरह व्यवहार करते हैं। यह बात बहुत महत्वपूर्ण है, इसीलिए मैं जोर
देकर कह रही हूँ। मैंने गर्म किये हुए इन तेलों में मनुष्य के लिए अत्यंत घातक
ट्रांस-फैट्स को पहचाना है।
लोथर - और आप हमेशा अपने
उपचार में इन्हीं टॉक्सिक और मृत फैट्स से परहेज करने की अनुशंसा करती हैं?
डॉ. जॉहाना बुडविग - लोथर, तुमने बिलकुल सही कहा है, मैं अपने उपचार
में हमेशा इन टॉक्सिक फैट से परहेज करने की सलाह देती हूँ। लेकिन आज भी वसा और तेल
निर्माता तेलों को गर्म कर रहे हैं, हाइड्रोजनीकरण कर रहे हैं और रसायनों का प्रयोग
भी कर रहे हैं। वे कहते हैं कि यह अरबों-खरबों डालर का धंधा है और नई तकनीक विकसित
करने और मशीने बदलने का खर्चा कौन देगा।
दूसरी तरफ कीमोथैरेपी के नुमाइंदे कुछ सुनना ही
नहीं चाहते हैं, उनकी दिशा ही गलत है। कीमो एक मारक या विध्वंसक उपचार है जो कैंसर
की गांठ को नष्ट करता है, लेकिन साथ में ढेर सारे स्वस्थ ऊतकों को भी मार डालता
है। कई बार तो रोगी की मृत्यु हो जाती है। कोशिकाओं की संवृद्धि (growth) मनुष्य की जीवन प्रक्रिया का अहम पहलू है। कीमो मनुष्य के इसी प्रमुख
गुण संवृद्धि (growth) को बाधित करती है, इसीलिए मारक उपचार
माना जाता है। हम किसी बुरी चीज से कुछ भी अच्छा हासिल नहीं कर सकते हैं।
लोथर - क्या आप मुझे
असंत्रप्त वसा-अम्ल के बारे में विस्तार से बतलायेगी?
डॉ. जॉहाना बुडविग - मक्खन में 4 कार्बन की लड़ होती है। इसी तरह
बकरी की वसा, भेड़ की वसा और नारियल के तेल में 6, 8, 10 या 12 कार्बन की लड़ होती हैं। असंत्रप्त और सजीव फैटी-एसिड्स में 18 से
ज्यादा कार्बन होते हैं। जैतून के तेल में सिर्फ एक ही असंत्रप्त द्वि-बन्ध होता
है और इसलिए इसमें सजीव इलेक्ट्रोन बहुत कम होते हैं। वसा-अम्ल की छोटी लड़े
जिनमें कम कार्बन होते हैं, मुख्यतः संत्रप्त होते हैं जैसे ब्युटीरिक एसिड,
नारियल तेल और पॉम फैट। हालांकि यदि शरीर में
असंत्रप्त-वसा पर्याप्त मात्रा में हों तो संत्रप्त वसा भी ऊर्जा उत्पादन
में सहायक कर पाते है। 18 कार्बन वाले वसा-अम्ल बहुत विशिष्ट और आवश्यक माने गये
हैं। हालांकि शरीर में 30 कार्बन तक के वसा-अम्ल भी होते हैं।
अलसी के तेल में विद्यमान 18 लड़ वाले वसा-अम्ल जो अत्यंत
असंत्रप्त होते हैं, मनुष्य के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होते हैं, विशेषतौर पर
मस्तिष्क की विभिन्न क्रियाओं के लिए।
कार्बन का परमाणु भारी होता है। आप समझ सकते हैं कि दो आदमी
अपनी दोनों बाहें फैला कर एक दूसरे को ज्यादा मजबूती से पकड़ सकते हैं, लेकिन यदि
वे एक हाथ से पकड़ेंगे तो बन्धन कमजोर रहेगा, वैसा ही कार्बन के साथ होता है।
इलेक्ट्रोन्स से भरपूर लिनोलिक-अम्ल जिंदादिल माना गया है। इसमें दो ऊर्जावान द्वि-बन्ध
होते हैं, जिनमें भरपूर इलेक्ट्रोनिक ऊर्जा होती है। यह इलेक्ट्रोनिक ऊर्जा स्थिर
नहीं रहती, बल्कि गतिशील रहती है। इसके विपरीत रसायनिक यौगिक जैसे नमक में इलेक्ट्रोन्स
स्थिर रहते हैं। यह ऊर्जा इलेक्ट्रोन्स और घनात्मक आवेशित सल्फरयुक्त प्रोटीन के
बीच घूमती रहती है। यह बहुत अहम है। शायद आपने माइकल एंजेलो का चित्र देखा होगा,
जिसमें ईश्वर को एडम को बनाते हुए दिखाया गया है (दो अंगुलियां एक दूसरे की तरफ
इंगित करती हैं परन्तु दोनों अंगुलियां कभी छूती नहीं है)। यही क्वांटम फिजिक्स
है, यहाँ अंगुलिया छूती नहीं हैं। मैक्स प्लांक, अलबर्ट आइंसटाइन या प्रोफेसर
डेस्योर सभी महान वैज्ञानिक यह मानते हैं कि ईश्वर ने मनुष्य को अपने प्रतिबिंब के रूप में बनाया
हैं। आप देखते हैं कि हम मनुष्यों में एक संबन्ध होता है, भावनाएं होती
हैं, भले हम एक दूसरे छूते भी नहीं
हैं।
एक द्वि-बन्ध वाले जैतून के तेल में द्वि-ध्रुवीयता (dipolarity) सूर्यमुखी तेल (दो द्वि-बन्ध युक्त) की अपेक्षा कम होती है। ये दो
द्वि-बन्ध मनुष्य के लिए विशेष महत्व रखते हैं, लेकिन इसी 18 कार्बन की लड़ में
यदि तीन द्वि-बन्ध हों तो द्वि-बन्ध की स्थिति के आधार पर इलेक्ट्रोनिक ऊर्जा
चुम्बक जैसी प्रबल हो जाती है। यदि द्वि-बन्ध पास-पास हों तो ऊर्जा और बढ़ जाती है।
जब ऊर्जा गतिशील होती है तो विद्युत प्रवाहित होती है और चुम्बकीय क्षेत्र बनता
है। इसी तरह इन इलेक्ट्रोन्स का भी एक चुम्बकीय क्षेत्र होता है। बरसात में कांच की
खिड़की पर आपने देखा होगा कि एक पानी की बूँद दूसरी बूँद को आकर्षित करती है और
दोनों मिल कर एक बड़ी बूँद बनाती है। यही सिद्धांत इलेक्ट्रोन्स पर भी लागू होता
है।
इलेक्ट्रोन्स में ऋणात्मक आवेश होता है।
प्रोटीन के सल्फहाइड्रिल-ग्रुप, जो घनात्मक आवेशित होते हैं, वसा-अम्ल की लड़ से
वहीं जुड़ते हैं जहाँ द्वि-बन्ध होते हैं और इलेक्ट्रोन्स के बादल मंडरा रहे होते
हैं। इसी बन्धन से लाइपोप्रोटीन बनते हैं। इस तरह यह जीवन-क्रम घनात्मक और ऋणात्मक
आवेशित कणों के अन्तर-संबन्धों की ही लीला है। इस क्रिया में दोनों आवेश मिलते
नहीं हैं। क्वांटम भौतिकी के अनुसार यही जीवन का रहस्य है। यदि कोशिकाओं की
भित्तियां ट्रांस वसा-अम्ल से बनती हैं, जिनके इलेक्ट्रोन्स बादल और ऊर्जा नष्ट हो
चुके होती है, तो वे आपस में एक जाल की तरह गुंथे रहते हैं। हालांकि इनमें असंत्रप्त
द्वि-बन्ध तो होते हैं परन्तु इलेक्ट्रोन्क ऊर्जा का अभाव रहता है, द्वि-ध्रुवीयता
नहीं होती है, ये प्रोटीन से बंध नहीं पाते हैं और ऑक्सीजन को कोशिका में खींचने
में असमर्थ होते हैं। यह ट्रांस वसा-अम्ल का कातिलाना प्रभाव है।
मैंने देखा कि तीन द्वि-बन्ध वाले असंत्रप्त वसा-अम्ल, जिसे
लिनोलेनिक-अम्ल कहते हैं, में भी 18 कार्बन होते हैं। इसकी पहचान और संरचना का
अध्ययन सबसे पहले मैंने ही किया था। इसमें द्वि-बन्ध हमेशा एक ही जगह नहीं होते
हैं। इसकी लड़ में भारी 18 कार्बन की तुलना में इलेक्ट्रोनिक ऊर्जा इतनी ज्यादा
होती है, जितनी 20 कार्बन वाले अगले अरकिडोनिक-अम्ल में भी नहीं होती है। अलसी के
तेल में विद्यमान लिनोलिक और लिनोलेनिक अम्ल में इलेक्ट्रोन्स की सम्पदा सबसे
ज्यादा होती है। लिनोलेनिक-अम्ल लिनोलिक-अम्ल के साथ मिल कर ऑक्सीजन को बड़े
प्रभावशाली ढंग से आकर्षित करता है। अलसी
में तीन द्वि-बन्ध वाले लिनोलेनिक-अम्ल और दो द्वि-बन्ध वाले लिनोलिक-अम्ल का अनुपात
और संगम इतना उत्तम होने के कारण ही इसे सुपर स्टार भोजन कहा जाता है। मेरे लिए यह
सब प्रयोग द्वारा सिद्ध करना सचमुच आसान हो गया था।
लोथर - क्या यही ऊर्जा
कैंसर का उपचार करती है?
डॉ. जॉहाना बुडविग - तुम ठीक कह रहे हो हैंडसम, यही ऊर्जा जो गतिशील है, जीवन-शक्ति से पूर्ण
है, कैंसर का उपचार करती है या कैंसर की उत्पत्ति ही नहीं होने देती। यदि आपके
शरीर में यह जीवन-शक्ति है तो कैंसर का अस्तित्व
संभव ही नहीं है। यही शरीर की रक्षा-प्रणाली को उत्कृष्ट बना देती है। आजकल
रक्षा-प्रणाली की बहुत बातें होती है, लेकिन आवश्यक वसा-अम्ल ही रक्षा-प्रणाली को
सुदृढ़ बनाने में सबसे बड़ी भूमिका निभाते हैं। एक बार एक बच्चे की हड्डी में
सारकोमा हो गया था। बच्चा बार-बार कह रहा था कि किसी ने उसे स्कूल में धक्का दे
दिया, जिससे वह गिर गया और यह तकलीफ हो गई। सभी डॉक्टर्स ने कहा, क्या बकवास है, क्या बच्चे को गिरने से सारकोमा
से सकता है। लेकिन मैं कहती हूँ कि यदि बच्चे की रक्षा-प्रणाली कमजोर है तो उसका
गिरना भी सारकोमा के लिए जाखिम घटक हो सकता है।
लोथर - क्या ये खराब वसा
या तेल खाने वाले सब लोग कैंसर के शिकार हो जायेंगे?
डॉ. जॉहाना बुडविग - यह बहुत जरूरी है कि हम मनुष्य को शरीर, मन और
आत्मा की एक संयुक्त इकाई के रूप में देखें। सभी पहलू महत्वपूर्ण होते हैं। उदाहरण
के लिए किसी स्त्री की उसके पति से नहीं बनती है, वह उसे रोज ताने देता है और
झगड़ता है, तो मेरा ओम-खण्ड उसे कभी ठीक नहीं कर पायेगा।
लोथर - आप रोगी को
ज्यादा व्यायाम करने की सलाह नहीं देती हो?
डॉ. जॉहाना बुडविग - हां लोथर, यह सब रोगी की स्थिति पर निर्भर करता
है। मैं कैंसर के गंभीर रोगी को तेज चलने, सायकिल चलाने या योग करने की सलाह कभी
नहीं दूँगी। उसे तो आराम करना चाहिये। हां रोगी को हमेशा विस्तर में हीं पड़े रहने
चाहिये बल्कि थोड़ा सक्रिय रहना चाहिये। रोगी के उपचार में पूरे परिवार की
भागीदारी होना चाहिये और घर का वातावरण प्यार भरा होना चाहिये। यदि परिवार के
लोगों का यह उपचार पसन्द नहीं हो या वे उसका भोजन प्रसन्नतापूर्वक नहीं बनाये तो
उपचार के कोई मायने नहीं रह जायेगे।
लोथर
- क्या आपके मतानुसार कैंसर की बड़ी गांठे ऑपरेशन
द्वारा निकाल देनी चाहिये?
डॉ.
यॉहानाः इस बारे में मेरा कोई स्पष्ट मत नहीं है। हां मैं कीमो और रेडियो के सख्त विरुद्ध हूं। उदर में होने वाले
कैंसर के रोगी को हार्मोन उपचार नहीं देना चाहिये। मेरे खयाल से सर्जरी
के बारे में निर्णय रोगी की स्थितियों के अनुसार काफी सोच समझ कर
लेना चाहिये। आंतों के कैंसर रोगियों में कोलोस्टोमी
(नकली मलद्वार) करने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिये। आधुनिक चिकित्सा-तंत्र कैंसर
रोगियो के साथ न्याय नहीं करता है।
लोथर
- आपने प्राकृतिक चिकित्सा का लाइसेन्स कैसे
प्राप्त क्या?
डॉ.
यॉहानाः फैट्स और फार्मास्युटिकल की विशेषज्ञ होने के नाते मैंने
प्राकृतिक चिकित्सा का गहन अध्ययन किया था। मैंने अत्यंत असंतृप्त फैट के महत्व और
विकृत हाइड्रोजनीकृत फैट के घातक प्रभावों को दुनिया के सामने रखा। काफी बीमार
मुझसे मिलते थे, और परामर्श लेते थे। डॉक्टर्स की बिरादरी
के लगने लगा था कि मैं उनके कार्यक्षेत्र में दखल दे रही हूं। मैं रोगियों का
उपचार रूबी लेजर से भी करती थी।
तभी
मैंने विभिन्न तेलों में प्रकाश के अवशोषण की सही सही स्पेक्ट्रोस्कोपिक गणना करके ELDI (इलेक्ट्रोन डिफ्रेन्शियल तेल) भी विकसित किया था। इनकी मालिश करने और
रूबी लेजर की मदद से गंभीर रोगी के चयापचय में अभूतपूर्व सुधार होता है। इस सफलता
से मैं स्वयं भी आश्चर्यचकित थी। कैंसर के रोगियों को एलडी तेल के प्रयोग से जादुई
लाभ मिल रहे थे। तभी मुझे लगा कि अब मेरे दुष्मनों की परेशानी बढ़ने वाली है।
इसलिए मैंने प्राकृतिक चिकित्सा का लाइसेन्स ले लिया और लेजर द्वारा रोगियों का
उपचार करने के लिए विशेष अनुमति भी ले ली।
लोथर
- फिर आपने मेडीकल का अध्ययन भी किया?
डॉ. बुडविग - (मुस्कुरा कर) लोथर तुम सच कह रहे हो। गोटिंजन
में मैंने कैंसर से पीड़ित विख्यात प्रोफेसर मार्टियस की पत्नि का उपचार किया था,
जो बहुत सफल रहा। यह बात कई समाचार पत्रों में भी प्रकाशित हुई थी। इसका वर्णन
मैंने "द डैथ ऑफ अ ट्यूमर" वोल्यूम II (The Death of the Tumor Vol. II) में किया है। इसके बाद मैं कैंसर और अन्य बीमारियों के रोगियों का उपचार
किया करती थी। मेरे कुछ विरोधियों ने कहा कि बुडविग जब डॉक्टर नहीं है तो वह मरीजों
का इलाज क्यों करती है। मुझे यह बुरा लगा और 1955 में मैंने मेडीकल स्कूल में
प्रवेश लिया और शरीर-विज्ञान समेत सभी विषयों की नियम पूर्वक मेडीकल की पढ़ाई की।
एक
घटना मुझे याद आ रही है। एक रात को एक महिला अपने बच्चे को लेकर रोती हुई मेरे पास
आई और बताया कि उसके बच्चे के पैर में सारकोमा नामक कैंसर हो गया है और डॉक्टर
उसका पैर काटना चाहते हैं। मैंने उसे सांत्वना दी, उसको सही उपचार बताया और उसका
बच्चा जल्दी ठीक हो गया और पैर भी नहीं काटना पड़ा। चूंकि तब मैं मेडीकल स्टूडेन्ट
थी। इसलिये मेरे विरोधियों ने मुझ पर केस कर दिया कि मैं अस्पताल के सर्जरी वार्ड
से मरीजों को बहला फुसला कर अपने घर ले जाती हूँ, उनका गलत
तरीके से इलाज करती हूँ और मुझे मेडीकल स्कूल से निकाल देना चाहिए। म्युनिसिपल
कोर्ट ने मुझे पूछताछ के लिये बुलाया। मैंने जज को कहाः “मैं कभी सर्जरी वार्ड में नहीं गई। मुझे तो मालूम भी नहीं वो कहां है। वह
महिला स्वयं मेरे पास आई थी। मैं उसके पास नहीं गई। मैंने उसके बच्चे का
सफलतापूर्वक इलाज किया और पैर भी नहीं कटने दिया। (इसका उल्लेख मैंने अपनी पुस्तक “डैथ ऑफ ए ट्यूमर वोल्यूम 2” में किया है)” कोर्ट के जज और हमारी यूनिवर्सिटी के काउन्सलर डॉ. हेन्ज दोनों ने कहाः “बुडविग, तुमने बहुत अच्छा काम किया है। यहां कोई
तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर सकता है। यदि कोई तुम्हें परेशान करेगा तो चिकित्सा
जगत में भूचाल जायेगा।”
इसके
बाद मेडीकल स्कूल के प्रशासन ने मेरी कैंसर उपचार पद्धति का ध्यान से अवलोकन किया
और वे बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने मुझे कहा कि मैं उनके कैंसर विभाग में
रेडियाथैरेपी और कीमोथैरेपी ले रहे कैंसर रोगियों का उपचार करूँ, जो मुझे मंजूर नहीं था। मेरे उपचार में रेडियाथैरेपी
और कीमोथैरेपी की कोई जगह नहीं है। फिर वहाँ और भी कई पंगे हुए और अंततः मैंने
अपनी मेडीकल पढ़ाई अधूरी ही छोड़ कर गोटिंगन को अलविदा कह दिया।
लोथर - क्या आप अपने कुछ व्याख्यान और प्रजेन्टेशन के
बारे में बतलाओगी?
डॉ. बुडविग
- सन् 1964 में
अमेरीकन ऑयल कैमिस्ट सोसाइटी ने शिकागो के हिल्टन हॉटल में एक बहुत खास
प्रजेन्टेशन के लिए मुझे बुलाया गया था। इससे पहले कि मैं मनुष्य की जीवन-क्रिया
में असंत्रप्त वसा के महत्व पर प्रकाश डालती, प्रोफेसर कॉफमेन निश्चिन्त हो जाना
चाहते थे। इसलिए उन्होंने मैक कम्पनी से पीली साइटोक्रोम डाई मंगवा कर रख ली थी।
उन्होंने एक टिश्यू पेपर पर लगा कर दी और कहा, “इसे छूओ और देखो कि क्या यह लाल
होती है?” मैंने उसे छूआ और वह तुरन्त लाल हो गया। फिर
उन्होंने पूछा, “क्या तुमने अपने हाथ में लाल रंग लगा रखा है?” मैंने हंस कर कहा, “नहीं प्रोफेसर, आप भी इसे छू कर
लाल कर सकते हैं। इसे अपनी अंगुनियों से छू कर तो देखिये।”
उनकी अंगुलियां भी लाल हो गई और मैंने कहा, “मुझे मालूम है
प्रोफेसर, आपने भी नाश्ते में अलसी का तेल लेना शुरू कर दिया है।” यह देख कर सारे दर्शक खड़े हो गये और मेरी प्रशंसा में जोर से तालियां
बजाने लगे। इस प्रस्तुति का विवरण मैंने अपनी पुस्तक “कॉस्मिक
पॉवर्स अगेंस्ट कैंसर” में लिखा है। दूसरी अहम प्रस्तुति
मैंने टोकियो में दी थी। वहां किसी सभा में बालने वाली मैं पहली महिला थी। उस रात
हॉटल में कई महिलाएं मुझसे मिली और आधुनिक
समाज में नारी की भूमिका पर एक व्याख्यान दूँ, क्योंकि उस दिन सारे अखबारों में यह
खबर बड़ी-बड़ी सुर्खियों में थी कि जापान में पहली बार किसी महिला (डॉ. बुडविग) ने
किसी सम्मेलन में व्याख्यान दिया है।
जर्मन
डॉक्टर रोह्म ने, जो अमेरिका चले गये थे, वहाँ जाकर मेरी शोध के बारे में एक लेख “हू
वी आर, वी डॉक्टर्स”? (Who are we, we doctors?) प्रकाशित किया था।
लोथर
- यदि रोगी को कॉटेज चीज़ से एलर्जी है या वह इसे खाना
पसन्द नहीं करता है तो आप उसे क्या सलाह देती है?
डॉ. बुडविग
- बायोलोजिकल थेरेपीज
सेनेटोरियम, स्वीडन के विख्यात निर्देशक मुझे जानते थे
और मेरे उपचार से रोगियों का उपचार किया करते थे। एक बार उन्होंने मुझे फोन किया
कि उन्हें अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन का
उपचार करना है और वे पनीर खाना पसंद नहीं करते हैं। मैंने उन्हें तो कुछ नहीं कहा
लेकिन मुझे आज तक कोई रोगी नहीं मिला जिसे अलसी के तेल और पनीर का मिश्रण लेने में
कोई परेशानी आई हो।
लोथर
- आप कैंसर से बचाव
के लिये लोगों को क्या सलाह देती हैं, ताकि लोग
कैंसर जैसे रोग से बचे रहें?
डॉ. बुडविग
- खाने के लिए
सिर्फ अलसी के तेल की अनुशंसा करती हूँ। मैं फ्रोजन मीट के प्रयोग के लिये हमेशा
सख्ती से मना करती हूँ। कभी-कभी ताजा मांस खाया जा सकता है। फूड स्टोर्स के फ्रोजन
सेक्शन से तो कुछ भी नहीं खरीदे। अपनी ब्रेड या रोटी खुद बनाएं। ऑलियोलक्स अलसी के
तेल की अपेक्षा ज्यादा दिन तक खराब नहीं होता है। इसे ब्रेड, सलाद या सब्ज़ियों पर डाल सकते हैं। बाजार में
मिलने वाले डिब्बा बन्द फलों के रस की जगह घर पर फलों का रस निकाल कर पियें। आलू
और पनीर का प्रयोग कर सकते हैं।
हमारे
चारों ओर का विद्युत चुम्बकीय वातावरण भी बहुत महत्वपूर्ण होता है। सिन्थेटिक
कपड़े शरीर से इलेक्ट्रोन चुराते है। इनके स्थान पर सूती, रेशमी या ऊनी कपड़े पहनें। फोम के गद्दे रात भर में आपकी काफी ऊर्जा सोख
लेते हैं। जूट या रूई के गद्दे प्रयोग करना चाहिए। घर के निर्माण में लकड़ी का
प्रयोग ज्यादा होना चाहिये। लकड़ी और कालीन बाहरी रेडियेशन को घर के अन्दर नहीं
आने देते हैं। अपनी राशि के अनुसार रत्नों को धारण करने से अनावश्यक हानिकारक
किरणें दूर रहती हैं। रत्नों के अनुकूल प्रभावों पर पुस्तकें लिखी जानी चाहिये। नियमित
समय पर सोना और जागना अति आवश्यक है।
हेलसिंकी
के सर्जरी क्लिनिक प्रोफेसर हाल्मे मेरे द्वारा ठीक किये हुए रोगियों का पूरा लेखा
जोखा रखते हैं। उनके अनुसार मुझे 90% से ज्यादा सफलता मिलती है,
वह भी उन रोगियो के उपचार में जहां ऐलोपैथी जवाब दे चुकी होती थी।
लोथर
- आप अपने रोगियों का उपचार कैसे शुरू करती हैं?
डॉ.
बुडविग - जब पहली बार रोगी परामर्श के लिए आता है तो मैं
बड़ी शांति से रोगी को सुनती हूँ। मैं दिन के 3 बजे से 5 बजे के बीच रोगियों को
देखती हूँ। उसे अपनी तकलीफों, चिकित्सा इतिहास (व्यक्तिगत, भूतकाल तथा पारिवारिक), उसके निदान, उपचार आदि के बारे में विस्तार से बताने देती हूं। मैं उसके व्यवसाय,
शौक, आहार, घर के
वातावरण आदि की पूरी जानकारी ले लेती हूं। इस
दौरान मैं उसकी जीवन शैली, आहार, दाम्पत्य जीवन आदि के बारे में भी विस्तार से पूछ
लेती हूँ।
alsi ke dwara oxyzan ko shareer ke andar pahunchakar cancer ko samapt karna yaani yahi baat to praanaayaam me bhi kahi gayi hai jisse hum oxyzon ko shareer ke andar pahunchate hain.
ReplyDeleteoorjaa aur aatma ek jaisi hi hain . aatma bhi na to marti hai aur na wet hoti .na sookhti hai . aprabhaavit rahti hai.
ReplyDeletedusri baat -
geeta me kahaa gaya hai
yuktaahaarvihaarasy
yuktacheshtasy karmasu
yukt swapnaavbodhasy
yogo bhavati dukhahaa..
means -
jo aadmi sahi samay par sahi kaanaa peenaa aur sona aur jaagne ka kaam karta hai wo yogi hota hai aur usko kabhi takleef nahi hoti.
god ko bhi bhaartiya upnishad me aur bhartiy dharm granthon me prakaash yani light jaisa bataaya gayaa hai . oorjaa bhi prakaash swaroop hi hai.
ReplyDeleteaapki is report ke liye thanks a lot.good and true facts.
ReplyDeleteआदरणीय डॉ. द्विजेन्द्र जी,
ReplyDeleteआपकी सटीक प्रतिक्रिया के लिए आभार। आपने बिलकुल ठीक कहा है। यदि बुडविग द्वारा विकसित की गई क्वाण्टम भौतिकी पर शोध जारी रहती तो आज हम धर्म, आत्मा, परमात्मा, ज्योतिष, रत्न विज्ञान, पराविज्ञान, टेलीपैथी, सम्मोहन और अन्तरिक्ष विज्ञान के अनगिनत रहस्यों का वैज्ञानिक स्पष्टीकरण ढ़ूँढ़ पाने में सफल हो सकते थे।
डॉ. ओम