13.1.12

मनमर्जी यानी ममता बनर्जी

शंकर जालान




मनमानी, मिजाजी, महत्वाकांक्षी, मतलबी, मौकापरस्त और मनमर्जी ये छह ऐसे शब्द हैं, जो ममता बनर्जी पर बिल्कुल फिट बैठते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो ये छह शब्द मानो ममता बनर्जी के लिए ही बने हैं। वैसे तो हर नेता अपने लाभ या अपनी पार्टी के फायदे के लिए कभी ना कभी इन छहों शब्दों में से किसी ना किसी शब्द का सहारा जरूर नेता हैं, लेकिन जो नेता एक साथ इन सभी शब्दों का अनुशरण करें उसे ममता बनर्जी कहते हैं।
जी हां, पश्चिम बंगाल की पहली महिला मुख्यमंत्री व तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी और कांग्रेस के बीच जारी गठबंधन पर अब संकट के बादल मंडराने लगे हैं। इंदिरा भवन का नाम बदलने के मुद्दे पर ममता ने कांग्रेस से साफ-साफ और चुनौती भरे शब्दों में कह दिया है कि वे गठभंधन धर्म की मर्यादा को न मानते हुए अपने हिसाब और अपने मिजाज से खुद चलेगी व राज्य चलाएंगी। उनके मुताबिक चाहे तो कांग्रेस गठबंधन तोड़ सकती है।
राजनीतिक के जानकारों के मुताबिक ममता इसलिए अभी नौ-नौ ताल नाच रही है और कांग्रेस को बौना समझ कर ही क्योंकि पश्चिम बंगाल की सत्ता में बने रहने के लिए उसे कांग्रेस की जरूरत नहीं है।
जानकारों का कहना है कि ममता को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि तिनका को उतना ही मोड़ना चाहिए की वह टूटे नहीं। यानी ममता यह क्यों नहीं समझती कि जैसे बंगाल में उसे कांग्रेस की दरकार नहीं है ठीक वैसे ही केंद्र सरकार को भी तृणमूल कांग्रेस की बैशाखी नहीं चाहिए। यह कांग्रेस आलाकमान की उदारता है कि वह चाहे-अनचाहे ममता की मांगें मान लेती है। अगर ममता कांग्रेस की उदारता को उसकी कमजोरी मान रही है तो कहना गलत नहीं होगा कि ममता को राजनीति में बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है। कहने को भले ही तृणमूल कांग्रेस केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार में कांग्रेस के बाद संख्या के हिसाब से दूसरी सबसे बड़ी पार्टी हो, लेकिन इस सच को नहीं झुठलाया जा सकता कि दोनों पार्टियों की सांसदों की संख्या में जमीन-आसमान से फर्क है।
एक किस्सा याद आ रहा है कि एक बच्चे ने अपनी पिता से खुशी-खुशी कहा- पिताजी-पिताजी में दौड़ (रेस) में दूसरे स्थान पर (सेकेंड) रहा। पिताजी पूछा- बेटा दौड़ में कितने बच्चों ने हिस्सा लिया था उसके मुंह झुकाकर कहा दो। अब ममता को कौन समझाएं जिस दौड़ प्रतियोगिता में केवल दो लोग भाग ले रहे हो उसमें दूसरे स्थान पर रहना कोई उपलब्धि नहीं है।
कांग्रेस-तृणमूल कांग्रेस की खींचतान पर रहिम का एक दोहा याद आ रहा है।
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ पड़ जाय।।
कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस के रिश्ते कुछ ऐसी ही कगार पर जा पहुंचे हैं। इन दोनों दलों के बीच हालांकि प्रेम कभी न था, सत्तारूढ़ होने के स्वार्थ ने गठबंधन का मार्ग प्रशस्त किया। कहते हैं राजनीति में स्थाई दोस्ती या फिर स्थाई दुश्मनी की उम्मीद रखने की बात कुछ हजम नहीं होती, लेकिन इतनी जल्दी दोस्ती (गंठबंधन) दुश्मनी (टूटने) की कगार पर पहुंच जाएंगी। यह भी किसी को मामूम नहीं था। सही समझा आपने ने हम यहां जिक्र कर रहे हैं पश्चिम बंगाल में सत्तासीन कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस के गठबंधन का। जिस गठबंधन ने ३४ सालों तक राज करने वाले और लगातार सात पर चुनाव में अजेय रहने वाली वाममोर्चा को परास्त किया। वहीं गठबंधन सात महीने के भीतर ही बिखर सा गया है। इन सात महीनों में कई बार ऐसे मौके आए जब कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस के नेता एक-दूसरे की खिचाई करते दिखे।
सीटों के बंटवारे के मुद्दों पर हो, कृषकों की समस्या पर हो, केंद्र सरकार पर दवाब की बात हो या फिर राज्य की शिक्षा व स्वास्थ्य विभाग की बात। इन सभी मुद्दों पर कभी में कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस के नेताओं की एक राय नहीं बन सकी। तभी तो राज्य के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री व वर्तमान में विधानसभा में विपक्ष के नेता सूर्यकांत मिश्र ने चुटकी लेते हुए कह दिया- कांग्रेस व तृणमूल नेताओं को गंठबंधन धर्म की समझ नहीं है।
जानकार मानते हैं कि इस समझौते के रिश्ते में सहनशीलता जवाब देने लगी है और संदेह का दायरा बढ़ता जा रहा है, ऐसा लग रहा है कि गठबंधन टूट जाएगा और अगर बचा रहा तब भी गांठ पड़ेगी। ममता बनर्जी और कांग्रेस के बीच खटास बढ़ते देख राजग ने मौके का फायदा उठाते हुए संकेत दे दिए कि वह ममता बनर्जी को शामिल करने तैयार है। इधर सुश्री बनर्जी ने एकला चलो का नारा बुलंद करते हुए ऐलान कर ही दिया है कि चाहे सिंगूर हो या नंदीग्राम वे अकेले ही लड़ते आयी हैं और आगे भी अकेले लड़ने का दम रखती है। आमतौर पर द्वार स्वागत के लिए खोले जाते हैं, लेकिन ममता बनर्जी ने कांग्रेस को बाहर का रास्ता दिखाने के लिए द्वार खोलने की घोषणा कर दी है। उनकी इस राजनीति का केंद्र में कांग्रेस ने सीधा जवाब नहीं दिया, बल्कि संकेतों में प्रणव मुखर्जी ने स्पष्ट कर दिया कि सवा सौ वर्षों पुरानी कांग्रेस कभी किसी राजनीतिक चुनौती से नहीं डरी है और न डरेगी। जबकि प.बंगाल में कांग्रेस अध्यक्ष प्रदीप भट्टाचार्य ने साफ कह दिया है कि कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस दोनों को सत्ता में आने का जनादेश प्राप्त हुआ है और जब तक जनता नहीं चाहेगी, तब तक वे वापस नहीं होंगे। भट्टाचार्य कहते हैं कि बीते विधानसभा चुनाव में कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस गठबंधन को ४८ फीसद वोट मिले थे, जिसमें तृणमूल का हिस्सा ३७ व कांग्रेस का ११ फसीद था और वाममोर्चा को ३८ फीसद वोट मिले थे। यानी तृणमूल से एक फीसद अधिक। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष ने गणित बताते हुए यह कह दिया कि बगैर कांग्रेस वाममोर्चा को परास्त करना तृणमूल के वश में नहीं था।
ममता बनर्जी बीते समय में कई बार संप्रग सरकार की नीतियों पर नाराजगी, असंतोष और बाहर निकलने की मंशा प्रकट कर चुकी हैं। सितम्बर 2011 में प्रधानमंत्री की बांग्लादेश यात्रा के दौरान तीस्ता जल समझौते पर उनके हठ के कारण सरकार को असुविधाजनक स्थिति का सामना करना पड़ा। पेट्रोल व कोयले की कीमतों में वृध्दि पर उन्होंने सरकार के खिलाफ जाने की धमकी दी। खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश पर असहमति जतलाई। लोकपाल विधेयक को समर्थन देना स्वीकार नहीं किया, क्योंकि लोकायुक्त पर उनकी मर्जी के मुताबिक नियम नहीं बने। पेंशन विधेयक ममता बनर्जी के विरोध के कारण किनारे कर दिया गया। संप्रग में रहते हुए कांग्रेस का इतना विरोध मानो पर्याप्त नहीं था कि इसी लिए उन्होंने इंदिरा भवन का नाम बदल कर काजी नजरूल इस्लाम भवन करने का एलान कर कांग्रेस के नेताओं को तृणमूल के खिलाफ एक बार फिर मुखर होने का मौका दे दिया है। राज्य के शहरी विकास मंत्री व ममता के करीबी माने जाने वाले फिरहाद हाकिम ने तो चुनौती भरे शब्दों में कह दिया है कि तृणमूल कांग्रेस को कांग्रेस की कोई आवश्यकता नहीं है। उन्होंने फिल्मी ड़ायलॉक लहजे में कहा- हम उनसे नहीं, वे हमसे हैं।
कहना गलत नहीं होगा कि इससे पहले भी कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस के नेता एक-दूसरे के खिलाफ न केवल बयानबाजी कर चुके है, बल्कि जुलूस की शक्ल में सडकों पर भी उतर चुके हैं। ऐसी स्थिति को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि यह गठबंधन अधिक दिनों तक चलने वाला नहीं है। वैसे भी ममता बनर्जी गठबंधन से अलग होने में माहिर हैं। ध्यान रहे कि भाजपा की अगुवाई वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार ने ताबूत मुद्दे पर ममता ने बेवजह खुद को अलग कर लिया था। जानकारों का कहना है कि अगर इंदिरा भवन के नाम परिवर्तन के मसले पर ममता को बाहर का रास्ता देखा दे तो भी कोई बड़ी बात नहीं होगी।
राजनीति के जानकारों का कहना है कि भले ही ममता जनता के बीच लोकप्रिय हो। लोग उन्हें जुझारू नेता के रूप में जानते हो, लेकिन इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि जयललिता व मायावती की तुलना में ममता की राजनीति में वह पकड़ नहीं है। तभी तो जयललिता तमिलनाडू की और मायावती उत्तर प्रदेश की कई बार मुख्यमंत्री बन चुकी हैं। ममता बनर्जी के नाम के आगे पहली बार मुख्यमंत्री शब्द लगा है इसी में ममता के नाक से धुआं निकल रहा है।
भारतीय राजनीति पर गौर करें तो अपने-अपने लाभ के लिए कोई भी राजनीति दल आपस मतभेद भुलाकर एक-दूसरे के साथ आ सकता है। लेकिन भाजपा और कांग्रेस कभी एक मंच पर एक साथ नहीं आ सकती। क्यों दोनों ही दल अपने-अपने को राष्ट्रीय स्तर का मानते हैं और दोनों की विचारधारा बिल्कुल भिन्न है।
राजनीति के जानकार लोग इस बात पर अचरज करते हैं कि जिस ममता बनर्जी को लोग लालच विहीन व साफ-सुथरी छवि का मानते हैं। उनकी कोई राजनीति सोच है ह नहीं। वे सत्ता अथवा कुर्सी के लिए किसी भी हद तक जा सकती हैं। अगर पीछे की और नजर दौड़ाए तो यह दिखाई देगा कि केंद्र में भजापा की अगुवाई वाली राजग सरकार में भी ममता रेल मंत्री थी और कांग्रेस की अगुवाई सप्रंग सरकार में भी रेल मत्री रही है। इसी बात से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि ममता कैसी राजनीति करती हैं और उनकी सोच क्या है।
ध्यान रहे कि ममता बनर्जी को पहले बार सांसद बनने का मौका १९८४ में मिला था। इंदिरा गांधी की हत्या के हुए लोक सभा चुनाव में इंदिरा लहर के सहारे ही ममता कोलकाता के कालीघाट से दिल्ली के संसद भवन तक पहुंची थी और सत्ता में आते ही इंदिरा भवन को लेकर कांग्रेसी नेताओं की भावनाओं से खेल रही हैं।

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