23.1.12

प्यारा सा शहर - सागर

प्यारा सा शहर - सागर


सागर म.प्र. का एक महत्‍वपूर्ण शहर है। सागर का इतिहास सन् 1660 से आरंभ होता है, जब ऊदनशाह ने तालाब के किनारे स्थित वर्तमान किले के स्थान पर एक छोटे किले का निर्माण करवा कर उस के पास परकोटा नाम का गांव बसाया था। निहालशाह के वंशज ऊदनशाह द्वारा बसाया गया वही छोटा सा गांव आज सागर के नाम से जाना जाता है। वर्तमान किला और उसके अंदर एक बस्ती का निर्माण पेशवा के एक अधिकारी गोविंदराव पंडित ने कराया था। सन् 1735 के बाद जब सागर पेशवा के आधिपत्य में आ गया, तब गोविंदराव पंडित सागर और आसपास के क्षेत्र का प्रभारी था।  

लाखा बंजारा झील 
सागर के बारे में यह मान्यता है कि इसका नाम सागर इसलिए पड़ा क्योंकि यह एक विशाल झील के किनारे स्थित है। इसे आमतौर पर सागर झील या कुछ प्रचलित किंवदंतियों के कारण लाखा बंजारा झील भी कहा जाता है। सागर नगर इस झील के उत्तरी, पश्विमी और पूर्वी किनारों पर बसा है। दक्षिण में पथरिया पहाड़ी है, जहां विश्वविद्यालय कैंपस है। इसके उत्तर-पश्चिम में सागर का किला है। नगर की स्थिति और रचना पर इस झील का बहुत प्रभाव है। लंबे समय तक झील नगर के पेयजल का स्रोत्र रही लेकिन अब प्रदूषण के कारण इसका पानी इस्तेमाल नहीं किया जाता।

कटरा बाजार
सागर झील की उत्पत्ति के बारे में वैसे तो कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है लेकिन कई किंवदंतियां प्रचलित हैं। इनमें सबसे मशहूर कहानी लाखा बंजारा के बहू-बेटे के बलिदान के बारे में है। जानकारों का मानना है कि यह प्राकृतिक तरीके से बना एक सरोवर हो सकता है, जिसे बाद में किसी राजा या समुदाय ने जनता के लिए अधिक उपयोगी बनवाने के उद्देश्य से खुदवा कर विशाल झील का स्वरूप दे दिया होगा। लेकिन यह केवल अनुमान है क्योंकि इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है।

शंकर जी का विशाल मन्दिर
सागर के लोग बहुत मिलनसार, मेहनती, सेवाभावी और सरल प्रकृति के होते हैं। यहाँ पर कुछ वर्षों पहले बना शंकर जी का मंदिर भी दर्शनीय है।  यहाँ की स्वादिष्ट चिरौंजी की बर्फी (जो सिर्फ सागर में ही मिलती है), मावा जलेबी, पिट्ठी के लड्डू और गुजराती नमकीन दूर-दूर तक प्रसिद्ध है। लेकिन यदि आपकी शादी सागर की किसी मत्स्य कन्या से हो जाये तो भूल कर भी कभी झूँठ मत बोलियेगा वर्ना वह काले कव्वे से भी कटवायेगी और मायके जाने में तनिक भी देर नहीं लगायेगी। 


कलाकारों की नर्सरी है सागर 
इस छोटे से शहर ने बालीवुड को बडे़ सितारे दिए है, जिन्होंने अपने अभिनय का लोहा मनवाया है। बालीवुड में सागर से सबसे पहले दस्तक गीतकार विट्ठल भाई पटेल ने दी और राजकपूर की फिल्मों के लिए गीत लिखकर अपनी छाप छोड़ी। उन्होंने "झूँठ बोले कव्वा काटे" जैसे कई लोकप्रिय गीत लिखे।

विट्ठल भाई पटेल
चर्चित फिल्म 'बेंडिट क्वीन' के राम सिंह [गोविंद नामदेव], 'दुश्मन' के गोकुल पंडित [आशुतोष राणा] , राजपाल यादव और 'चाइना गेट' के जगीरा [मुकेश तिवारी] को दर्शक अब भी नहीं भूले है। इन तीनों ही कलाकारों का नाता सागर से है। इस कड़ी को आगे बढ़ाया विष्णु पाठन ने, जिन्होंने 'शायद' फिल्म में बतौर नृत्य निदेशक अपनी भूमिका निभाई। अन्वेषण थियेटर से नाता रखने वाले पंकज तिवारी कहते है कि सागर में कला और संस्कृति का बेजोड़ माहौल रहा है। अगर कमी है तो अवसर की। जिस कलाकार को मौका मिला उसने बालीवुड हो या रंगमंच अपनी अभिनय क्षमता का लोहा मनवाया है।

तिवारी कहते है कि गोविंद नामदेव, आशुतोष राणा, मुकेश तिवारी और श्रीवर्धन त्रिवेदी ने सागर में कई नाटक तथा थियेटर का मंचन किया है। इन कलाकारों को तराशने में स्थानीय अनुभवी रंगकर्मियों की भी अहम भूमिका रही है। जिन्होंने इन कलाकारों को वह माहौल दिया जिसने उनमें हौसला बरकरार रखा। यही वजह है कि सागर के अनेक युवा दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय तक पहुंचे है।

झूँठ बाले कव्वा काटे काले कव्वे से डरियो, मैं मायके चली जाऊँगी तुम
सत्तर के दशक में सागर में रंगमंच का ऐसा माहौल था कि हर युवा का सपना थियेटर करने का होता था। वह माहौल आज तो नहीं है मगर कलाकारों के बनने का सिलसिला अब भी जारी है। बालीवुड में पर्दे के आगे और पर्दे के पीछे सागर के छह से अधिक हुनरबाज अपने जौहर दिखा रहे है।







आशुतोष राणा
आशुतोष राणा गाडरवारा, मध्यप्रदेश, जो भी ओशो के शहर के रूप में जाना जाता है से है। वहां उन्हें आशुतोष नीखरा के रूप में जाना जाता है उन्होंने गाडरवारा में अपने बचपन बिताये , जहां पर वह अपने प्राथमिक स्कूल की शिक्षा प्राप्त की। वह शहर के रामलीला नौटंकी में रावण की भूमिका निभाने के लिए मशहूर थे। आशुतोष राणा ने रेणुका शहाणे से शादी की वह भी एक बॉलीवुड अभिनेत्री हैं आशुतोष राणा के दो शौर्यमन और सत्येन्द्र नाम हैं।

राणा ने लोकप्रिय टीवी धारावाहिक स्वाभिमान के साथ अपने कैरियर शुरू की थी फिर उसके बाद उन्होंने फ़र्ज़, साजिश, कभी कभी, वारिस जैसे धारावाहिकों और टीवी शो में मुख्य भूमिका की द्वारा पीछा किया।
राजपाल यादव

अपने कैरियर की शुरुआत 1995 में टेली सीरियल स्वाभिमान में की थी। वह अपनी फिल्म दुश्मन जहां वह एक ठंडे खून का कातिल और मनोरोगी हत्यारे खेला के बाद भारतीय सिनेमा में जाना गया। वह ज्यादातर फिल्मों में विलन की भूमिका दी गई है विशेष रूप से एक हत्यारे की। उन्होंने दक्षिण भारतीय फिल्मों में अभिनय किया है, और "दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योग में जीवा" के रूप में जाना जाता है।

गोविंद नामदेव
गोविंद नामदेव का जन्म सागर में 3 सितम्बर (मध्य प्रदेश) को हुआ था। टीवी में आने से पहले गोविंद नामदेव ने ३ साल का अभिनय का कोर्से फिल्म और टेलिविजन संस्थान पुणे से किया। कोर्से को पूरा करना के बाद उन्होंने National School Of Drama (NSD) में सदस्य रहे इस समय इन्होने कई रोल प्ले किये।
इन्होंने पहली बार १ तेलगु फिल्म में काम किया जिसको इब्राहीम अल्काजी ने निर्देशित किया जिनको गोविंद नामदेव जी अपना गुरु मानते हैं । टेलीविजन उद्योग में गोविंद नामदेव प्रशंसित भूमिकाओं में `परिवर्तन`, `आशीर्वाद` नाम के नाटको में भी काम किया इन्होंने कई अभिनय के पुरुस्कार भी जीते । गोविंद नामदेव अपने फिल्मी चरित्र के बिल्कुल विपरीत है, गोविंद नामदेव बहुत सीधे और शांतिप्रिय व्यक्ति हैं उनको भारतीय शास्त्रीय संगीत पसंद है गोविंद नामदेव बहुत ज्यादा देशभक्ति और आस्तिक हैं।



गढ़पहरा: यानि पुराना सागर
गढ़पहरा को पुराना सागर भी कहते हैं जो डांगी राज्‍य की राजधानी था। यह सागर-झांसी राजमार्ग (एनएच 26) पर सागर से करीब 10 किमी की दूरी पर स्थित है। इसकी प्राचीनता गौंड शासक संग्रामसिंह के समय से मानी जाती है। उस समय गढ़पहरा एक गढ़ था, जिसमें 360 मौजे थे। बाद में डांगी राजपूतों ने इस भाग को जीतकर अपने राज्‍य में मिला लिया।
गढ़पहरा के केवल तीन शासकों के नामों का उल्‍लेख मिलता है। इनमें पृथ्‍वीपत, महाराज कुमार और मानसिंह के नाम ही ज्ञात हैं। पृथ्‍वीपत सन् 1689 के आसपास मुगल शासन के जागीरदार के रूप में गढ़पहरा का शासक था। उसके बारे में कहा जाता है कि वह एक कमजोर बुद्धि वाला शासक था और लोक परंपरा में उसे आज भी याद किया जाता है।

पृथ्‍वीपत के संबंध में कहा जाता है कि वह गढ़पहरा के अपने महल की छत से स्‍वयं चंद्रमा पर तीर चलाकर अपना मनोरंजन किया करता था। उसकी लंपटता की आदत स्‍थानीय कहावतों में याद की जाती हैं। इन कहावतों के अनुसार वह प्रत्‍येक वधु को उसकी प्रथम रात्रि अपने साथ बिताने के लिए बाध्‍य करता था।

पेरेडाइज होटल, मॉल और मल्टीप्लेक्स
छत्रसाल के पुत्र ने पृथ्‍वीपत को अधिकारच्‍युत कर सागर के परकोटा में रहने की अनुमति दे दी थी जहां वह कई वर्षों तक रहा। सन् 1727 के लगभग अंबर के सवाई जयसिंह ने उसकी खोई जागीर दिलाने में उसकी सहायता की। डांगी सरदार 1732 तक परकोटा में र‍हा। इस बीच उसके दो अधिकारियों ने उसे धोखा देकर उसकी जागीर कुरवाई के नवाब दलिप खान के हवाले कर दी।

शिलालेखों से पता चलता है कि 1747 में गढ़पहरा की जागीर सागर से करीब 40 किमी दूर उत्तर-पूर्व की ओर कुइयालो गांव तक फैजी हुई थी। विक्रम संवत् 1804 (ईस्‍वी सन् 1747) में एक सती पाषाण पर अपने पिता गढ़पहरा के शासक महाराज कुमार के अधीन कुइयालों के शासक कुमार उम्‍मेदसिंह का मृत्‍युलेख अंकित है। इसके बाद उन पर मराठों ने अधिकार कर लिया और बिलहरा के राजा को इस स्‍थान का शासक नियुक्‍त कर दिया।

गढ़पहरा के अब भी कुछ ऐतिहासिक अवशेष मौजूद हैं। कम ऊंचाई के क्षेत्र पर निर्मित किले के खंडहरों तक पहुंचा जा सकता है। यहां डांगी शासकों के शीश महल के नाम से ज्ञात ग्रीष्म आवास के अवशेष भी हैं। इसका संबंध राजा जयसिंह से जोड़ा जाता है। मान्यता है कि दो सौ साल पहले राजा जयसिंह इसमें निवास करते थे।

राहतगढ़ (किला और वॉटरफॉल)
सागर-भोपाल मार्ग पर करीब 40 किमी दूर स्थित यह कस्बा वॉटरफॉल के कारण अब एक बेहद लोकप्रिय पिकनिक स्पॉट है। लेकिन एक समय यह अपने कंगूरेदार दुर्ग, प्राचीर द्वारों, महल और मंदिरों-मस्जिदों के लिए प्रसिद्ध था। अब इस दुर्ग के अवशेष बचे हैं।


बीना नदी के ऊंचे किनारे पर स्थित राहतगढ़ पुरावशेषों के अनुसार ग्यारहवीं शताब्दी में परमारों के शासनकाल में बहुत अच्छी स्थिति में था। कस्बे से करीब 3 किमी दूर स्थित किले की बाहरी दीवारों में कभी बड़ी-बड़ी 26 मीनारें थीं। भीतर पहुंचने के लिए 5 बड़े दरवाजे थे।

कालांतर में यहां हुई लड़ाइयों और  देखरेख के अभाव में राहतगढ़ का वैभव अतीत की काली गुफा में दफन हो गया। अब सिर्फ उसके अवशेष बाकी हैं। सागर के स्थानीय निवासी बारिश के मौसम में यहां छुट्टी के दिन समय बिताने के लिए बड़ी संख्या में जाते हैं। शहर के आस-पास ऐसे स्थलों का अभाव होने के कारण यह पिकनिक मनाने का अत्यंत लोकप्रिय है।


भाग्योदय तीर्थ - तीर्थ जहां रोगो से मुक्ति मिलती है
उस भवन की बनावट ऐसी है कि कोई दूर से देख उसे मंदिर ही कहेगा। लेकिन जब वह वहां जाएगा तो उसे मालूम होगा कि न तो यह मंदिर है और न ही कोई तीर्थस्थल। यह तो यह अस्पताल है जहां भगवान की पूजा नहीं होती बल्कि भगवान की संतानों की शारीरिक व मानसिक व्याधियों का उपचार होता है। और जिसे भाग्योदय तीर्थ अस्पताल व चिकित्सा अनुसंधान केन्द्रके नाम से जाना जाता है।

सागर में स्थित यह केन्द्र भाग्योदय तीर्थ चैरिटेबल ट्रस्ट द्वारा  चलाया जाता है। महान दिगम्बर जैन संत आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की प्रेरणा से इस ट्रस्ट का गठन सन् 1993 में किया गया था। उद्देश्य था गरीब रोगियों को नि:शुल्क या कम से कम शुल्क लेकर उनके लिए स्तरीय उपचार सुविधा उपलब्ध कराना। ट्रस्ट के प्रेरणास्रोत आचार्य विद्यासागर जी अन्य संतों की तरह केवल आध्यात्मिक उपदेश नहीं देते, बल्कि इससे आगे बढ़कर समाज के भौतिक कष्टों को दूर करने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहते हैं। आचार्य जी का एक प्रसिद्ध मंत्रवाक्य है कि पीड़ित मानवता की सेवा ही ईश्वरीय सेवा है। इनके पारलौकिक ज्ञान और देशभक्ति से पूर्ण प्रवचनों को सुनने के लिए अपार जन समूह उमड़ पड़ता है। जैन आचार्य का प्रभा मंडल इतना दीप्त है कि उसे देखने से ही मन झील की तरह शांत हो जाता है। इनके द्वारा कई जन हितकारी कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं जिनमें स्त्री शिक्षा तथा पशु रक्षा प्रमुख हैं। भाग्योदय तीर्थ अस्पताल भी इसी जनसेवा कार्य का एक अंग है। 

अध्यात्म और स्वास्थ्य की यह छोटी सी नगरी भाग्योदय तीर्थ अस्पताल व चिकित्सा अनुसंधान केन्द्र के रूप में सोलह एकड़ में फैली हुई है। गौरतलब है कि यह भूमि आचार्य जी के शिष्य डा. अमरनाथ की थी जिसे उन्होंने दान कर दिया ताकि उनके गुरु का संकल्प पूरा हो सके और गरीब लोगों का कल्याण हो सके।

भाग्योदय तीर्थ के परिसर में एक फार्मेसी कालेज और पेरा मेडिकल कालेज भी चल रहा है जहां बड़ी संख्या में छात्र मेडिकल की शिक्षा ग्रहण करते हैं। इस अस्पताल में 300 से ज्यादा बेड हैं। इसमें पर्याप्त मात्रा में बेड गरीबों के लिए आरक्षित हैं। इसके अलावा आपरेशन थिएटर, पैथालोजिकल लैब, एक्स-रे, अल्ट्रा सोनोग्राफी, टीबी क्लीनिक आदि अन्य आधुनिक चिकित्सीय सुविधाएं हैं जिस कारण मरीजों को किसी चेक अप के लिए बाहर जाने का कष्ट नहीं उठाना पड़ता। अभी तक इस केन्द्र ने हजारों विकलांग लोगों को नि:शुल्क कृत्रिम अंग उपलब्ध करवाये हैं। अस्पताल अपनी पहल से सागर के आस-पास के गांवों में चिकित्सा शिविर लगाता हैं जिसका लाभ हजारों गरीब ग्रामीणों को मिलता है। जिन लोगों को कोई देखना भी नहीं चाहता, ऐसे कुष्ठ रोगियों को अस्पताल ने पंजीकृत किया है और उनको नियमित रूप से दवाइयां उपलब्ध कराता है। अस्पताल की चारदीवारी में एक मंदिर भी है जो यहां आये दुखी लोगों को दुख से मुक्ति पाने की आशा प्रदान करताहै।

भाग्योदय तीर्थ अस्पताल व चिकित्सा अनुसंधान केन्द्र की एक सबसे बड़ी खासियत यह है कि यहां केवल एक ही उपचार विधि से मरीजों का इलाज नहीं किया जाता। ऐलोपैथी के साथ-साथ होम्योपैथी, आयुर्वेदिक व प्राकृतिक चिकित्सा के चिकित्सक भी यहां मौजूद हैं। मरीज के पास किसी भी उपचार विधि से इलाज करवाने का विकल्प हमेशा उपस्थित रहता है। अस्पताल की एम्बुलेंस न नुकसान न फायदाके आधार पर अपनी सेवाएं मरीजों को देती है। केन्द्र का ऐसे 600 लोगों से सम्पर्क है जो आपातकाल की स्थिति में किसी मरीज के लिए अपना रक्तदान कर सकते हैं। केन्द्र उन मरीजों को  आर्थिक सहायता भी मुहैया कराता है जिन्हें  इलाज के लिए किसी कारणवश सागर शहर से बाहर के बड़े अस्पतालों में भेजना पड़ता है। भाग्योदय तीर्थ में इलाज कराने वाले अधिकांश लोगों की आर्थिक स्थिति बड़ी कमजोर होती है इसलिए अस्पताल उन्हें बहुत कम कीमत पर दवाइयां देता है।

भाग्योदय तीर्थ में अपनी सेवाएं दे रहे डाक्टरों के लिए चिकित्सा व्यवसाय नहीं है बल्कि जनसेवा का माध्यम है। सभी डाक्टर आचार्य विद्यासागर जी के विचारों का अनुकरण करते हैं तथा अपने स्वभाव को उनके स्वभाव जैसा बनाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। इसके लिए वो कठिन जैन तप साधना नियमित रूप से करते हैं। अस्पताल के प्रबंध निदेशक डा. अमरनाथ एमबीबीएस, एमडी सहित डा. नीलम जैन, डा. सुभाष जैन, डा. रेखा जैन, डा. रश्मि जैन आदि ऐसे ही लोग हैं जिन्होंने अपने जीवन को विद्यासागर जी के उद्देश्यों तथा जनसेवा के लिए समर्पित कर दिया है। इस शृंखला में डा. अमित जैन का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। डा. अमित आज के युवा वर्ग का हिस्सा हैं। लेकिन अपनी उम्र के अन्य युवाओं की तरह उनकी मंजिल अमेरिका, यूरोप या किसी महानगर में बसकर ऐशो-आराम की जिंदगी बसर करना नहीं है। वे तो सागर जैसे छोटे शहर में रहकर आचार्य जी द्वारा बताये गये मार्ग के अनुसार आध्यात्मिक साधना और मानवता की सेवा करना चाहते हैं।

भाग्योदय तीर्थ अस्पताल और अनुसंधान केन्द्र को प्रचलित अर्थ में तीर्थ तो नहीं कहा जा सकता लेकिन यह स्थान किसी तीर्थ से कम भी नहीं है। भारत देश के सभी जिलों को ऐसे तीर्थ स्थलों की आवश्यकता है।

डॉ. हरिसिंह गौर सागर विश्वविद्यालय के जनक

डॉ. हरिसिंह गौर, (२६ नवंबर १८७० - २५ दिसम्बर१९४९) सागर विश्वविद्यालय के संस्थापकशिक्षाशास्त्रीख्याति प्राप्त विधिवेत्तान्यायविद् समाज सुधारकसाहित्यकार (कविउपन्यासकार) तथा महान दानी एवं देशभक्त थे। वह बीसवीं शताब्दी के सर्वश्रेष्ठ शिक्षा मनीषियों में से थे। वे दिल्ली विश्वविद्यालय तथा नागपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे। वे भारतीय संविधान सभा के उपसभापतिसाइमन कमीशन के सदस्य तथा रायल सोसायटी फार लिटरेचर के फेलो भी रहे थे।

उनका जन्म महाकवि पद्माकर की नगरी सागर (म.प्र.) के पास एक निर्धन परिवार में 26 नवंबर 1870 को हुआ था। डॉ. सर हरीसिंह गौर ने अपनी गाढ़ी कमाई से 20 लाख रुपये की धनराशि से 18 जुलाई 1946 को अपनी जन्मभूमि सागर में सागर विश्वविद्यालय की स्थापना की तथा वसीयत द्वारा अपनी पैतृक सम्पत्ति से 2 करोड़ रुपये दान भी दिया था।
इस विश्वविद्यालय के संस्थापक, उप कुलपति तो थे ही वे अपने जीवन के आखिरी समय (२५ दिसम्बर, १९४९) तक इसके विकास व सहेजने के प्रति संकल्पित्त रहे। उनका स्वप्न था कि सागर विश्वविद्यालय कैम्ब्रिज तथा ऑक्सफोर्ड जैसी मान्यता हासिल करें। उन्होंने ढाई वर्ष तक इसका लालन-पालन भी किया। डॉ. सर हरीसिंह गौर एक ऐसा विश्व स्तरीय अनूठा विश्वविद्यालय है, जिसकी स्थापना एक शिक्षाविद् के द्वारा दान स्वरूप की गई थी। सागर के सपूत महान विभूति, ख्याति प्राप्त विधिवेत्ता, न्यायविद् सागर विश्वविद्यालय के संस्थापक ने कानून शिक्षा, साहित्य, समाज सुधार, संस्कृति, राष्ट्रीय आंदोलन, संविधान निर्माण आदि में योगदान दिया। डॉ. सर हरीसिंह गौर ने सागर के ही गवर्नमेंट हाईस्कूल से मिडिल शिक्षा प्रथम श्रेणी में हासिल की । उन्हे छात्रवृति भी मिली, जिसके सहारे उन्होंने पढ़ाई का क्रम जारी रखा, मिडिल से आगे की पढ़ाई के लिए जबलपुर गए फिर महाविद्यालयीन शिक्षा के लिए नागपुर के विख्यात हिसलप कॉलेज में दाखिला ले लिया, जहां से उन्होंने इंटरमीडिएट की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में की थी । वे प्रांत में प्रथम रहे तथा पुरस्कारों से नवाजे गए।

सन् १८८९ में उच्च शिक्षा लेने इंग्लैंड गए। सन् १८९२ में दर्शन शास्त्र व अर्थ शास्त्र में ऑनर्स की उपाधि प्राप्त की। फिर १८९६ में M.A., सन १९०२ में LL.M. और अन्ततः सन १९०८ में LL.D. किया। कैम्ब्रिज में पढाई से जो समय बचता था उसमें वे ट्रिनिटी कालेज में डी लिट्, तथा एल एल डी की पढ़ाई करते थे। उन्होने अंतर विश्वविद्यालयीन शिक्षा समिति में कैंब्रिज विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व किया, जो उस समय किसी भारतीय के लिये गौरव की बात थी। डॉ. सर हरीसिंह गौर ने छात्र जीवन में ही दो काव्य संग्रह दी स्टेपिंग वेस्टवर्ड एण्ड अदर पोएम्स एवं रेमंड टाइम की रचना की, जिससे सुप्रसिद्ध रायल सोसायटी ऑफ लिटरेचर द्वारा उन्हें स्वर्ण पदक प्रदान किया गया।

शंकर जी का मंदिर 

वे बैरिस्टर होकर स्वदेश आ गये। उनकी नियुक्ति सेंट्रल प्रॉविंस कमीशन में एक्स्ट्रा `सहायक आयुक्त´ के रूप में भंडारा में हो गई। उन्होंने तीन माह में ही पद छोड़कर अखिल भारतीय स्तर पर वकालत प्रारंभ कर दी व म.प्र. भंडारा, रायपुर, लाहौर, कलकत्ता, रंगून तथा चार वर्ष तक इंग्लैंड की प्रिंवी काउंसिल मे वकालत की, उन्हें एलएलडी एवं डी. लिट् की सर्वोच्च उपाधि से भी विभूषित किया गया।  उनकी द लॉ ऑफ ट्रांसफर इन ब्रिटिश इंडिया पुस्तक प्रकाशित हुई। वर्ष १९०९ में दी पैनल ला ऑफ ब्रिटिश इंडिया (वाल्यूम ख) भी प्रकाशित हुई जो देश व विदेश में मान्यता प्राप्त पुस्तक है।
प्रसिद्ध विधिवेत्ता सर फेडरिक पैलाक ने भी उनके ग्रंथ की प्रशंसा की थी। इसके अतिरिक्त डॉ. गौर ने बौद्ध धर्म पर दी स्पिरिट ऑफ बुद्धिज्म नामक पुस्तक भी लिखी। उन्होंने कई उपन्यासों की भी रचना की। वे शिक्षा विद् भी थे।  केंद्रीय सरकार ने जब दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थापना की तब डॉ. सर हरीसिंह गौर को विश्वविद्यालय का संस्थापक कुलपति नियुक्त किया गया।  तत्पश्चात डॉ. सर हरीसिंह गौर को दो बार नागपुर विवि का कुलपति नियुक्त किया गया।

बांके बिहारी जी का मंदिर

डॉ. सर हरीसिंह गौर ने 20 वर्षों तक वकालत की तथा प्रिवी काउंसिल के अधिवक्ता के रूप में शोहरत अर्जित की। वे कांग्रेस पार्टी के सदस्य रहे, लेकिन बाद में महात्मा गांधी से मत-भेद के कारण कांग्रेस छोड़ दी। वे भारतीय संसदीय समिति के भी सदस्य रहे, भारतीय संविधान परिषद् के सदस्य रूप में संविधान निर्माण में अपने दायित्वों का निर्वहन किया। विश्वविद्यालय के संस्थापक डॉ. सर हरीसिंह गौर ने विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद नागरिकों से अपील कर कहा था कि सागर के नागरिकों को सागर विश्वविद्यालय के रूप में एक शिक्षा का महान अवसर मिला है, वे अपने नगर को आदर्श विद्यापीठ के रूप में स्मरणीय बना सकते हैं।

यह भी एक संयोग ही है कि स्वतंत्र भारत व इस विश्वविद्यालय का जन्म एक ही समय हुआ। डॉ. सर हरीसिंह गौर को अपनी जन्मभूमि सागर में उच्च शिक्षा की व्यवस्था न होने का दर्द हमेशा रहा। इसी वजह से द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात ही इंग्लैंड से लौट कर उन्होंने अपने जीवन भर की गाढ़ी कमाई से इसकी स्थापना करायी। वे कहते थे कि राष्ट्र का धन न उसके कल-कारखाने में सुरक्षित रहता है न सोने चांदी की खदानों में, वह राष्ट्र के  स्त्री - पुरुषों के मन और देह में समाया रहता है। हाल ही में केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह ने इस विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा दिलाने की भी पेशकश कर दी है, जो इसकी वर्चस्वता को भी इंगित करती है। डॉ हरिसिंह गौर की सेवाओं के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए भारतीय डाक व तार विभाग ने १९७६ में एक डाक टिकट जारी किया जिस पर उनके चित्र को प्रदर्शित किया गया है।


मध्य प्रदेश में छ: जिले सागर, दमोह, पन्ना, छतरपुर, टीकमगढ़ और छिंदवाड़ा इसके क्षेत्राधिकार में हैं. इस क्षेत्र के 133 कॉलेज इससे संबद्ध हैं, जिनमें से 56 शासकीय और 77 निजी कॉलेज हैं. विंध्याचल पर्वत शृंखला के एक हिस्से पथरिया हिल्स पर स्थित सागर विश्वविद्यालय का परिसर देश के सबसे सुंदर परिसरों में से एक है. यह करीब 803.3 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला है. परिसर में प्रशासनिक कार्यालय, विश्वविद्यलय शिक्षण विभागों का संकुल, 4 पुरुष छात्रावास, 1 महिला छात्रावास, स्पोर्ट्स काम्‍प्लैक्स तथा कर्मचारियों एवे अधिकारियों के आवास हैं।

विश्वविद्यालय में दस संकाय के अंतर्गत 39 शिक्षण संकाय कार्यरत हैं. विश्वविद्यालय के शिक्षण विभागों में स्नातकोत्तर स्तर पर अध्यापन एवं उच्चतर अनुसंधान की व्यवस्था है. इसके अलावा यहां दूरवर्ती शिक्षण संस्थान भी कार्यरत है, जो स्नातक, स्नातकोत्तर एवं डिप्लोमा के कई कार्यक्रम संचालित करता है. विश्वविद्यालय परिसर में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय का केंद्र भी कार्य कर रहा है।
आचार्य रजनीश
रजनीश चन्द्र मोहन (११ दिसम्बर १९३१ - १९ जनवरी १९९०) भगवान श्री रजनीश और ओशो के नाम से प्रख्यात हैं जो अपने विवादास्पद नये धार्मिक (आध्यात्मिक) आन्दोलन के लिये मशहूर हुए और भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका में रहे। रजनीश ने प्रचलित धर्मों की व्याख्या की तथा प्यार, ध्यान और खुशी को जीवन के प्रमुख मूल्य माना।

ओशो रजनीश (११ दिसम्बर, १९३१ - १९ जनवरी १९९०) का जन्म सागर शहर के पास ही एक छोटे से गाँव कुचवाड़ा में हआ था। उन्होंने सागर विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में एम.ए. किया था। १९६० के दशक में वे आचार्य रजनीश के नाम से, १९७० तथा १९८० के दशक में वे भगवान रजनीश के नाम से तथा बाद में ओशो रजनीश नाम से जाने गये। वे एक आध्यात्मिक नेता थे तथा भारत व विदेशों में जाकर प्रवचन दिये।

ओशो ने सैकडों पुस्तकें लिखीं, हजारों प्रवचन दिये। उनके प्रवचन पुस्तकों, आडियो कैसेट तथा विडियो कैसेट के रूप में उपलब्ध हैं। अपने क्रान्तिकारी विचारों से उन्होने लाखों अनुयायी और शिष्य बनाये। अत्यधिक कुशल वक्ता होते हुए इनके प्रवचनों की करीब ६०० पुस्तकें हैं। संभोग से समाधि की ओर इनकी सबसे चर्चित और विवादास्पद पुस्तक है। इनके नाम से कई आश्रम चल रहे है।
                                     
शहर की शान कटरा की मस्जिद 
कहते हैं कि पैदा होने के बाद तीन दिन न रजनीश रोए, न दूध ‍पिया- जैसे कि सात सौ वर्ष पूर्व का इक्कीस दिवसीय उपवास पूरा कर रहे हों। उनकी नानी ने एक प्रसिद्ध ज्योतिषी से ओशो की कुंडली बनवाई, जो अपने आप में काफी अद्भु त थी। कुंडली पढ़ने के बाद वह बोला, यदि यह बच्चा सात वर्ष जिंदा रह जाता है, उसके बाद ही मैं इसकी मुकम्मल कुंडली बनाऊँगा क्योंकि इसके लिए सात वर्ष से अधिक जीवित रहना असंभव ही लगता है, इसलिए कुंडली बनाना बेकार ही है। सात वर्ष की उम्र में ओशो के नाना की मृत्यु हो गई तब उनकी लाश ओशो के सामने पड़ी थी और पूरी रात वे उनकी नानी के साथ थे। ओशो अपने नाना से इस कदर जुड़े थे कि उनकी मृत्यु उन्हें अपनी मृत्यु लग रही थी वे सुन्न और चुप हो गए थे लगभग मृतप्राय। लेकिन वे बच गए और सात वर्ष की उम्र में उन्हें मृत्यु का एक गहरा अनुभव हुआ। ज्योतिष ने कहा था कि 7 वर्ष की उम्र में बच गया तो 14 में मर सकता है और 14 में बचा तो 21 में मरना तय है, लेकिन यदि 21 में भी बच गया तो यह विश्व विख्यात होगा। 14 वर्ष की उम्र में उनके शरीर पर एक जहरीला सर्प बहुत देर तक लिपटा रहा। फिर 21 वर्ष की उम्र में उनके शरीर और मन में जबरदस्त परिवर्तन होने लगे उन्हें लगा कि वे अब मरने वाले हैं तो एक वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गए, जहाँ उन्हें संबोधि घटित हो गई। बस यही से दुनिया का भविष्य तय हो गया। बुद्ध आए और चले गए। उनके जाने के 300 वर्ष बाद के काल में दुनिया पूर्णत: बदल गई। ईसा आए और चले गए और उनके जाने के बाद दुनिया में जबरदस्त बदलाव हआ। मोहम्मद आए और चले गए लेकिन आज सब जानते हैं कि दुनिया कितनी बदल गई है। निश्चित ही उनके जीवित रहते दुनिया में कोई बदलाव नहीं हुआ। बदलाव तो तब होने लगता है जबकि उनके विचारों की सुगंध धीरे-धीरे धरती के कोने-कोने में फैल जाती है।

30 मई को सागर में  रामदेव जी खूब झूमे और नाचे 
बदलाव की बहार : ओशो के विचार सृजन के हर क्षेत्र में बदलाव ला रहे हैं जैसे कि बदलने लगा है हमारा साहित्यकार, हमारा फिल्मकार और हमारा व्यापारी। बदल रही है राजनीति और विश्व की सरकारों की सोच। ओशो के संन्यासी विश्व के प्रत्येक देश में ओशो के विचारों को प्रसारित और प्रकाशित करने में लगे हैं। ओशो ने जीवन में कभी कोई किताब नहीं लिखी। मगर दुनिया भर में हुए संतों और अद्यात्मिक गुरुओ की श्रृंखला में वे एक मात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिनका बोला गया एक-एक शब्द प्रिंट, ऑडियो और वीडियो में उपलब्ध है। आज हैरी पाटर के बाद ओशो ही एक ऐसी शख्सियत हैं जिनको दुनिया भर में सबसे अधिक पढ़ा जाता हैं। हैरी पाटर का विश्व की सबसे ज्यादा भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इसके बाद अगर किसी और पुस्तक का स्थान है तो वह ओशो की किताबें हैं। दुनिया में कहीं न कहीं किसी न किसी भाषा में हर रोज ओशो की एक पुस्तक प्रकाशित हो रही है। ओशो इंटरनेशनल मेडिटेशन रिजोर्ट पुणे के अनुसार हैरी पाटर की किताब का विश्व की 64 भाषाओं में अनुवाद हो चुका है जबकि ओशों की किताबें 54 भाषाओं में अनुदित हो चुकी हैं। आने वाले समय में विश्व की सभी भाषाओं में प्रकाशित करने का लक्ष्य रखा है। ओशों की पुस्तकों के लिए इस समय दुनिया की 54 भाषाओं में 2567 प्रकाशन करार हुए हैं। इनमें प्रकाशित होने वाले ओशो साहित्य की सालाना बिक्री तीस लाख प्रतियों तक होती है। आज की तारीख में दुनिया भर में ओशों के प्रकाशकों की संख्या 212 तक पहुँच चुकी है। इनमें दुनियाभर के सबसे बड़े और सबसे ज्यादा प्रकाशनों वाली संस्था भी शामिल है। ये हैं न्यूयॉर्क के रेंडम हाउस और सेंट मार्टिन प्रेस, इटली के बोम्पियानी और मंडरडोरी, स्पेन के मोंडाडोरी रेंडम हाउस तथा भारत के पुणे जैसे संस्थान। पहले ओशो की पुस्तकों को तीन से पाँच हजार पुस्तक की दर से छापा जाता था वहीं अब उसका पहला मुद्रण 25 हजार तक होना मामूली बात है। 


मुकेश तिवारी अभिनेता
ओशो साहित्य की लोकप्रियता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि ओशो की आत्मकथा नामक पुस्तक के पहले संस्करण की दस हजार सजिल्द प्रतियाँ इटली में केवल एक महीने में ही बिक गई। स्पेनिश भाषा में ओशो की पुस्तकों की सालाना बिक्री ढाई लाख से भी अधिक है। ओशो की पुस्तक जीवन की अभिनव अंतदृष्टि का पेपरबैंक संस्करण सारी दुनिया में बेस्ट सेलर साबित हुआ है। वियतनामी, थाई और इंडोनेशियाई समेत 18 भाषाओं में इसकी दस लाख से अधिक प्रतियाँ बिक चुकी हैं। भारतीय भाषाओं में हिन्दी के अलावा तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मराठी, गुजराती, गुरुमुखी, बंगाली, सिंधी तथा उर्दू में ओशो की पुस्तकें अनुदित हो चुकी हैं। हिन्दी और अंग्रेजी में एक साल में ओशो की करीब 50 हजार पुस्तकें बिकती हैं। इतनी ही अकेले तमिल में बिकती हैं। पूरे देश में आज पूना एकमात्र ऐसा शहर है जहाँ से सबसे अधिक कोरियर और डाक विदेश जाती है।  

अलसी चेतना यात्रा सागर में

8 दिसंबर, 2010 अलसी चेतना यात्रा सागर  
सागर विश्वविद्यालय के एम बी ए कॉलेज के छात्रों को अलसी के गुणों
के बारे में बतला रहा हूँ और जीने के गुर सिखा रहा हूँ। 
  • सागर के विख्यात योग निकेतन केन्द्र में दिसंबर, 2010 को अलसी पर एक कार्यशाला आयोजित की गयी थी। इस कार्यशाला में तीन घंटे तक अलसी पर विस्तार से चर्चा हुई। श्रोताओं ने अपने प्रश्न पूछे जिनका मैंने सरल शब्दों से जवाब दिया।
  • 10 दिसंबर को प्रातः 11 बजे सागर विश्वविद्यालय के एम बी ए कॉलेज में छात्रों को युवा बने रहने के गुर सिखाये।
  • इसी दिन 3 बजे सागर में अलसी चेतना यात्रा की सक्रिय जिला मंत्री कु. शिखा ठाकुर के विशेष आग्रह  पर  बी एम बी गर्ल्स  कॉलेज  में  छात्राओं  को अलसी  सेवन  से शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ और सुन्दर बनने के टिप्स दिये तथा अलसी के व्यंजन और सौंदर्य प्रसाधन बनाना सिखाया।
  • 11 दिसंबर को ठाकुर साहब के कार्यालय में पत्रकारों को संबोधित किया। इस पत्रकार वार्ता में सागर के सभी प्रिन्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सभी पत्रकार उपस्थित थे। 


30 मई 2011 को सागर में स्वामी रामदेव जी से भैंट और अलसी पर चर्चा

रामदेव जी को अलसी महिमा भैंट करते हुए

मैंने उन्हें मेरी पुस्तक अलसी-महिमा भैंट की और उन्हें अलसी के चमत्कारों के बारे में विस्तार से बताया। मैंने उन्हें कहा कि मैं पूरे देश में अलसी की जागरूकता के लिए यात्राएं कर रहा हूँ और उनका आशीर्वाद चाहता हूँ। मेरे लेख उनकी पत्रिका योगसंदेश में भी नियमित प्रकाशित करने के लिए धन्यवाद भी दिया। बाबा ने मेरे प्रयासों को सराहा और मेरा हौसला बढ़ाया।  अलसी से बने नीलमधु  को उन्होंने बड़े चाव से खाया और बहुत प्रशंसा की।  बाबा भाग्योदय तीर्थ की परिचारिकाओं से बड़े प्रेम से मिले और फोटो भी खिंचवाई।


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