नव वर्ष की पूर्व संध्या पर प्रधानमंत्री ने देश को यह भरोसा दिलाया था कि अब वह ईमानदार और सक्षम शासन देंगे। हालांकि यह एक रस्मी शुभकामना संदेश था, फिर भी आम जनता को यह आभास हुआ कि प्रधानमंत्री शासन के तौर-तरीकों में कुछ बदलाव लाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। ऐसी अनुभूति इसलिए हुई, क्योंकि 2011 में केंद्र सरकार और साथ ही प्रधानमंत्री की छवि भी बुरी तरह प्रभावित हुई थी। केंद्र सरकार के लिए सबसे शर्मनाक क्षण वह था जब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के रूप में पीजे थॉमस की नियुक्ति की अवैध करार दी। इसके बाद प्रधानमंत्री को तब असहज होना पड़ा जब ए.राजा के मामले में प्रधानमंत्री कार्यालय को हलफनामा देने के लिए कहा गया। अन्ना हजारे के आंदोलन से निपटने के तौर-तरीकों ने भी केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री की छवि को खासा नुकसान पहुंचाने का काम किया। हालांकि नए वर्ष ने अभी 44 दिन का ही सफर पूरा किया है, लेकिन इस काल खंड को देख कर किसी के लिए भी यह उम्मीद लगाना मुश्किल होता जा रहा है कि प्रधानमंत्री अपने आश्वासन के अनुरूप एक ईमानदार और सक्षम शासन देने में समर्थ होंगे। यदि इस तथ्य को भूल भी जाया जाए कि घोटालेबाज ए. राजा के मामले में प्रधानमंत्री को एक बार फिर यह सुनना पड़ा कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने उन्हें सही सलाह नहीं दी तो भी पिछले डेढ़ माह का घटनाक्रम इस संभावना को ध्वस्त करता है कि केंद्रीय सत्ता अपनी छवि का निर्माण करने में समर्थ होगी। एंट्रिक्स-देवास सौदे में इसरो के पूर्व प्रमुख माधवन नायर समेत चार वैज्ञानिकों पर जिस तरह पाबंदी लगाई गई उससे देश को यही संदेश गया कि केंद्र सरकार ने एक पक्ष के लोगों के खिलाफ ही कार्रवाई की। खुद प्रधानमंत्री की वैज्ञानिक सलाहकार समिति के अध्यक्ष ने वैज्ञानिकों के खिलाफ की गई कार्रवाई पर सवाल खड़े किए हैं। यह मामला वैज्ञानिकों के खिलाफ कार्रवाई से ज्यादा उनके मान-सम्मान से खेलने का बन गया है। हो सकता है कि पाबंदी के शिकार वैज्ञानिकों की एंट्रिक्स-देवास सौदे में कोई संदिग्ध भूमिका रही हो, लेकिन हर कोई यह महसूस कर रहा है कि उनके खिलाफ कार्रवाई का तरीका सही नहीं। भले ही उम्र विवाद पर सरकार को कठघरे में खड़ा करने वाले सेनाध्यक्ष को सुप्रीम कोर्ट से राहत न मिली हो, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि इस मामले में सरकार का रवैया भी सही नहीं रहा। सेनाध्यक्ष अपने पद पर बने रहें या न रहें, किसी के लिए भी ऐसा दावा करना मुश्किल होगा कि उनके और सरकार के रिश्ते मधुर हैं। कुछ ऐसा ही मामला चुनाव आयोग और केंद्र सरकार के रिश्तों का भी है। किसी भी सरकार के लिए इससे अधिक शर्मनाक बात और कोई नहीं हो सकती कि उसका कानून मंत्री चुनाव आयोग को चुनौती दे-और वह भी तब जब इसके लिए उसे चेताया जा चुका हो। यह शायद पहली बार है जब चुनाव आयोग ने किसी केंद्रीय मंत्री और विशेष रूप से कानून मंत्री की शिकायत राष्ट्रपति से की हो। इस पर भी गौर करें कि इसके पहले चुनाव आयोग प्रधानमंत्री से भी कानून मंत्री की शिकायत कर चुका है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक न तो सलमान खुर्शीद ने माफी मांगी है और न ही प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति की उस चिट्ठी पर कोई कार्रवाई की है जो चुनाव आयोग ने उन्हें भेजी थी। प्रधानमंत्री चाहते तो इस चिट्ठी पर तत्काल कार्रवाई कर सकते थे, लेकिन वह ऐसा नहीं कर सके। ऐसे में यह स्वाभाविक है कि आम जनता इस तरह के कयास लगाए कि मनमोहन सिंह या तो कानून मंत्री के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करना चाहते या अपने स्तर पर ऐसा करने में सक्षम नहीं। यदि प्रधानमंत्री अपने कानून मंत्री के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करते तो राष्ट्रपति की प्रतिष्ठा भी दांव पर होगी। इसी तरह यदि चुनाव आयोग अपनी शिकायत पर सुनवाई न होने के बाद भी हाथ पर हाथ रखकर बैठा रहता है तो उसकी भी साख पर बन आएगी। बेहतर होता कि वह राष्ट्रपति के समक्ष रोना रोने के बजाय खुद ही सलमान खुर्शीद के खिलाफ कार्रवाई करता। चुनाव आयोग को चुनौती देने वाले सलमान खुर्शीद सोनिया गांधी के आंसू निकालने के लिए भी चर्चा में हैं। हालांकि फजीहत से डरे खुर्शीद बाद में अपने बयान से मुकर गए और कुछ कांग्रेसियों ने भी उन्हें गलत ठहराया, लेकिन अभी तक खंडन सिर्फ इस बात का हुआ है कि सोनिया गांधी के आंसू फूट पड़े थे, इसका नहीं कि उन्होंने संदिग्ध आतंकियों के फोटो देखे थे। देश के लिए यह समझना मुश्किल है कि सोनिया गांधी को बाटला हाउस मुठभेड़ में मारे गए संदिग्ध आतंकियों के फोटो देखने की आवश्यकता क्यों पड़ गई थी? क्या सोनिया गांधी मुठभेड़ में मारे गए सभी संदिग्ध आतंकियों के फोटो देखती हैं या फिर उन्होंने केवल बाटला हाउस में मारे गए आतंकियों के ही फोटो देखे? क्या सलमान खुर्शीद ने हुकूमत में रहते या न रहते हुए कभी सोनिया गांधी को आतंकी हमलों में मारे गए आम लोगों अथवा उनके परिजनों के फोटो भी दिखाए? खुर्शीद ने केवल सोनिया गांधी और चुनाव आयोग की ही प्रतिष्ठा से खिलवाड़ नहीं किया। उन्होंने बाटला मुठभेड़ पर विलाप कर परोक्ष रूप से गृहमंत्री को भी चुनौती दी है, जो लगातार कहते रहे हैं कि यह मुठभेड़ असली थी। क्या यह ईमानदार और सक्षम शासन की निशानी है कि कानून मंत्री उस मुठभेड़ पर सवाल खड़े करें जिसे गृहमंत्री ही नहीं, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी असली मानता है? क्या मनमोहन सरकार के लिए इससे अधिक लज्जाजनक और कुछ हो सकता है कि उसका एक केंद्रीय मंत्री चंद वोटों के लालच में पहले पार्टी अध्यक्ष और गृहमंत्री की प्रतिष्ठा से खिलवाड़ करता है और फिर चुनाव आयोगके मान-सम्मान से खेलता है? क्या यह मान लिया जाए कि कांग्रेस को सलमान खुर्शीद के हाथों अपनी और अपने नेतृत्व वाली केंद्रीय सत्ता की फजीहत मंजूर है?
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
साभार :- दैनिक जागरण
No comments:
Post a Comment