एक पक्षी होता है फ्लेमिंगो। उसमें एक खास प्रवृत्ति होती है जो शायद किसी और जीव में नहीं होती। फ्लेमिंगो में सामूहिक आत्महत्या की प्रवृत्ति होती है। कांग्रेस पार्टी में भी यह प्रवृत्ति जोर मारती रहती है। ऐसा न होता तो कोई कारण नहीं था कि पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव से ठीक दो दिन पहले पिछड़ा वर्ग को मिलने वाले 27 फीसदी आरक्षण में अल्पसंख्यकों के लिए साढ़े चार फीसदी आरक्षण की व्यवस्था करने के बाद देश के कानून मंत्री एक चुनाव सभा में घोषणा करते कि इस आरक्षण को बढ़ाकर नौ फीसदी कर दिया जाएगा। उनकी इस घोषणा में पार्टी और सरकार को कुछ भी अनुचित नजर नहीं आता। सलमान खुर्शीद की इस घोषणा को चुनाव आयोग ने आचार संहिता का उल्लंघन माना और उन्हें नोटिस भेज दिया। सलमान खुर्शीद ने कानून मंत्री होने के बावजूद आचार संहिता के उल्लंघन पर अफसोस जाहिर करने की बजाय चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था को चुनौती देते हुए कहा कि चाहे मुझे फांसी पर लटका दो मैं तो पसमांदा मुसलमानों के लिए आरक्षण की मांग करता रहूंगा। सलमान ने जो किया उसे उनकी निजी राजनीति का हिस्सा मानकर उन्हें संदेह का लाभ दिया जा सकता था अगर कांग्रेस पार्टी और सरकार उन्हें ऐसा बोलने से रोकती और उनकी बात का समर्थन न करती। सलमान जब केंद्र में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री बने तो कांग्रेस समर्थक मुसलमानों में एक मुहावरा चल पड़ा था कि मांगा था मुसलमान, मिला सलमान। इसकी वजह यह थी कि उनकी छवि कट्टरपंथी मुसलिम नेता की नहीं थी। मंत्री बनने के तुरंत बाद उन्होंने कहा कि मुसलमानों को आरक्षण के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। आरक्षण की मांग दुधारी तलवार की तरह है। उत्तर प्रदेश का चुनाव आते-आते सलमान मुसलमान बनने की कोशिश करने लगे और पार्टी उनके साथ खड़ी हो गई। सत्ता का अहंकार सबसे पहले व्यक्ति का विवेक हर लेता है। सलमान खुर्शीद के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। देश के कानून मंत्री को लगता है कि चुनाव आयोग भले ही एक संवैधानिक संस्था हो पर सरकार नहीं है। सरकार तो हम हैं। और उनकी पार्टी इस मामले में उनके साथ है, फिर डर काहे का। चुनाव आयोग ने कानून मंत्री के इस रवैये को आयोग की अवमानना माना। आयोग ने स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार एक केंद्रीय मंत्री के खिलाफ कार्रवाई के लिए राष्ट्रपति को पत्र लिखा। पत्र में मांग की गई कि कानून मंत्री केखिलाफ तत्काल प्रभावी कार्रवाई की जाए। आयोग ने यह भी कहा कि सलमान खुर्शीद केइस बयान से चुनाव में दूसरे दलों को समान अवसर नहीं मिल रहा जो स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए जरूरी है। राष्ट्रपति ने यह पत्र आवश्यक कार्रवाई के लिए प्रधानमंत्री को भेज दिया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने स्वभाव के अनुरूप चुप्पी लगाकर बैठ गए हैं। उन्हें इंतजार है पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के संदेश का। क्योंकि यह ऐसा मुद्दा है जिस पर प्रधानमंत्री फैसला लेने में सक्षम नहीं हैं। कांग्रेस पार्टी और सरकार ने अपना पुराना खेल शुरू कर दिया है। हर संकट की तरह इस संकट से भी पार्टी ने पल्ला झाड़ लिया है। पार्टी के वरिष्ठ महासचिव और मीडिया प्रभारी जनार्दन द्विवेदी ने एक निरापद सा बयान जारी कर दिया कि कांग्रेसजनों को कानून और संविधान की मर्यादा में रहकर काम करना चाहिए। यह भी कि कांग्रेस संवैधानिक संस्थाओं की इज्जत करती है। सलमान खुर्शीद ने जो किया वह गलत था ऐसा बोलने के लिए कोई तैयार नहीं है। सलमान के समर्थन में तो कांग्रेसी नेताओं के बयान आए हैं पर खिलाफ एक भी नहीं। सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस का राजनीतिक प्रबंधन खराब है या यह उसकी रणनीति का हिस्सा है? प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी क्या चुनाव आयोग के नोटिस के बाद सलमान को रोक नहीं सकते थे। दोनों की चुप्पी से लगता है कि सलमान खुर्शीद ने जो कहा और किया उसमें सरकार और पार्टी दोनों की सहमति थी। दोनों को चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था की गरिमा की बजाय चुनावी फायदे की ज्यादा चिंता है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने तय कर लिया है कि सलमान खुर्शीद के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करनी है। इसीलिए उनसे आयोग को पत्र लिखवाया गया। सलमान ने पत्र में कहा है कि उन्हें अफसोस है कि उनके बयान पर इतना विवाद हुआ। उनका इरादा आयोग की अवमानना का नहीं था। उसके बाद उन्होंने मीडिया से कहा कि अब इस मामले को खत्म समझा जाए। साफ संदेश है कि बहुत हो गया चुनाव आयोग अब बस करे। सवाल यह है कि प्रधानमंत्री ने क्या किया? चुनाव आयोग के पास कई विकल्प थे। उसके पास कांग्रेस पार्टी से लेकर सलमान के खिलाफ कार्रवाई का अधिकार था। चुनाव आयोग जिस हद तक जा चुका था वहां से लौटना उसकी छवि के लिए अच्छा नहीं। पता नहीं क्यों वह ठिठक गया? रायबरेली में चुनाव पर्यवेक्षक के तबादले के मामले में आयोग की निष्पक्षता पर वैसे भी सवाल उठ चुका है। चुनाव आयोग को अपने आचरण से आम मतदाता को यह भरोसा दिलाना पड़ेगा कि उसके सामने मंत्री और आम राजनीतिक कार्यकता की हैसियत एक जैसी है। यह किसी पार्टी, किसी मंत्री या किसी नेता का सवाल नहीं है। यह पिछले छह दशकों में बनी चुनाव आयोग की साख का सवाल है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार :- दैनिक जागरण
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