मित्रों,एक कहावत है और वह बिलकुल माकूल भी है कि इस दुनिया में कोई भी शह टुच्ची राजनीति से बचकर नहीं रह सकता.राजनीति की जद में परिवार से लेकर विश्व यानि हर कोई है.वैश्विक राजनीति भी घरेलू राजनीति की तरह निरंतर परिवर्तनशील है और यहाँ भी वही सिद्धांत काम करता है यानि कोई न तो किसी का स्थायी मित्र होता है और न ही स्थायी शत्रु.वैश्विक कूटनीति में भी किसी देश का दूसरे देश का शत्रु या मित्र होना केवल एक चीज पर निर्भर करता है और वो है परिस्थिति.
मित्रों,भारत नेहरु के ज़माने से ही ना काहू से दोस्ती, ना काहू से वैर के मार्ग पर यानि कथित गुटनिरपेक्षता की नीति पर चलता आ रहा है और उसने इसका भारी खामियाजा अपनी कई लाख वर्ग किलोमीटर भूमि चीन और पाकिस्तान के हाथों खोकर भुगता भी है.वर्तमान में भी हमारे लिए अब भी दुनिया की कूटनीतिक जलवायु माकूल नहीं है.चीन और पाकिस्तान के इरादे अब भी हमारे प्रति नेक नहीं हैं.दुर्भाग्यवश हमारे दोनों चिरशत्रुओं की मित्रता रात दूनी दिन चौगुनी की रफ़्तार से बढती चली जा रही है.अभी अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में इस बात की चर्चा बड़े ही जोर-शोर से चल रही है कि पाकिस्तान अपने द्वारा १९४७ में कब्जाए गए कश्मीर को चीन को सौंपने जा रहा है.इस तरह की दुखद संभावित स्थितियों से अगर भारत को बचना है तो उसे जल्द-से-जल्द अपनी मर्जी से ओढ़े गए गुटनिरपेक्षता के चोले को सदा-सदा के लिए उतार फेंकना होगा.खुदा न करे कभी अगर चीन और पाकिस्तान दोनों ने भारत के खिलाफ एक साथ युद्ध का मोर्चा खोल दिया तो बिना अमेरिकादि पश्चिमी देशों और जापान-आस्ट्रेलिया जैसे पूर्वी देशों की सहायता के हम शायद अपना अस्तित्व भी नहीं बचा पाएँगे.
मित्रों,भारत के सामने जो सबसे ताज़ी चुनौती कूटनीतिक मोर्चे पर आ खड़ी हुई है वो भारत के कथित ऐतिहासिक मित्र ईरान और पश्चिमी देशों में चल रही शीतयुद्ध जैसी खींचतान के चलते.पश्चिमी देश और ईस्राइल ईरान के परमाणु कार्यक्रम को किसी भी कीमत पर रोकना चाहते हैं मगर ईरान रूकने को तैयार ही नहीं है.उन्होंने ईरान पर कई तरह के व्यापारिक और आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिए हैं लेकिन नई परिस्थितियों में ईरान के लिए संकटमोचक बनकर उभरा है भारत.शायद इसके लिए ५ राज्यों का विधानसभा चुनाव भी जिम्मेदार है.यह तो हुआ भारत-ईरान संबंधों का एक पहलू.इसका दूसरा पहलू यह भी है कि ईरान को भारत के सरोकारों से कुछ ज्यादा लेना-देना नहीं है और वो भारत को एक ऐसा मजबूर देश समझता है जो अपने कुल तेल आयत का १२% उससे करके काफी हद तक उस पर आश्रित है.तभी तो उसने दिल्ली में इस्राइली दूतावास के सदस्य के परिजनों पर संदिग्ध हमला करने की गुस्ताखी की है.हालाँकि अभी तक हमारी चिरकारी सुरक्षा-एजेंसियां किसी नतीजे पर नहीं पहुंची हैं और अगर हम उनकी योग्यता को मद्देनजर रखें तो कभी पहुँचनेवाली भी नहीं हैं परन्तु जार्जिया और थाईलैंड में हुए विस्फोटों से मिलनेवाली संभावनाओं की कड़ियों को अगर हम दिल्ली-विस्फोट से जोड़कर देखें तो काफी हद तक धुंध साफ़ हो जाती है कि दिल्ली-हमला भी ईरान प्रायोजित ही था.यदि यह सत्य है तो स्पष्ट हो जाता है कि भले ही भारत ईरान को अपना अभिन्न मित्र माने वो भारत को अपना मित्र तक नहीं मानता.वैसे अगर हम कश्मीर के मुद्दे पर विभिन्न मंचों पर समय-समय पर ईरान की नीतियों को देखें तो पाएँगे कि उसने हमेशा पाकिस्तान का साथ दिया भारत का नहीं.उसके सर्वोच्च धार्मिक नेता अयातुल्ला खोमेनी तो लगातार दुनियाभर के मुसलमानों से कश्मीरी अलगाववादियों की सहायता करने की अपील भी करते रहे हैं.फिर भी न जाने किन मजबूरियों के कारण भारत-सरकार ईरान से एकतरफा और जबरदस्ती की दोस्ती गांठने पर तुली हुई हैं?भारत कोई विधवाओं का देश नहीं है कि कोई भी ऐरा गैरा नत्थू खैरा भारत की पवित्र भूमि को अपने कुत्सित स्वार्थों का रणक्षेत्र बना दे.निश्चित रूप से ईरान ने दिल्ली में ईस्राइली दूतावासकर्मियों पर हमला करके जो कुछ भी किया है वह भारत की शान में गुस्ताखी है,हमारी संप्रभुता पर हमला है,हमारी गैरत को एक ललकार है और इसे हम भारतवासी हरगिज सहन नहीं करनेवाले!
मित्रों,जहाँ तक ईस्राइल का सवाल है तो उसने कभी भारत-विरोधी तेवर नहीं दिखाए हैं और लगभग निःस्वार्थ भाव से हमारी मदद करता रहा है.आज भी सामरिक तकनीक के मामले में काफी हद तक हम उस पर निर्भर हैं जबकि हमने नेहरु-युग से ही फिलिस्तीनियों का बिना शर्त समर्थन करके उसे बार-बार चिढ़ाया है.हम नहीं चाहते कि दोनों में से किसी एक का नामोनिशान विश्व के मानचित्र से मिट जाए.दुनिया का इकलौता यहूदी राष्ट्र ईस्राइल और मुस्लिम देश फिलिस्तीन दोनों रहें और फले-फूलें परन्तु उस क्षेत्र में स्थायी शांति तभी कायम हो सकती है जब दोनों ही पक्ष सहअस्तित्व के सिद्धांतों को स्वीकार कर लें.
मित्रों,यह अति कड़वा सत्य है और भविष्य में भारत की परेशानियाँ बढ़ानेवाला भी कि दुनियाभर में मुसलमानों के बीच कट्टरता नए उभार पर है और मिस्र से लेकर मालदीव तक उदारवादी शक्तियां हाशिए पर चली गईं हैं और कट्टरवादियों को धरती और आकाश के बीच सिर्फ एक ही धर्म चाहिए इस्लाम और दूसरा कोई नहीं.यह सर्वविदित है कि हिन्दूबहुल भारत में मुसलमानों को जितनी आजादी,सुविधाएँ और अधिकार प्राप्त हैं उतनी किसी इस्लामिक देश में भी नहीं है.फिर भी हमारे कुछ मुसलमान भाई अपनी जेहादी मानसिकता को त्याग नहीं पा रहे हैं अन्यथा भारत में इन्डियन मुजाहिद्दीन और सिम्मी जैसे आतंकवादी संगठन नहीं होते जिन्होंने शायद दिल्ली हमले में भी ईरान की मदद की है.
मित्रों,आज ईरान वैश्विक राजनीति में अकेला पड़ता जा रहा है.ऐसे में उसके साथ चिपके रहने की हमारी जिद हानिकारक ही सिद्ध होगी.माना कि आयातित तेल का ज्यादा मूल्य देकर हमें सम्बन्ध-विच्छेद का मूल्य चुकाना पड़ सकता है लेकिन उससे भी कहीं कई गुना ज्यादा कीमत चुकानी पड़ेगी जब हम उसके साथ रहेंगे.इस सन्दर्भ में मुझे अकबर-बीरबल कथा से एक कथा का सन्दर्भ लेना समीचीन मालूम पड़ता है.हुआ यह कि बादशाह अकबर एक दोपहर को बीरबल के साथ भोजन कर रहे थे.तभी उन्हें न जाने क्या सूझी कि लगे बैगन की बड़ाई करने जिसे कुछ ही समय पहले पुर्तगाली भारत में लेकर आए थे.बीरबल ने भी कहा कि 'बजा फ़रमाया हुजूर,बैगन तो सभी सब्जियों का राजा है" फिर कुछ लम्हों तक ईधर-उधर की बातें करने के बाद अकबर लगे बैगन की बुराई करने परन्तु बीरबल तो हमेशा की तरह सचेत थे.सो उन्होंने भी तुरंत हामी भर दी और यहाँ तक कह दिया कि "हुजूर मैं तो कहता हूँ कि इसकी खेती पर ही प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए."अकबर चौंके और पूछा कि बीरबल पहले यह तो निर्णय कर लो कि बैगन अच्छा है या ख़राब.बीरबल ने भी छूटते ही कहा कि "हुजूर,बैगन जाए चूल्हे की भांड में,मुझे क्या?मुझे तो बस आपसे मतलब है जो मेरी रोजी-रोटी चलते हैं,आप कहते हैं कि बैगन अच्छा है तो अच्छा है और आप कहते हैं कि बुरा है तो बुरा है."इसी तरह भारत-सरकार को भी ईरान को नहीं बल्कि अपने हितों को ध्यान में रखना चाहिए.ईरान भी तो यही कर रहा है.
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