10.2.12

बेनजीर,बेमिसाल,अतुल्य बिहार-ब्रज की दुनिया

मित्रों,कुछ ही साल पहले भारत के अन्य राज्यों में बिहार की छवि इतनी ज्यादा ख़राब थी कि 'बिहारी' शब्द सबसे भद्दी गाली में परिवर्तित हो गया था.तब बिहार एक भ्रष्ट,नाकारा और जंगलराज सदृश शासन के लिए जाना जाता था.उस दौर में लालू और बिहार को लेकर कई चुटकुले बनाए और चलाए गए और उनमें से कई तो सुपरहिट भी हुए.उन दिनों जापान के कथित प्रधानमत्री के कथित बिहार दौरे और राज्य की अनपढ़ मुख्यमंत्री राबड़ी देवी से उनकी कथित मुलाकात के फ़साने ने इतनी स्वतःस्फूर्त लोकप्रियता और स्वीकार्यता हासिल की कि बहुत जल्दी यह फ़साना हकीकत जैसा बन गया.
             मित्रों,वो कहते हैं न कि दिन चाहे कितने भी बुरे क्यों न हों गुजर ही जाते हैं.इस दुनिया में कभी किसी की चलती हमेशा के लिए नहीं होती.कोई मिले हुए अवसर को भुना लेता है तो कोई सिर्फ हाथ मलता रह जाता है.एक वक्त था जब लालू राजनीतिक रूप से इतने शक्तिशाली होकर उभरे थे कि वे दिल्ली की गद्दी का फैसला भी करने लगे.चाहते तो उस दो साल की अवधि में बिहार को भारत के विकास का ईंजन बना डालते लेकिन सत्ता और अपार जनसमर्थन की ताड़ी पीकर मस्त लालू को तो जैसे विकास के नाम से ही नफरत थी.उन पर तो जैसे घोटाला करने का फितूर सवार था.वे उन दिनों अक्सर मंच से कहते कि "ये आईटी-फाईटी क्या होता है?कहीं विकास करने से वोट मिलता है?" परिणाम यह हुआ कि विकास की होड़ में रिवर्स गीयर चलता बिहार लगातार पीछे होता गया और अन्य राज्य आगे निकलते गए.फिर तो वह समय भी आया कि स्वतंत्रता प्राप्ति के समय जो बिहार विकास की दौड़ में दूसरे स्थान पर था;शर्मनाक तरीके से नीचे से प्रथम आने लगा.
                          मित्रों,धीरे-धीरे कई कारणों से बिहार की जनता लालू की जोकरई और राबड़ी के कुशासन से उबती गयी.जो बिहारी मजबूर और मजदूर होकर दूसरे राज्यों में रोजी-रोटी की तलाश में गए और जिन्हें सिर्फ बिहार से होने के कारण सबसे ज्यादा जलालत भी झेलनी पड़ी उन्होंने ही पहली बार विकास का मतलब समझा और असर भी देखा.कहना न होगा कि उनमें से ज्यादातर को लालू का परंपरागत वोटर माना जाता था.अंत में उनकी विकास की भूख इतनी बढ़ गयी कि उन्होंने और उनके परिवारवालों ने मसखरे लालू एंड फेमिली को सत्ता की भैंस की पीठ पर से जिस पर वे आगे से चढ़ा करते थे,धडाम से नीचे पटक दिया.वो कहते हैं न कि "सब कुछ गँवा के होश में आए तो क्या किया?"फिर लालू की नींद खुली और वे लगे रेलवे द्वारा विकास करवाने लेकिन एक तरफ जहाँ इसकी एक सीमा थी वहीँ दूसरी ओर तब तक बहुत देर हो चुकी थी.बिहार को सुशासन मिल चुका था;कानून का राज और विकासपरक शासन.
            मित्रों,फिर तो नीतीश और मोदी के कुशल नेतृत्व में बिहार विकास की पटरी पर इस तरह सरपट भागा कि नंबर एक गुजरात से टक्कर लेने लगा.बिहारी मेहनती तो थे ही.यह कहावत यूं ही तो प्रचलित नहीं हुई थी कि 'जो न कटे आड़ी से सो कटे बिहारी से'.सरकार की आमदनी बढ़ी तो खर्च भी बढ़ा और भ्रष्टाचारियों की बांछें खिल आई.मुफ्ते माल बाप का माल समझकर लगे लूटने.तब नीतीश कुमार की गठबंधन सरकार ने कई दशकों से निष्क्रिय पड़े निगरानी विभाग को अतिसक्रिय कर दिया.लोग रोजाना कहीं-न-कहीं घूस लेते पकडे जाने लगे.सरकारी सोंच यह थी कि इससे घूसखोरों की समाज में भद्द पिटेगी और वे घूस लेना छोड़ देंगे.
                       मित्रों,परन्तु ऐसा हुआ नहीं.तब तक भ्रष्टाचरण को समाज में पूरी तरह से मान्यता प्राप्त हो चुकी थी और भ्रष्टाचारी पूरी तरह से निर्लज्ज भी हो चुके थे.जेल की हवा खाकर आते और फिर से घूस खाने लगते.तब नीतीश सरकार ने एक भ्रष्टाचार निरोधक कानून का निर्माण किया जो पूरे भारत में अपनी तरह का पहला और अनूठा प्रयोग था.अब भ्रष्टाचार में लिप्त पाए जाने पर आरोपी की आय से अधिक संपत्ति जब्त की जा सकती थी और अवैध कमाई से अर्जित संपत्ति की सूचना देनेवाले को अधिकतम ५ लाख रूपये तक ईनाम देने का भी प्रावधान किया गया.कई बड़े-बड़े अवकाशप्राप्त अधिकारियों की संपत्तियों को जब्त कर उनमें सरकारी स्कूल खोले गए.परन्तु पहल तेजी से परवान नहीं चढ़ सकी और जमकर मुकदमेबाजी का सहारा लिया जाने लगा.इसी बीच बेलगाम तंत्र के मुँह में "सेवा का अधिकार" का लगाम डालने का भी प्रयास किया गया.परन्तु छोटे-बड़े घोटालों पर रोक नहीं लग सकी.इंदिरा आवास योजना और मनरेगा तो मानो भ्रष्टाचार का निवास-स्थान ही बनती जा रही थी.असली समस्या तो शायद यह थी कि बिहार सरकार में वर्तमान में कार्यरत वैसे अधिकारियों-कर्मचारियों के खिलाफ क्या किया जाए जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप सही पाए गए हैं और जो जेल से बाहर आते ही फिर से घूस लेते पकड़े गए हैं.निलंबन से कुछ ज्यादा होने-जानेवाला था नहीं.एक बार जेल-यात्रा कर लेने के बाद जेल जाने का भय भी मन से रफूचक्कर हो चुका था.पुनर्नियुक्त होने पर फिर से वे भ्रष्टाचार में लिप्त हो जाते.वेतन आधा मिले या पूरा इससे भी उन्हें कोई अंतर नहीं पड़ना था क्योंकि जितना उनका मासिक वेतन था उतना तो वे एक दिन में ही बना लेते थे.
                मित्रों,अब जाकर बिहार सरकार ने पूरे भारत के सामने बेमिसाल नजीर पेश करते हुए "न तबादला,न निलंबन;सीधे बर्खास्तगी" का ब्रह्मास्त्र चला दिया है.मैंने भी कई महीने पहले ही अपने कई आलेखों में इसकी मांग उठाई थी और कहा था कि निलंबन और स्थानांतरण से कुछ भी नहीं हासिल होनेवाला इन्हें तो अब नौकरी से निकालकर जेल भेज दो और संपत्ति जब्त कर इन पर आपराधिक मुक़दमा भी चलाओ.इनके पीछे,इनकी पढाई के पीछे समाज और सरकार ने इसलिए पैसे पानी की तरह नहीं बहाए कि ये पढलिख कर उसको ही खोखला करने लगें.वो कहते हैं न कि अगर छोटे बच्चों की कक्षा को शांत करना हो तो सिर्फ एक की धुनाई कर दो और अगर यह फार्मूला भी विफल हो जाता है तब सबको बारी-बारी से पीटो.अभी तो सिर्फ ८ बी.डी.ओ. और ५ पुलिस अधिकारी बर्खास्त हुए हैं शायद बाँकी अधिकारी वक़्त के इशारे को समझकर संभल जाएँ और अगर नहीं संभलते हैं तो जाएँ अपने घर.हमें नहीं चाहिए उनकी लूटमार सेवा.इस बर्खास्तगी को पूरे देश में अभियान की तरह चलाना चाहिए तब जाकर मिटेगा या फिर प्रभावकारी सीमा तक घटेगा भ्रष्टाचार.जिन लोगों को लगता है कि सिर्फ सत्ता बदलने से कुछ नहीं बदलता उन्हें बिहार की तरफ विस्फारित नेत्रों से देखना चाहिए जहाँ सत्ता बदलने से शासन का चरित्र बदला,शासन-प्रशासन की परिभाषा ही बदल गयी.माना कि अभी भी सच्चा सुशासन लाने की दिशा में कई कदम उठाए जाने की जरूरत है.कुछ कमियां हैं,कुछ खामियां हैं,दाल में कुछ काला है लेकिन लालू-राबड़ी काल की तरह पूरी-की-पूरी दाल ही काली नहीं है.अब देश में सबके पीछे-पीछे चलनेवाला बिहार सबसे आगे चल रहा है;निरंतर उदाहरण-पर-उदाहरण स्थापित करता हुआ;अपनी स्वर्णिम विकास यात्रा में लगातार मील का पत्थर स्थापित करता हुआ.

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