16.2.12

सात ऊर्जा चक्र


 ऊर्जा चक्र

मनुष्य के शरीर  में सात चक्राकार घूमने वाले ऊर्जा केन्द्र होते  हैं, जो मेरूदंड में अवस्थित होते है और मेरूदंड (Spinal Column) के आधार से ऊपर उठकर खोपड़ी तक फैले होते हैं । इन्हें चक्र कहते हैं, क्योंकि संस्कृत में चक्र का मतलब वृत्त, पहिया या गोल वस्तु होता है। इनका वर्णन हमारे उपनिषदों में मिलता है। प्रत्येक चक्र को एक विशेष रंग में प्रदर्शित किया जाता है एवं उसमे कमल की एक निश्चित संख्या में पंखुड़ियां होती हैं। हर पंखुड़ी में संस्कृत का एक अक्षर लिखा होता है। इन अक्षरों में से एक अक्षर उस चक्र की मुख्य ध्वनि का प्रतिनिधित्व करता है।
ये चक्र प्राण ऊर्जा के कैंद्र हैं। यह प्राण ऊर्जा कुछ वाहिकाओं में बहती है, जिनको नाड़ियां कहते हैं। सुषुम्ना एक मुख्य नाड़ी है जो मेरुदन्ड में अवस्थित रहती है, दो पतली इड़ा और पिंगला नाम की नाड़ियां हैं जो मेरुदन्ड के समानान्तर क्रमशः बाई और दाहिनी तरफ अपस्थित रहती हैं।  इड़ा और पिंगला मस्तिष्क के दोनों गोलार्धों से संबन्ध बनाये रखती हैं। पिंगला बहिर्मुखी सूर्य नाड़ी है जो बाएं गोलार्ध से संबन्ध रखती है। इड़ा अन्तर्मुखी चंद्र नाड़ी है जो बाहिने गोलार्ध से संबन्ध रखती है। 
प्रत्येक चक्र भौतिक देह के विशिष्ट हिस्से और अंग से संबन्ध रखता है और उसे सुचारु रूप से कार्य करने हेतु आवश्यक ऊर्जा उपलब्ध करवाता है। साथ में हर चक्र एक निश्चित स्तर तक के ऊर्जा कंपन को वर्णित करता है एवं विभिन्न चक्रों में मानव के शारीरिक एवं भावनात्मक पहलू भी प्रतिबिम्बित होते  हैं। नीचे के चक्र शरीर के बुनियादी व्यवहार और आवश्यकता से संबन्धित हैं, सघन होते हैं और कम आवृत्ति पर कम्पन करते हैं। जबकि ऊपर के  चक्र उच्च मानसिक और आध्यात्मिक संकायों से संबन्धित हैं। चक्रों में ऊर्जा का उन्मुक्त प्रवाह हमारे स्वास्थ्य और शरीर, मन और आत्मा के संतुलन को सुनिश्चित करता है।
आपकी सूक्ष्म देह, आपका ऊर्जा क्षेत्र और संपूर्ण चक्र-तंत्र का आधार प्राण है, जो कि ब्रह्मांड में जीवन और ऊर्जा का प्रमुख स्रोत है। ये चक्र  प्राण ऊर्जा का संचय, रूपान्तर और प्रवाह करते हैं और भौतिक देह के लिए प्राण ऊर्जा के प्रवेश-द्वार कहे जाते हैं। इस प्राण ऊर्जा के बिना भौतिक देह का अस्तित्व और जीवन संभव नहीं है।
सात सामान्य प्राथमिक चक्र इस प्रकार बताये गए हैं।
  1. मूलाधार, (संस्कृत: मूलाधार, Muladhara) आधार चक्र  
  2. स्वाधिष्ठान, (संस्कृत: स्वाधिष्ठान, Svadhisthana) त्रिक चक्र  
  3. मणिपुर, (संस्कृत: मणिपुर, Mauipura) नाभि चक्र  
  4. अनाहत, (संस्कृत: अनाहत, Anahata) हृदय चक्र  
  5. विशुद्ध, (संस्कृत: विशुद्ध, Visuddha) कंठ चक्र  
  6. अजन, (संस्कृत: आज्ञा, Ajna) ललाट या तृतीय नेत्र  
  7. सहस्रार, (संस्कृत: सहस्रार, Sahasrara) शीर्ष चक्र 
 मूलाधार या मूल चक्र
यह पहला चक्र है और यह  जननेन्द्रिय और मलद्वार के बीच स्थित होता है। स्त्रियों में यह गर्भाशय-ग्रीवा के पीछे स्थित होता है, जहां योनि गर्भाशय से मिलती है। इस स्थान पर एक ब्रह्म ग्रंथि स्थित होती है जो ब्रह्मा की द्योतक है। इसका रंग लाल होता है, द्वितीयक रंग काला होता है। लाल रंग जीवन और भौतिक ऊर्जा का द्योतक है। मूलाधार चक्र चार पंखुड़ियों वाले कमल के फूल के समान दिखाई देता है।  यह चतुर्भुज के आकार का है, जिसके अन्दर एक त्रिकोण (योनि का प्रतिरूप) होता है। त्रिकोण में एक शिवलिंग अवस्थित रहता है जिस पर सर्प के आकार की कुण्डलिनी लिपटी रहती है। मूलाधार चक्र में चार नाड़ियां मिलती हैं। इसमें चार ध्वनियां – वं, शं, षं, सं होती हैं और यह ध्वनि मस्तिष्क और हृदय के भागों को कंपित करती हैं। शरीर का स्वास्थ्य इन्हीं ध्वनियों पर निर्भर करता है। यह एडरीनल ग्रंथि को नियंत्रित रखता है।
मूलाधार चक्र पृथ्वी, मातृभूमि, संस्कृति, जीवन से सम्बंधित है। यह ऊर्जा और जीवन का केन्द्र है। मूलाधार चक्र रस, रूप, गंध, स्पर्श, भावों व शब्दों का मेल है. यह अपान वायु का स्थान है तथा मल, मूत्र, वीर्य, प्रसव आदि इसी के अधिकार में हैं।  इसको योग में विश्व निर्माण का मूल माना गया है। यही चक्र हमारी दिव्य शक्ति का विकास, मानसिक विकास, और चैतन्यता का मूल स्थान भी है। मूलाधार को स्वस्थ रखने के लिए सांसारिक व आध्यात्मिक शक्ति के बीच तालमेल बनाए रखना चाहिये। शारीरिक रूप से मूलाधार काम-वासना को, मानसिक रूप से स्थायित्व को, भावनात्मक रूप से इंद्रिय सुख को और आध्यात्मिक रूप से सुरक्षा की भावना को नियंत्रित करता है। यह  प्रवृत्ति, रक्षा, अस्तित्व और मानव की मौलिक क्षमता से संबंधित है। जिनका यह चक्र विकसित व सक्रिय होता है वे जिंदादिल होते हैं और अस्तित्व जब खतरे में होता है  तो मरने मारने का दायित्व इसी का होता है। यह चक्र भय, क्रोध, संताप, लालसा और अपराध-बोध से भी सम्बंधित है। यह स्वर्ग और नर्क दोनों का द्वार है।
मूलाधार चक्र कुण्डलिनी शक्ति, मानव जीवन की परमचैतन्य शक्ति मानी गई है।  ब्रह्माण्ड के निर्माण में आवश्यक सभी तत्व मनुष्य के अन्दर कुण्डलिनी शक्ति के रूप में मौजूद होते हैं। योग क्रिया द्वारा इस शक्ति को जागृत कर अपने अन्दर अदभुत शारीरिक और आध्यात्मिक शक्ति का अनुभव किया जा सकता है।  इस चक्र के देवता गणेश और बीज मंत्र ' लं ' है।
इसका संतुलन बिगड़ने पर रक्त-अल्पता, थकावट, पीठ के निचले हिस्से में दर्द, शियेटिका, अवसाद, सर्दी, हाथ-पैर ठंडे रहना आदि रोग होते हैं।
स्वाधिष्ठान का मतलब स्व (स्वयं) + धिष्ठान (स्थापित होना) है, तात्पर्य यह है कि मनुष्य के सभी संस्कार इसी चक्र में स्थित रहते हैं। मस्तिष्क में इनका प्रतिरूप अवचेतन मन है।  स्वाधिष्ठान चक्र त्रिकास्थि (Sacrum) के निचले हिस्से में मूलाधार से दो अंगुल ऊपर अवस्थित रहती है। इसमें 6 पंखुड़ियों वाला कमल होता है। इस चक्र में 6 नाड़ियां आपस में मिल कर 6 पंखुड़ियों वाले कमल के फूल की रचना करती हैं, जो दल का द्योतक है। फूल के भीतर अलग-अलग आकार के दो वृत्तों से बना सफेद अर्द्ध चन्द्र स्थित होता है। इसका आकार गोल और रंग नारंगी होता है। अर्द्ध चन्द्र इसका यंत्र है।   इस चक्र में ध्वनियां – बं, भं, मं, यं, रं, लं आती रहती हैं।
स्वाधिष्ठान चक्र अवचेतना और भावना से सम्बंधित है। यह मूलाधार चक्र से सम्पर्क रखता है। स्वाधिष्ठान चक्र में संस्कार सुषुप्त रहते हैं और मूलाधार में वे अभिव्यक्त होते हैं। विज्ञान के अनुसार मस्तिष्क हमारे सारे अनुभव और संवेदनओं का विश्लेषण किये बिना अवचेतन प्रकोष्ठों में संचित करता रहता है। कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया में यह चक्र एक बड़ी बाधा बनता है  क्योंकि अवचेतन मन में पड़ी ये संवेदनाएं और कर्म कुण्डलिनी को जागृत नहीं होने देते और वह बार-बार मूलाधार में जाकर सुषुप्त हो जाती है।   
इस चक्र का संबन्ध स्वाद, जन्म, परिवार और भावना से है और यह जल तत्व प्रधान है।  इसलिए यह रक्त, मूत्र, वीर्य, योनि स्राव, और लसिका से सरोकार रखता है। यह चक्र जिव्हा, जननेन्द्रियों, अंडकोष, वृषण, वृक्क और मूत्राशय का नियंत्रण करता है। इस चक्र से ही प्रजनन क्रिया सम्पन्न होती है तथा इसका संबन्ध सीधे चन्द्रमा से है। इसी चक्र के कारण मन की भावनाएं प्रभावित होती हैं, स्त्रियों में मासिकधर्म चन्द्रमा से सम्बंधित है और इनका नियंत्रण स्वाधिष्ठान चक्र से होता है। इसी के द्वारा मनुष्य के आंतरिक और बाहरी संसार में समानता स्थापित करने का कौशिश करता है तथा व्यक्तित्व का विकास होता है। इस चक्र का ध्यान करने से मन शान्त, निर्मल व शुद्ध होने लगता है, आन्तरिक शत्रु जैसे वासना, क्रोध, लालच आदि का नाश हो जाता है तथा धारणा और ध्यान की शक्ति प्राप्त होती है। इसके देवता श्री ब्रह्मा और सरस्वती हैं। इसका बीज मंत्र ' वं ' है।
इसका संतुलन बिगड़ने पर मदिरा और नशीले पदार्थों का व्यसन, अवसाद, पीठ के निचले हिस्से में दर्द, अस्थमा या ऐलर्जी, फंगस का संक्रमण, मूत्र विकार, कामुकता विकार, नपुंसकता और कामशीतलता आदि रोग होते हैं।
मणिपुर चक्र
मणिपुर चक्र नाभि में स्थित होता है। इसमें 10 पंखुड़ियों वाला कमल होता है और इसका रंग पीला होता है। इस चक्र में 10 नाड़ियां आपस में मिल कर 10 पंखुड़ियों वाले कमल के फूल की रचना करती हैं। इसका चिन्ह नीचे की ओर इंगित करता त्रिकोण है, जिसमें तीनो तरफ स्वास्तिक बना होता है। इस चक्र में ध्वनियां – डं, ढं, तं, थं, धं, नं, पं, फं, बं निकलती हैं। यह अग्नि तत्व प्रधान है और सूर्य तथा अहंकार का द्योतक है। यह चक्र सूर्य की भांति पूरे शरीर में प्राण ऊर्जा का संचार करता है तथा पोषण करता है। यह आमाशय, यकृत, पित्ताशय, अग्न्याशय और अधिवृक्क से सम्बंधित है। इस चक्र संबन्ध जन्म, परिवार और भावना से है और समान वायु का स्थान है। समान वायु का कार्य पाचन संस्थान द्वारा उत्पन्न स्राव को पूरे शरीर के अंग-अंग में समान रूप से पहुंचाना है। समान वायु का स्थान शरीर में नाभि से हृदय तक मौजूद है तथा पाचन संस्थान इसी के द्वारा नियंत्रित होता है। चयापचय और पाचन संस्थान का स्वस्थ या खराब होना वायु पर निर्भर करता है। इस चक्र पर ध्यान करने से व्यक्ति को अपने शरीर का भौतिक ज्ञान होता है और भावनाएं शांत होती हैं। मणीपुर चक्र ऊर्जा शक्ति और गर्मी से सम्बधित होता है। इसका जागरण जिस व्यक्ति के अन्दर होता है, वह निरंतर अपने जीवन में शक्ति और आविष्कार की तलाश में रहता है। इसके देवता श्री विष्णु लक्ष्मी हैं और बीज मंत्र ' रं ' है।
इसका संतुलन बिगड़ने पर पाचन सम्बंधी रोग, पेप्टिक अल्सर, मधुमेह, रक्तशर्करा-अल्पता, कब्जी, आँत्र-कृमि, आँत्र-शोथ, स्मृतिदोष, घबराहट आदि रोग होते हैं।
अनाहत चक्र
यह अनाहत नाद का स्थल है। अनाहत का अभिप्राय है जिसे घायल नहीं किया जा सके। अनाहत नाद वह सूक्ष्म आकाशीय स्वर है जिसे एक अनुभवी साधक तभी सुन पाता है जब वह ध्यान में विशिष्ट ऊंचाई पर पहुंचता है। अनाहत चक्र उरोस्थि (sternum bone) के पीछे हृदय के पास स्थित होता है। इस चक्र में 12 पंखुड़ियां वाला कमल होता हैं। इस स्थान पर 12 नाड़ियां मिल कर 12 पंखुड़ियों वाले कमल के फूल की आकृति बनाती हैं। इसका चिन्ह दो त्रिकोण हैं, एक नीचे इंगित करता है तो दूसरा ऊपर इंगित करता है। यह मध्य चक्र है अर्थात तीन चक्र इसके ऊपर और तीन चक्र इसके नीचे होते हैं। इसका रंग हरा होता है, द्वितीयक रंग गुलाबी है। इसका व्यास छः सेंटीमीटर होता है। इस चक्र से ध्वनियां – कं, खं, गं, घं, डं, चं, छं, जं, झं, ञं, टं, ठं निकलती हैं। यह थाइमस अंतःस्रावी ग्रंथि से सम्बंधित है और हृदय, फेफड़े, रक्त, वेगस नाड़ी और परिवहन तंत्र को नियंत्रण करता है। यदि यह निर्मल और नियमित लय में है तो व्यक्ति का हृदय स्वस्थ रहता है। शरीर की रक्षाप्रणाली भी इसी के अधीन रहती है। यह चक्र प्राणवायु  का स्थान है और यहीं से वायु नासिका द्वारा अन्दर व बाहर होती रहती है। प्राणवायु शरीर की कई मुख्य क्रियाओं का संपादन करती है जैसे वायु को सभी अंगों तक पहुंचाना, अन्न-जल को पचाना, उसके रस बना कर सभी अंगों में प्रवाहित करना, वीर्य बनाना, पसीने और मूत्र के द्वारा उत्सर्जी तत्वों को बाहर निकालना आदि। इस चक्र में वायु प्रधान है। अनाहत चक्र पर ध्यान करने से मनुष्य, समाज और स्वयं के वातावरण में सुसंगति एवं संतुलन स्थापित करता है। इस पर ध्यान करने से मनुष्य को सभी शास्त्रों का ज्ञान होता है तथा वाकपटु, संसार के जन्म-मरण के विषय में ज्ञान होता है, ऐसे मनुष्य ज्ञानियों में श्रेष्ठ, काव्यमृत रस के आस्वादन में निपुण योगी तथा अनेक गुणों से युक्त होते हैं।
यह चक्र दिव्य प्रेम का केन्द्र है और आध्यात्मिकता का द्वार है।  समर्पण की भावनाएं यहीं जन्म लेती हैं। भावनात्मक आसक्ति व लगाव से सम्बंधित विष्णु ग्रंथि यहीं अवस्थित होती है। जब यह ग्रंथि खुल जाती है तो व्यक्ति स्वार्थ तथा भावनात्मक अस्थिरता से मुक्त हो जाता है तथा हृदय निर्मल, निष्काम, निःस्वार्थ और ईश्वरीय दिव्य प्रेम रस में डूब जाता है।
इस चक्र के प्रधान वाले लोग समाजसेवी तथा दूसरों का निर्वाह करने वाले होते हैं। इनमें स्पर्श या अपनी ऊर्जा द्वारा दूसरों के कष्ट दूर करने की क्षमता विकसित हो जाती है। इस चक्र के जागृत होने से लोगों में आध्यात्मिक और टेलीपैथी जैसे गुणों का विकास होता है।  इस चक्र की देवी श्री जगदम्बा माँ हैं और बीज मंत्र ' यं ' है।
इसका संतुलन बिगड़ने पर हृदय और श्वास रोग, स्तन कैंसर, छाती में दर्द, उच्च रक्तचाप, रक्षाप्रणाली विकार आदि रोग होते हैं। 
विशुद्ध चक्र
यह कंठ में स्थित होता है। इसमें 16 पंखुड़ियों वाला कमल होता है। यहां 16 नाड़ियां मिल कर कमल के फूल की आकृति बनाती हैं। इसका रंग आसमानी होता है और चिन्ह अर्द्धचंद्र है। इसका व्यास छः सेंटीमीटर होता है। लेकिन अपनी स्वर-यंत्र का प्रयोग करने वाले लोगों जैसे गायक व अध्यापक आदि में यह बड़ा हो जाता है। इस चक्र में अ से अः तक 16 ध्वनियां निकलती हैं। यह थायरॉयड अंतःस्रावी ग्रंथि से सम्बंधित है। यह थायरॉयड,  स्वर-यंत्र, फेफडे, श्वास-नलिका पथ और आहार तंत्र को नियंत्रित करता है।
विशुद्ध चक्र संचार, संवाद और संप्रेषण का केन्द्र है। यह व्यक्ति को अपने अनुभवों के बारे में बोलने की तीव्र इच्छा शक्ति प्रदान करता है। यह चक्र श्रवण का भी केन्द्र है और मनुष्य के सुनने की शक्ति इतनी विकसित कर देता है कि वह कानों से ही नहीं मन से भी सुनने लगता है। यह मनोवैज्ञानिक दृष्टि से रचनात्मकता, आत्मानुशासन, दायित्व और नेतृत्व का विकास करता है। इस चक्र का ध्यान करने से मनुष्य के रोग, दोष, भय, चिंता, शोक आदि दूर होते हैं और वह लम्बी आयु को प्राप्त करता है। यह चक्र शरीर निर्माण के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह चक्र आकाश तत्व प्रधान है और शरीर जिन 5 तत्वों से मिलकर बनता है, उसमें एक तत्व आकाश भी होता है। आकाश तत्व शून्य है तथा इसमें अणु का कोई समावेश नहीं है।
मानव जीवन में प्राणशक्ति को बढ़ाने के लिए आकाश तत्व का अधिक महत्व है। यह तत्व मस्तिष्क के लिए आवश्यक है और इसका नाम विशुद्ध रखने का कारण यह है कि इस तत्व पर मन को एकाग्र करने से मन आकाश तत्व के समान शून्य और शुद्ध हो जाता है। इस चक्र में बाहरी और आंतरिक विषों को निष्क्रिय करने की क्षमता होती है। यह चक्र पिछले कटु और नकारात्मक अनुभव को निकाल कर जीवन को परमानन्द (Bliss) से भर देता है। जागृत होने पर यह मनुष्य में जीवन शक्ति, रचनात्मकता और सच्चा ज्ञान भर देता है। इस चक्र के देवता श्री कृष्ण राधा हैं और बीज मंत्र ' हं ' है।  
इसका संतुलन बिगड़ने पर थायरॉयड विकार, जुकाम और ज्वर, संक्रमण, मुंह, जबड़ा, जीव्हा, कंधा और गर्दन सम्बंधी रोग, उग्रता, हार्मोन विकार, मनोदशा विकार, रजोनिवृत्ति जनित रोग आदि रोग होते हैं। 
अजना या आज्ञा चक्र
अजना चक्र दोनों भौंहों के बीच स्थित होता है। इसमें 2 बड़ी पंखुड़िया वाले कमल का अनुभव होता है। इसकी दो पंखुड़ियां आत्मा-परमात्मा, तर्क-वितर्क, पिनियल-पिट्यूट्री, इड़ा-पिंगला और नर-नारी को इंगित करती है। सारी द्विविधता (Duality) यहीं मिलती है। इसमे एक त्रिकोण है, जो योनि का द्योतक है। इस त्रिकोण में एक श्वेत लिंग है। इसका रंग गहरा नीला होता है।
अजन का अभिप्राय आज्ञा या निगरानी करना है। इसे गुरू चक्र भी कहते हैं। यह शीर्ष ग्रंथि (Pineal) ग्रंथि से सम्बंधित है, जो मेलाटोनिन हार्मोन का स्राव करती है। यह हार्मोन सोने या जागने की क्रिया को नियंत्रित करत है। यह मस्तिष्क के निचले भाग, बाई आंख, कान, नाक, और नाड़ी तंत्र को नियंत्रित करता है। यहां दो ध्वनियां निकलती रहती हैं। इस स्थान पर पिनियल और पिट्यूट्री ग्रंथियां मिलती हैं। इसके जागरण का केन्द्र भौंहों के बीच का बिन्दु है जिसे ब्रह्माध्य कहते हैं। ध्यान, एकाग्रता और आत्मदर्शन के लिए यह बिन्दु बहुत विश्ष्ट है। इस पर ध्यान करने से सम्प्रभात समाधि की योग्यता आती है। मूलाधार से इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना अलग-अलग प्रवाहित होती हुई इसी चक्र पर मिलती हैं और चैतन्यता की एक धारा के रूप में सहस्रार को जाती हैं। इसलिए योग में इस चक्र को त्रिवेणी भी कहा गया है। योग ग्रंथ में इसके बारे में कहा गया है। ।
इड़ा भागीरथी गंगा  पिंगला  यमुना नदी।
तर्योमध्यगत नाड़ी सुषुम्नाख्या सरस्वती।।
इड़ा को गंगा, पिंगला को जमुना और सुषुम्ना नाड़ी को सरस्वती कहा गया है। इन नाड़ियों का जहां मिलन होता है, उसे त्रिवेणी कहते हैं। जब साधक गहरे ध्यान में होता है और उसकी सारी संवेदनाएं शून्य हो जाती हैं तब अजना से सहस्रार तक जाने के निर्देश इसी चक्र से मिलते हैं।  जो मनुष्य अपने मन से इन चक्रों पर ध्यान करता है, उसके सभी पाप नष्ट होते हैं और दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है। इस चक्र का सम्बंध जीवन को नियंत्रित करने से है। 
इसे शिव का तीसरा नेत्र कहते हैं। इसे अन्तर्ज्ञान का नेत्र भी कहते हैं क्योंकि यह अन्दर देखता है। कुछ लोग इसे दिव्य-चक्षु कहते हैं क्योंकि योगियों को ईश्वरीय अन्तरदृष्टि और श्रुतिप्रकाश इसी चक्र से मिलता है। यहीं पहुंच कर मनुष्य को मोक्ष का द्वार दिखाई देता है। यहीं चरमानन्द, अतिसंवेदन-बोध, सूक्ष्म दृष्टि, अतीन्द्रिय श्रवण, अन्तरज्ञान, असाधारण शक्तियां प्राप्त होती हैं। इसी छठे चक्र में मनुष्य को दूरबोध (Telepathy) और पुनर्जन्म का ज्ञान होता है। आज्ञा चक्र मन और बुद्धि का मिलन स्थान है। यह उर्ध्व शीर्ष बिन्दु ही मन का स्थान है। इसे रुद्र ग्रंथि कहते हैं। सुषुम्ना मार्ग से आती हुई कुण्डलिनी शक्ति का अनुभव योगी को यहीं आज्ञा चक्र में होता है। योगाभ्यास व गुरू की सहायता से साधक कुण्डलिनी शक्ति को सहस्रार चक्र में विलीन करा कर दिव्य ज्ञान व परमात्मा तत्व को प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त करता है। संवेदनाओं और पांच तत्वों के परे छठा चक्र सूर्य और चन्द्रमा से प्रभावित होता है। इसकी धातुएं स्वर्ण और रजत हैं। इसका बीज मंत्र  ' शं '  है।
इसका संतुलन बिगड़ने पर थायरॉयड विकार, जुकाम और ज्वर, संक्रमण, मुंह, जबड़ा, जीव्हा, कंधा और गर्दन सम्बंधी रोग, उग्रता, हार्मोन विकार, मनोदशा विकार, रजोनिवृत्ति जनित रोग आदि रोग होते हैं। 
सहस्रार चक्र
सहस्रार चक्र मस्तिष्क के ऊपर ब्रह्मरंध में अपस्थित  6 सेंटीमीटर व्यास के एक अध खुले हुए कमल के फूल के समान होता है। ऊपर से देखने पर इसमें कुल 972 पंखुड़ियां दिखाई देता है। इसमें नीचे 960 छोटी-छोटी पंखुड़ियां और उनके ऊपर मध्य में 12 सुनहरी पंखुड़ियां सुशोभित रहती हैं। इसे हजार पंखुड़ियों वाला कमल कहते हैं। इसका चिन्ह खुला हुआ कमल का फूल है जो असीम आनन्द के केन्द्र होता है। इसमें इंद्रधनुष के सारे रंग दिखाई देते हैं लेकिन प्रमुख रंग बैंगनी होता है। इस चक्र में अ से क्ष तक की सभी स्वर और वर्ण ध्वनि उत्पन्न होती है। पिट्यूट्री और पिनियल ग्रंथि का आंशिक भाग इससे सम्बंधित है। यह मस्तिष्क का ऊपरी हिस्सा और दाई आंख को नियंत्रित करता है। यह आत्मज्ञान, आत्मदर्शन, एकीकरण, स्वर्गीय अनुभूति के विकास का मनोवैज्ञानिक केन्द्र है।
यह आत्मा का उच्चतम स्थान है। इस चक्र को देख कर व्यक्ति के स्वभाव और चरित्र का अनुमान लगाया जा सकता है। इसका विस्तार, रंग, गति, आभा और बनावट देख कर व्यक्ति की चैतन्यता, आध्यात्मिक योग्यता और अन्य चक्रों से समन्वय का अनुमान लगाया जा सकता है। अच्छा योगाभ्यास करने वाले साधक का चक्र ओजस्वी और चमकदार होता है। सच्चे स्वप्न देखने की क्षमता विकसित हो जाती है। यदि इस चक्र में लचीलापन है तो इसका मतलब है कि व्यक्ति आसानी से अपनी आत्मा को शरीर से निकाल कर कहीं अन्यत्र ले जा सकता है। नीचे के बाकी 6 चक्रों से बिलकुल अलग यह एक अति विशिष्ट और उन्नत चक्र है। यह ईश्वरधाम और मोक्ष का द्वार है। जब यह चक्र अच्छी स्थिति में है तो अन्य चक्र स्वतः जागृत हो जाते हैं। जो साधक अपनी कुण्डलिनी जाग्रत कर लेते हैं तो कुण्डलिनी बाल रूप बाला त्रिपुरा सुन्दरी के रूप में ऊपर उठती है। थोड़ा और ऊपर पहुंचने पर वह यौवन को प्राप्त कर राजराजेश्वरी का रूप धरती है और सहस्रार चक्र तक वह संपूर्ण स्त्री ललिताम्बिका का रूप धर लेती है।  जो साधक कुण्डलिनी को सहस्रार तक ले कर  आते हैं, वे परमानन्द को प्राप्त करते हैं, जिसकी सर्वोच्च अवस्था समाधि है। कुण्डलिनी के इस जागरण को शिव और शक्ति का मिलन कहते हैं। इस मिलन से आत्मा का अस्तित्व खत्म हो जाता है और वह परमात्मा में लीन हो जाती है। इस चक्र पर ध्यान करने से संसार में किये गये बुरे कर्मों का भी नाश होता है। ऐसे साधक अच्छे कर्म करने और बुरे कर्मों का नाश करने में सफल हो जाते हैं। आज्ञा चक्र को सम्प्रज्ञात समाधि में जीवात्मा का स्थान कहा जाता है, क्योंकि यही दिव्य दृष्टि का स्थान है। उसे शिव की तीसरी आंख भी कहते हैं। मूलाधार से लेकर आज्ञा चक्र तक सभी चक्रों के जागरण की कुंजी सहस्रार चक्र के पास ही है। यही सारे चक्रों का मास्टर स्विच है।  
यह वास्तव में चक्र  नहीं है बल्कि साक्षात तथा सम्पूर्ण परमात्मा और आत्मा है। जो व्यक्ति सहस्रार चक्र का जागरण करने में सफल हो जाते हैं, वे जीवन मृत्यु पर नियंत्रण कर लेते हैं। सभी लोगों में अंतिम दो चक्र सोई हुई अवस्था में रहते हैं। अतः इस चक्र का जागरण सभी के वश में नहीं होता है। इसके लिए कठिन साधना व लम्बे समय तक अभ्यास की आवश्यकता होती है। इसके देवता श्री भगवान शंकर हैं और बीज मंत्र ' ' है।
इसका संतुलन बिगड़ने पर सिरदर्द, मानसिक रोग, नाड़ीशूल, मिर्गी,  मस्तिष्क रोग, एल्झाइमर, त्वचा में चकत्ते आदि रोग होते हैं।  

5 comments:

  1. EK BAHUT HI SUNDAR GYANOPYOGI RACHNA.ES HETU BAHUT HI DHANYAD.

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  2. आदरणीय तेजवानी गिरधर साहब और डॉ. महेन्द्र साहब,

    आपकी इतनी शुन्दर प्रतिक्रिया के लिए आपको अल्फ शुक्रन (Thanks a million times in Arabic)देता हूँ। आप मेरे ब्लॉग पर जरूर जाएं। और अलसी की महिमा जानें। और उसे अपने भोजन का अंग बनाएँ। http//flaxindia.blogspot.com



    आपका

    ओम

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