झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने अखिलेश यादव के शपथ ग्रहण के अवसर पर एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव दिया। उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्री का जनता द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन होना चाहिए। यह नि:संदेह एक रचनात्मक प्रस्ताव है, जिस पर गंभीरता से विचार होना चाहिए। यह देश में सच्चे संघवाद और अधिक उत्तरदायी शासन की भावना से जुड़ा है। इसके लिए समय भी उपयुक्त है, क्योंकि लगातार ऐसी अनेक घटनाएं घट रही हैं, जो संघीय शासन प्रणाली की आत्मा को कचोट रही हैं। उत्तराखंड में जिस तरह मुख्यमंत्री का चयन हुआ उससे मुख्यमंत्री पद की फजीहत हो रही है। यह दिखाता है कि स्थानीय जनता और प्रतिनिधियों को दिल्ली स्थित कांग्रेस आलाकमान कुछ नहीं समझता। दिल्ली भरोसे खड़ा मुख्यमंत्री प्रदेश में कितना स्वतंत्र निर्णय ले सकेगा, यह सोचने वाली बात है। हैरत है कि पिछले दो दशकों के अनुभव से कांग्रेस आकाओं ने कुछ नहीं सीखा। इंदिरा गांधी के समय में जिस तरह विभिन्न राज्यों में कांग्रेस मुख्यमंत्रियों को पौधों की तरह उखाड़ा-लगाया जाता था, वह बड़ा कारण था कि आंध्र, बिहार, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक आदि प्रदेशों में कांग्रेस उजड़ गई। उन प्रदेशों की जनता तथा स्थानीय कांग्रेसियों को भी आलाकमान की उस प्रवृत्ति से हताशा होती थी। देवराज अर्स, गुंडु राव, भागवत झा आजाद जैसे लोकप्रिय मुख्यमंत्री भी अकारण रातोरात हटा दिए जाते थे। इससे प्रशासन और नीति-निर्माण बुरी तरह प्रभावित होता था। अच्छे नेताओं, अधिकारियों का मनोबल गिरता था। यह सब प्रदेशों का शासन रिमोट कंट्रोल से दिल्ली से मनमाने-चलाने की जिद के कारण होता था। वस्तुत: उन सभी प्रांतों में क्षेत्रीय दलों का उदय और वर्चस्व स्थानीय स्वाभिमान की भावना का भी प्रतिफल था। दिल्ली के तुगलकी फरमानों से लोग खीझ चुके थे। उत्तर प्रदेश के चुनावी भाषणों में केंद्रीय कांग्रेसियों ने पुन: दोहराया कि यदि कांग्रेस जीती तो राहुल गांधी रिमोट से शासन चलाएंगे! यह अपने ही पैर कुल्हाड़ी मारने वाला बयान था। परिवार-केंद्रित कांग्रेस आलाकमान अभी भी उसी लालसा में है। उत्तराखंड में दिल्ली से भेजे जनाधार विहीन व्यक्ति को सत्ता सौंपना वही बात है। कांग्रेसी आलाकमान समझने को तैयार नहीं कि जो मुख्यमंत्री 10 जनपथ का खिलौना होगा वह प्रदेश को कैसे उत्साहित करेगा! इस तरह दिल्ली स्थित कांग्रेस आलाकमान उत्तराखंड की जनता, वहां अपनी पार्टी और मुख्यमंत्री पद की भी फजीहत कर रहा है। यह लोकतंत्र और संघवाद का खुला हनन है। कांग्रेस की विकृत केंद्रीयता से केवल केंद्र-राज्य संबंधों की संरचना ही नहीं बिगड़ी, बल्कि कई संवैधानिक संस्थाओं का भी भितरघात होता रहा है। पूरी सत्ता पर स्थायी कब्जा बनाए रखने की चाह में कांग्रेस आकाओं ने राज्यपाल, सीबीआइ, चुनाव आयोग, सीएजी, केंद्रीय आयोगों और उच्चतर न्यायपालिका समेत अनेकानेक संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा भी गिराई। सब जगह अपने आदमी रखने से शासन उत्तरोत्तर भ्रष्ट हुआ। उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान जिस तरह कई केंद्रीय कांग्रेसी नेताओं ने मंत्रिपद से चुनाव आयोग का मजाक बनाया वह भी संवैधानिक संस्थाओं को जानबूझकर चोट पहुंचाने का ही उदाहरण है। उसी तरह कई क्षेत्रीय दलीय नेताओं पर सीबीआइ की कार्रवाई केंद्र में कांग्रेसी सत्ताधारियों से दूरी या नजदीकी के अनुरूप बढ़ती-घटती है। संघवाद की उपेक्षा की बीमारी कांग्रेस से भाजपा आलाकमान को भी लगी है। उत्तराखंड में खंडूड़ी को बीच-रास्ते अकारण हटाने, फिर कुछ समय बाद वापस लाने में उसी अहमन्यतावादी प्रवृत्ति का दोहराव था, जो पहले झारखंड में भी देखा गया था। यही उत्तर प्रदेश, दिल्ली, मध्य प्रदेश और कर्नाटक में भाजपा सरकारों के दौरान भी होता रहा है। स्थानीय पार्टी या जनता की पसंद की उपेक्षा करते हुए मुख्यमंत्री को कुछ केंद्रीय नेताओं की मर्जी या गुटबाजी की दया पर छोड़ना घातक है। संयोग है कि नरेंद्र मोदी बच गए, नहीं तो दस वर्ष पहले भाजपा के एक-दो केंद्रीय नेताओं की इच्छा से उनका भी हटना तय था। इस परिस्थिति में मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्री का जनता द्वारा सीधे निर्वाचन एक दूरदर्शी उपाय होगा। इस एक कदम से शासन अधिक उत्तरदायी और स्थिर बनेगा, केंद्र-राज्य संबंध स्वस्थ होगा, जोड़-तोड़ की क्षुद्र राजनीति करने वाले स्वार्थी तत्वों का प्रभाव घटेगा, संवैधानिक संस्थाओं का दुरुपयोग कम होगा तथा शासन के हर स्तर पर योग्य लोगों को प्रोत्साहन मिलेगा। इससे वस्तुत: किसी दल को हानि नहीं होगी, बल्कि सबके बीच स्वस्थ प्रतियोगिता विकसित होगी। सभी अच्छे से अच्छे चेहरों को अपनी पार्टी में बढ़ावा देंगे। प्रधानमंत्री और मुख्य मंत्रियों का प्रत्यक्ष निर्वाचन जनभावना के भी अनुरूप है, क्योंकि लोग संभावित मुख्य प्रशासक का चेहरा और चरित्र देख कर निर्णय करना चाहते हैं। यदि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री सीधे निर्वाचित हों तो वे अपने सहकर्मी चुनने के लिए भी अधिक स्वतंत्र होंगे। जरूरत होने पर वे दूसरे दल तथा निर्दलीय योग्य व्यक्तियों को भी मंत्री आदि बना सकेंगे। यह सहमतिपूर्ण, स्थिर और कुशल शासन के लिए भी लाभकारी होगा। दो कार्यकाल की सीमा प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को अधिक जिम्मेदार बनाएगी। साथ ही वह दलीय, विखंडनकारी, स्वार्थी नेताओं के दबाव से भी मुक्त रहेगा। इन सब कारणों से संवैधानिक संस्थाओं में छेड़छाड़ और गलत नियुक्तियों पर भी लगाम लगेगी। इसलिए, देश में सच्चे संघवाद और लोक-भावना के अनुरूप राजनीतिक सुधार की दिशा में पहल जरूरी है। सभी राजनीतिक दलों को कम से एक बार केवल देशहित में विचार कर सहमत होना चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार :- दैनिक जागरण
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