28.3.12

उतर गया गांधी परिवार का जादू

विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की दुर्गति को गांधी परिवार के रसूख के खत्म होने का संकेत मान रहे हैं प्रदीप सिंह
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजों ने कई राजनीतिक दलों के पैरों के नीचे की जमीन खिसका दी है। लेकिन एक और बात हुई है जो समाजवादी पार्टी की जीत, अखिलेश यादव के युवा नेतृत्व और बसपा की अप्रत्याशित (कुछ लोगों के लिए) हार की चर्चा के बीच दब गई। या यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि महत्व के लिहाज से उसकी चर्चा नहीं हुई। वह है अमेठी, रायबरेली और सुल्तानपुर में कांग्रेस की हार। इन तीन संसदीय क्षेत्रों की पंद्रह विधानसभा सीटों में से कांग्रेस के हाथ केवल दो सीटें लगीं। इसके बावजूद कि राहुल, सोनिया, प्रियंका सहित पूरे गांधी परिवार ने इन तीनों संसदीय क्षेत्रों में काफी सघन चुनाव प्रचार किया। एक सवाल हवा में है क्या गांधी परिवार का करिश्मा खत्म हो रहा है? करिश्मा उस जादू की तरह है जो सिर चढ़कर बोले। यानी करिश्मे से प्रभावित व्यक्ति तार्किक ढंग से सोचना छोड़ देता है। वह सही-गलत का फैसला नहीं करता। करिश्माई नेता के पीछे जनता चल पड़ती है। वह यह मानने को तैयार नहीं होती कि नेता जो कह रहा है उसके अलावा कोई सच हो सकता है। चुनावी राजनीति में आने के बाद राहुल गांधी पहली बार अमेठी, रायबरेली से निकलकर पूरे उत्तर प्रदेश में घूमे। सोनिया गांधी पहले से ही पूरे प्रदेश में चुनाव अभियान चलाती रही हैं। पहली बार प्रियंका गांधी मां और भाई के चुनाव क्षेत्र से बाहर निकलकर चुनाव प्रचार करने के लिए न केवल तैयार दिखीं बल्कि विपक्षी दलों को परोक्ष धमकी भी दी कि क्या वे यह चाहते हैं मैं राजनीति में आऊं? इसके बावजूद गांधी परिवार को अपने राजनीतिक घर में समर्थन नहीं मिला। अमेठी, रायबरेली और सुल्तानपुर संसदीय क्षेत्रों के चुनाव नतीजे गांधी परिवार के लिए भले ही चौंकाने वाले हों पर इसके संकेत चुनाव के दौरान ही मिलने लगे थे। इस बार प्रियंका दीदी को लोगों ने चुपचाप नहीं सुना। उनसे सवाल भी किए। लोग यह मानने को तैयार नहीं थे कि इन तीनों क्षेत्रों जो कुछ खराब है उसके लिए केवल विधायक जिम्मेदार हैं, सांसदों की कोई जिम्मेदारी नहीं है। अमेठी और रायबरेली दो ऐसे चुनाव क्षेत्र हैं जिनका प्रतिनिधित्व फिरोज गांधी, इंदिरा गांधी, संजय गांधी, राजीव गांधी और अब सोनिया व राहुल गांधी कर रहे हैं। फिर भी इनकी हालत उत्तर प्रदेश के दूसरे चुनाव क्षेत्रों से बहुत अच्छी नहीं है। देश में दो तरह के निर्वाचित जन प्रतिनिधि हैं। एक जो अपने चुनाव क्षेत्र के विकास के लिए अपनी क्षमता से अधिक प्रयास करते हैं और दूसरे जो निर्वाचन क्षेत्र के विकास के बजाय प्रतीकों और नारों की राजनीति से लोगों को संतुष्ट रखना चाहते हैं। गांधी-नेहरू परिवार दूसरी श्रेणी में आता है। यह परिवार गरीबी और गरीबों को सहेजकर रखता है। जवाहर लाल नेहरू सत्रह साल तक देश के प्रधानमंत्री रहे और इस दैरान उनका चुनाव क्षेत्र फूलपुर रहा। राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव अभियान की शुरुआत फूलपुर से की। इस उम्मीद में कि लोगों को नेहरू की याद आ जाएगी। वह यह भूल गए कि नेहरू के साथ ही लोगों को क्षेत्र की बदहाली भी याद रहेगी। राहुल गांधी ने गरीबी नहीं देखी है। उनके लिए गरीबी कौतूहल का विषय है। दलित की झोपड़ी में रात बिताना उनके लिए वैसा ही एडवेंचर है जैसा उस दलित के लिए किसी पांच सितारा होटल में रात बिताना। दोनों के जीवन की यह हकीकत नहीं है। राहुल गांधी के सलाहकारों को लगता है कि दलित की झोपड़ी में रात बिताना कृष्ण का सुदामा के घर जाने जैसा है। फर्क यह है कि दलित सुदामा की तरह अभिभूत नहीं हुए क्योंकि दोनों में कोई सखा भाव नहीं है। और यह राजा-महाराजाओं का दौर नहीं है कि राजा को अपनी कुटिया में देखकर प्रजा धन्य-धन्य हो जाए। राहुल गांधी के लिए गरीब के झोपड़े में जाना पर्यटन का एक नया स्वरूप है। जनवरी 2009 में ब्रिटेन के तत्कालीन विदेश मंत्री डेविड मिलीबैंड भारत आए थे। राहुल गांधी उन्हें अमेठी ले गए। यह दिखाने को कि ग्रामीण भारत में लोग क्या कर रहे हैं। अमेठी में मिलीबैंड ने एक गरीब के घर रात गुजारी। खबर पढ़कर मैं कई दिन तक सोचता रहा कि राहुल गांधी ने आखिर ऐसा क्यों किया? क्या यह दिखाने के लिए कि देखो, मुझसे पहले जिस चुनाव क्षेत्र (अमेठी) का प्रतिनिधित्व मेरे चाचा, पिता और मेरी मां कर चुकी हैं उसकी गरीबी हमने खत्म नहीं होने दी है। गांधी परिवार का करिश्मा पंजाब में भी नहीं चला। जहां हर चुनाव में सरकार बदलने के इतिहास को झुठलाते हुए मतदाता ने अकाली दल और भाजपा गठबंधन को फिर सत्ता सौंप दी। गोवा में भाजपा और उसके ईसाई उम्मीदवारों की जीत का क्या अर्थ निकाला जाए? सोनिया गांधी के पार्टी की कमान थामने के बाद से ऐसा होता रहा है कि पार्टी में किसी मुद्दे या नेता को लेकर कोई भी विवाद उनके फैसले के साथ ही खत्म हो जाता था। उत्तराखंड में पहली बार ऐसा हुआ कि सोनिया गांधी के तय करने के बाद बगावत शुरू हुई। हाईकमान के सामने लोग झुके नहीं अपनी प्रतिष्ठा (विजय बहुगुणा) बचाने के लिए हाई कमान को झुकना पड़ा। करिश्मा और इकबाल कायम रखने के लिए जरूरी है कि नेतृत्व सबको समान अवसर दे और न्याय करते हुए दिखे। राजनीति में कार्यकर्ता और नेता का संबंध परस्पर सहजीवी का होता है। जब रेवड़ी बांटने के समय नेता अंधे की तरह व्यवहार करने लगे तो उसके पद का इकबाल चला जाता है और कार्यकर्ता की नजर में उसका कद भी घट जाता है। उत्तर प्रदेश में पार्टी की हार के बाद सोनिया गांधी ने कहा कि प्रत्याशियों के चयन में गलती और नेताओं की अधिकता के कारण पार्टी की हार हुई। सवाल है कि उनका चयन किसने किया? इसके लिए जिम्मेदार कौन है? दूसरों की तरफ उंगली उठाते समय सोनिया गांधी भूल गईं कि चार उंगलियां उनकी तरफ भी उठी हुई हैं। राहुल गांधी जब उत्तर प्रदेश में रैली दर रैली बोल रहे थे कि हाथी पैसा खाता है तो लोगों को अपेक्षा थी कि केंद्र में पैसा खाने वालों के बारे में भी वह अपने विचारों का इजहार करेंगे। भारतीय राजनीति में यह हाईकमान संस्कृति के क्षरण का दौर है। सिर्फ पद के आधार पर रसूख का दौर खत्म हो रहा है। गांधी परिवार अब चुनाव में वोट की गारंटी नहीं है। अमेठी और रायबरेली में भी नहीं। चुनाव के बाद भी उसके फैसलों पर सवाल उठने शुरू हो गए हैं।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

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