राष्ट्रीय नदी जोड़ो परियोजना 37 हिमालयी और प्रायद्वीपीय नदियों को आपस में जोड़ने की महत्वाकांक्षी परियोजना है। कभी राहुल गांधी ने इसकी खिल्ली उड़ाई थी, अब सुप्रीम कोर्ट ने इसके समयबद्ध क्रियान्वयन का आदेश जारी किया है। सवाल यह है कि क्या यह संभव होगा? नर्मदा परियोजना पर सुप्रीम कोर्ट के रुख के आलोक में इस मामले में उम्मीद बंधती है। भारत में सरकार विशाल जल परियोजनाएं तो लाती है, किंतु विस्थापितों की पुनस्र्थापना और प्रभावशाली नागरिक समाज समूहों के कड़े विरोध से आंखें मूंद लेती है। विदेशी पूंजी पर चलने वाले एनजीओ स्थानीय निवासियों के विस्थापन के मुद्दे को जोर-शोर से उठाते हैं। इस प्रकार के संगठन अनेक जल विद्युत परियोजनाओं के विरोध में अपना शक्ति प्रदर्शन कर चुके हैं। औद्योगिकीकरण की मांग स्थानीय जल संसाधनों पर दबाव डाल रही है। ऐसे में एनजीओ और नागरिक समूहों ने ऐसे उद्योगों का विरोध तेज कर दिया है जिनमें पानी की अधिक मात्रा में खपत होती है। भारत की लौह अयस्क पट्टी में लग्जमबर्ग के आर्सेलर मित्तल और दक्षिण कोरिया के पोस्को समूह की परियोजनाओं के जबरदस्त विरोध के कारण इन परियोजनाओं में देरी इसका ताजा उदाहरण है। बांध विरोधी मेधा पाटकर और अरुंधति रॉय को अनेक परियोजनाओं के विरोध में जोरदार समर्थन मिला है। जनता के दबाव में आकर 2010 में सरकार ने भागीरथी नदी पर तीन निर्माणाधीन परियोजनाओं पर काम रोक दिया था। इस कारण करोड़ों रुपये पानी में डूब गए थे। इस पृष्ठभूमि में वाजपेयी सरकार के नदियों को जोड़ने के कदम की असाधारण प्रकृति का पता चलता है। यह एक स्वप्निल योजना है। 12,500 नहरों के माध्यम से 178 अरब घनमीटर की विशाल जलधाराओं से साढ़े तीन करोड़ हेक्टेयर भूमि को सिंचित करने और 34 गीगावाट पनबिजली के उत्पादन का लक्ष्य है। यह ऐसी योजना है जो चीन जैसा अधिसत्तात्मक देश ही शुरू और क्रियान्वित कर सकता है। इसलिए इसमें जरा भी आश्चर्य नहीं है कि भारत का नदी जोड़ो कार्यक्रम कई साल तक योजना के स्तर पर ही अटका रहा। राहुल गांधी ने इस कार्यक्रम को विनाशकारी विचार कहकर खारिज कर दिया था। उन्होंने कहा था कि यह योजना देश के पर्यावरण के लिए बेहद खतरनाक है। भारत की सत्ताधारी पार्टी के प्रत्यक्ष उत्तराधिकारी के इस बयान से प्रभावित होकर तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने इसे मानव, आर्थिक और पारिस्थितिक विनाश बताया था। बाद में राहुल गांधी ने इस परियोजना के छोटे से भाग केन और बेतवा नदी को जोड़कर सूखाग्रस्त बुंदेलखंड क्षेत्र में सिंचाई सुविधाएं उपलब्ध कराने की बात की थी। केन और बेतवा को 231 किलोमीटर लंबी नहर के माध्यम से जोड़ने की योजना पर्यावरण को नुकसान की आशंका के कारण खटाई में पड़ गई। असलियत यह है कि 2002 में सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रकार की योजना शुरू करने के लिए सरकार को प्रोत्साहित किया था। यह भी सच है कि केंद्र में सत्ता परिवर्तन होने के बाद यह योजना दलगत राजनीति की भेंट चढ़ गई और नई सरकार को पुरानी सरकार के फैसले में खोट दिखाई देने लगा। 2009 में संप्रग सरकार ने संसद को बताया था कि नदी जोड़ने की इस परियोजना में भारी खर्च होगा और सरकार के पास इस मद के लिए इतनी राशि नहीं है। सरकार ने इस बात पर गौर नहीं किया कि नदियों को आपस में जोड़ने से भारत का खाद्यान्न उत्पादन दोगुना बढ़कर 45 करोड़ टन वार्षिक हो जाएगा और बढ़ती आबादी और संपन्नता के कारण खाद्यान्न की बढ़ती मांग की आसानी से पूर्ति हो जाएगी। यह भी काबिलेगौर है कि मानसून के मौसम में गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना नदियों के बेसिन में बाढ़ आ जाती है, जबकि पश्चिमी भारत और प्रायद्वीपीय बेसिनों में पानी की कमी हो जाती है। इन तमाम बेसिनों में पानी की उपलब्धता बनाए रखने, बाढ़ से बचने और खाद्यान्न बढ़ाने के लिए इंडियन वाटर डेवलपमेंट एजेंसी ने अंतर बेसिन जल स्थानांतरण (आइबीडब्ल्यूटी) को ही एकमात्र उपाय बताया था। नई कृषि प्रौद्योगिकी और नए प्रकार के बीज मिलने के बाद भी 45 करोड़ टन वार्षिक खाद्यान्न उत्पादन के लिए सरकार को सिंचाई सुविधाओं का विस्तार करना होगा। अन्यथा, खाद्यान्न आयात पर बढ़ती निर्भरता से पीछा नहीं छूटेगा। यह सत्य है कि विश्व के अनेक भागों में अंतर बेसिन जल स्थानांतरण सफलता के साथ क्रियान्वित हो रहा है। चीन की दक्षिण-उत्तर जल परियोजना विश्व की सबसे विशाल अंतर बेसिन जल स्थानांतरण पहल है, किंतु भारत चीन नहीं है, जहां लोकतंत्र का अभाव बड़े परिवर्तनों के लिए लाभ की स्थिति है। भारत ने बार-बार दर्शाया है कि उसमें दीर्घकालिक सामरिक योजनाएं बनाने और उन्हें सफलतापूर्वक क्रियान्वित करने की क्षमता नहीं है। जब भारत को नर्मदा नदी परियोजना को पूरा करने में ही दशकों का समय लग गया तो यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि वह नदी जोड़ो जैसी विशाल परियोजना क्रियान्वित कर सकता है? नदी जोड़ो योजना का बांग्लादेश पर प्रभाव पड़ना तय है। वह इस परियोजना को लेकर पहले ही चिंतित है। सीधा सा तथ्य यह है कि एनजीओ द्वारा संगठित विरोध के कारण परियोजनाओं को रोकना पड़ रहा है। ऐसा अनेक पनबिजली परियोजनाओं के साथ हो चुका है। इस कारण निजी-सार्वजनिक निवेश को लेकर उत्साह नहीं है। परिणामस्वरूप, पनबिजली का आकर्षण खत्म होता जा रहा है, जबकि देश के हिमालयी भाग में विपुल पनबिजली उत्पादन की गुंजाइश है। भारत के कुल विद्युत उत्पादन में पनबिजली की हिस्सेदारी 1962-63 में 50 फीसदी से घटकर 2009-10 में 23 प्रतिशत रह गई है। पनबिजली के उत्पादन को बढ़ावा देने के केंद्र सरकार के प्रयासों के बावजूद विरोध प्रदर्शन, पर्यावरण चिंताओं, भूमि अधिग्रहण पर अनावश्यक कानूनी कार्रवाई और राज्य सरकारों द्वारा पेशगी प्रीमियम राशि की मांग पर मामला फंस जाता है। नर्मदा पर बिजलीघर बनाने की योजना आजादी के तुरंत बाद बन गई थी, किंतु यह अब तक पूरी तरह क्रियान्वित नहीं हो सकी है, जबकि चीन ने 18,300 मेगावाट की क्षमता वाला थ्री जॉर्ज बांध निर्धारित समय से पहले ही बना दिया। यह परियोजना नर्मदा परियोजना से साढ़े बारह गुनी बड़ी है। नर्मदा बांध में लालफीताशाही, कानूनी अड़चन और राजनीतिक व एनजीओ कार्यकर्ताओं द्वारा बाधाएं खड़ी करने से यह साबित हो जाता है कि कोई भी बड़ी परियोजना शुरू करना बेहद मुश्किल काम है। जिस प्रकार भारत के पास कोई राष्ट्रीय सुरक्षा नीति नहीं है उसी प्रकार इसके पास कोई राष्ट्रीय जल सुरक्षा नीति भी नहीं है।
(लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)
साभार :- दैनिक जागरण
No comments:
Post a Comment