5.4.12

तृणमूल का तुगलकी फतवा

शंकर जालान







बीते सप्ताह तृणमूल कांग्रेस के एक फतवे ने न केवल विपक्षी दलों बल्कि
बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, फिल्मकारों व अदाकारों के साथ-साथ आम जनता
को भी तृणमूल कांग्रेस की मनमानी व गैर जरूरी फरमान के खिलाफ मुखर होने
का मौका दे दिया। तृणमूल कांग्रेस की ओर से जारी आदेश में कहा गया था कि
राज्य में सरकारी और सरकारी सहायताप्राप्त पुस्तकालयों में बांग्ला के
पांच, उर्दू के दो और हिंदी का एक अखबार ही रखा जा सकेगा। सरकारी आदेश
में बकायादे इन तीनों भाषाओं के नाम तक का जिक्र कर दिया गया था।
इस आदेश के खिलाफ न केवल विपक्षी दलों बल्कि बुद्धिजीवियों,
साहित्यकारों, फिल्मकारों व अदाकारों के साथ-साथ आम जनता को लामबंद होते
देख राज्य के पुस्तकालय मंत्री अब्दुल करीम चौधरी ने कुछ संशोधन किया और
इस सूची में पांच अखबारों के नाम और जोड़े। इन पांच अखबारों में
अंग्रेजी, नेपाली और संथाली के एक-एक अखबार और बांग्ला भाषा के दो अन्य
अखबार शामिल किए गए।
संशोधन के बावजूद लोग इस फतवे को तुगलकी फरमान मान रहे हैं। किसी ने
राज्य सरकार के इस फैसले के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाया है, तो किसी
ने राज्यपाल एमके नारायणन से भेंट कर उन्हें ज्ञापन देकर इस मामले में
दखल देना का अनुरोध किया है।
लोगों का कहना है कि तृणमूल कांग्रेस का यह फऱमान मुगल सम्राट मोहम्मद
बिन तुगलक की स्मृति को एक बार फिर से तरो-ताजा करने में इनके लिए सहायक
रहा है। लोगों ने सवाल उछाला कि पुस्तकालय मंत्री ने आखिर किस अधिकार
से सरकारी और सरकारी सहायताप्राप्त पुस्तकालयों में ऱखे या खरीदे जाने
वाले अखबारों के नाम का एलान कर दिया ? क्या हमें कौन सा अखबार पढ़ना है
इसका फैसला राज्य सरकार या पुस्तकालय मंत्री या फिर मुख्यमंत्री करेंगी ?
सरकारी आदेश में कहा गया कि सरकारी व सरकारी सहायताप्राप्त करीब २४५०
पुस्तकालयों में वहीं अबबार रखें जाएंगे, जो स्वतंत्र विचार के परिचायक
हैं। संशोधन के बाद जारी आदेश में अखबार की संख्या, भाषा और नाम का भी
साफ-साफ उल्लेख हैं। सरकारी आदेश के मुताबिक सरकारी व सरकारी सहायता वाले
पुस्तकालयों में बांग्ला के सात (सबाल बेला, खबर ३६५ दिन, बांग्ला
स्टेट्समेन, प्रतिदिन, आजकल, कलम (जिसका प्रकाशन अभी शुरू नहीं हुआ है)
और एक दिन), उदू के दो (आजाद हिंद व अखबार-ए-मशरीक) और हिंदी में एक
(सन्मार्ग), अंग्रजी में एक (टाइंस आफ इंडिया) व संथाली व नेपाली के
एक-एक अखबारों के नाम है।
जैसे ही इस फतवे के पीछे मुख्यमंत्री का नाम जुड़ा भले ही राज्य के
पुस्तकालय मंत्री अब्दुल करीम चौधरी मुख्यमंत्री के बचाव में यह कहते
फिरे की यह फैसला विभागीय है और इससे ममता बनर्जी का कोई लेना-देना नहीं
है। लेकिन ज्यादातर लोग पुस्तकालय मंत्री अब्दुल करीम चौधरी के तर्क को
हजम नहीं कर पा रहे हैं। लोगों का कहना है कि ममता बनर्जी ऐसा कर
लोकतंत्र के चौथे स्तंभ माने जाने वाले अखबारों पर सेंसरशिप लगाने का
प्रयास कर रह है, जो लोकतंत्र के लिए किसी भी नजरिए से सही नहीं है। यह
फैसला इमरजेंसी (आपालकाल) से घातक होगा।
बांग्ला के जानेमाने साहित्यकार व साहित्य अकादमी के अध्यक्ष सुनील
गंगोपाध्याय, लेखिका महाश्वेता देवी, फिल्मकार मृणाल सेन, पत्रकार
ओमप्रकाश जोशी समेत कई लोग ने इसे गैर जरूरी बताया। लोगों ने कहा- ममता
बनर्जी की अपनी पसंद हो सकती है वे निजी तौर पर किसी अखबार को पंसद या
नापसंद कर सकती हैं, लेकिन पुस्तकालय में रखे जाने वाले अखबारों के बारे
में उनका आदेश सरासर गलत है।
इन लोगों का मत है संभवत: देशभर में ममता बनर्जी पहली ऐसी मुख्यमंत्री या
किसी पार्टी की प्रमुख होंगी, जिन्होंने इस तरह का फरमान जारी किया है।
लोगों का कहना है कि समाचार पत्र को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है
और ममता ने अपने फैसले से इस स्तंभ को ध्वस्त करने की कोशिश की है।
पत्रकार ओमप्रकाश जोशी ने कहा कि खर्च में कटौती करने के मसकद से
मुख्यमंत्री या राज्य सरकार उन पुस्तकालयों को राय दे सकती है कि सरकार
तीन या चार या फिर पांच अखबार का खर्च ही वहन करेगी। जहां तक अखबारों के
चयन की बात थी यह अगर पुस्तकालय अध्यक्ष पर छोड़ा जाता तो ज्यादा बेहतर
होता। संख्या और भाषा तक तो ममता बनर्जी की हां में हां मिलाई जा सकती
है। लेकिन ममता बनर्जी ने हिंदी, बांग्ला और उर्दू के अखबारों के नाम का
जिक्र कर लोगों को उनके खिलाफ बोलने का मौका दे दिया है। मुख्यमंत्री ने
अपने पहले फरमान में हिंदी का एक, उर्दू का दो और बांग्लाभाषा के पांच
अखबारों को जिक्र किया था। इससे उनकी मंशा साफ हो जाती है कि वे
पुस्तकालय में आने वाले लोगों को वही पढ़ाना चाहती है, जो उनके या उनकी
सरकार के पक्ष में हो। हालांकि चौतरफा निंदा और हो-हल्ले के बाद इस सूची
में पांच अखबारों को और जोड़ा गया। जोशी ने कहा- आर्थिक तंगी तो एक बहाना
है। बात दरअसल पैसे की होती तो ममता पुस्तकालयों में केवल अंग्रेजी अखबार
रखने की वकालत करती। क्योंकि हिंदी, बांग्ला और उर्दू की तुलना में
अंग्रेजी अखबार सस्ते हैं। मजे की बात यह है कि रद्दी में भी अंग्रेजी
अखबार अन्य भाषाओं के अखबार की अपेक्षा अधिक कीमत पर बिकते हैं।
साहित्यकार सुनील गंगोपाध्याय ने सरकारी अधिसूचना का हवाला देते हुए कहा
कि जहां तक मुझे जानकारी है सरकारी आदेश में कहा गया है कि पाठकों के हित
में सरकारी पैसे से ऐसा कोई अखबार नहीं खरीदा जाएगा जो प्रत्यक्ष या
परोक्ष तौर पर किसी राजनीतिक दल की सहायता से छपता हो। यानी इस सूची में
शामिल अखबारों के अलावा बाकी तमाम अखबार सरकार की नजर में किसी न किसी
राजनीतिक दल से सहायता हासिल करते हैं। कोलकाता से हिंदी के नौ अखबार
निकलते हैं, लेकिन सरकारी सूची में वही इकलौता अखबार शामिल है जिसके
मालिक को ममता ने हाल ही में तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर राज्यसभा में
भेजा है। उन्होंने कहा कि वाममोर्चा के शासनकाल में तमाम सरकारी
पुस्तकालयों में बाकी अखबारों के अलावा माकपा का मुखपत्र गणशक्ति खरीदना
अनिवार्य था, लेकिन उसके लिए कोई लिखित निर्देश जारी नहीं किया गया था।
अब सरकार जिन अखबारों को साफ-सुथरा और निष्पक्ष मानती है उनमें से
ज्यादातर को तृणमूल कांग्रेस का समर्थक माना जाता है। सरकार की इस सूची
में सबसे पहला नाम बांग्ला दैनिक संवाद प्रतिदिन का है। उसके संपादक और
सहायक संपादक दोनों तृणमूल के टिकट पर राज्यसभा सांसद हैं। दूसरे अखबारों
का भी ममता और तृणमूल कांग्रेस के प्रति लगाव जगजाहिर है। उनके मुताबिक
सरकार यह तय करती है कि पाठक कौन से अखबार पढ़े तो बंगाल की जनता के लिए
इससे शर्म की बात और कुछ नहीं हो सकती।
दूसरी ओर, राज्य विधानसभा में विपक्ष के नेता व राज्य के मुख्य स्वास्थ्य
मंत्री सूर्यकांत मिश्र, फारबर्ड ब्लॉक के राज्य सचिव अशोक घोष, प्रदेश
भाजपा के अध्यक्ष राहुल सिन्हा, कांग्रेस सांसद अधीर चौधरी के साथ-साथ
तृणमूल के सांसद कबीर सुमन ने ममता सरकार के इस फरमान को तुलगकी आदेश
करार दिया है।
ध्यान रहे कि ममता ने जिन अखबारों के नाम का उल्लेख किया है, वे कहीं ना
कहीं तृणमूल कांग्रेस से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं। ममता
द्वारा सुझाव गए अखबारों के नामों में से हिंदी, बांग्ला और उर्दू अखबार
के प्रमुख को ममता ने ही में पश्चिम बंगाल से राज्यसभा में भेजा है और
जिन तीन जिला प्रधानों के अधिकार छीने हैं वे वाममोर्चा के अधीन थी। इसी
से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ममता की सोच कितनी स्वतंत्र है।

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