ॐ
ऐ बाबाओं ,
नमस्कार !
वन्दे मातरं .....................
अभी मैं जिस अधिकार से बोल रहा हूँ , अगर आप अपनी अध्यात्म -जनित और ईश्वर कृपा-प्रेरित अंतर्भावना से समझ सके तो समझे अन्यथा वैदिक धर्म में स्थित एक बालक का निवेदन तो सुनना चाहेंगे ही ।
तो , जब आप अपने अनुयायियों को उपदेश दें तो उन्हें यह बताएँ कि शक्तियाँ अनेक दिखाई पड़ते हुए भी वास्तव में एक हैं और उस एकीभूत शक्ति को ही ब्रह्म कहते हैं ।
(अहम् ब्रह्म स्वरूपिणी । - अथर्ववेद )
आप का कार्य है कि आप ओंकार के जाप के साथ प्रवचन शुरू करें और इसी के साथ या किसी भी हिन्दू देवी या देवता की जय के साथ प्रवचन पूर्ण करें ।
आप सदाचार की शिक्षा दें क्योंकि उस परमसत्ता को सदाचार परम प्रिय है और वह सत्ता 'दुराचार विघातिनी ' है ।
अन्य धर्मावलम्बी उसे अन्य नामों से पुकारते हैं पर यदि वे सदाचार का पालन करते हैं तो वह सत्ता नाम बदलने की परवा किये बिना उनपर भी कृपा बरसाती है।
आप अपने अनुयायियों को यह भी बताईये कि सिर्फ सांसारिक सुखों के लिए उसके पास जाने वालों को वह सत्ता उतना पसंद नहीं करती जितना उन्हें जो उसके लिए त्याग करने या कुर्बानियाँ देने को तैयार हैं ।
और , यह सब समझाने के बदले आप या तो कोई धन न लें या बस उतना ही लें जितने में आप जी सकें , उससे ज्यादा आयी राशि को पूर्णतः धर्मार्थ खर्च कर दें । इसे अत्यावश्यक समझें ।
तंत्र , मंत्र और यन्त्र का न तो अनावश्यक प्रयोग कराएँ न कभी इनकी निंदा करें । वैदिक धर्म मंत्रात्मक है ।
तंत्र स्वयं परासत्ता है , मंत्र उसी से उद्भूत एवं उसी से प्रभावोत्पादक हैं । यन्त्र उपयोगी भौतिक उपकरण है जो
मंत्रतंत्रात्मक गतिविधियों में सहयोगी होता है अतः वह उसका अंग है ।
अपने अनुयायियों को यह बताएँ कि उस सत्ता ने सदाचारियों के लिए स्वर्ग और दुराचारियों के लिए नरक का बंदोबस्त कर रखा है । जिन्हें यहाँ कुछ सजा मिलती है उन्हें उस सत्ता के प्रति धन्यवाद ही देना चाहिए ।
नर्क की धधकती आग पापियों के लिए लपलपाती रहती है ।
गुरुओं की जबाबदेही शिष्यों से ज्यादा है और उसी मात्रा में ईनाम और सजा भी ।
आज इतना ही ।
ब्रह्म स्वरूपिणी परमसत्ता की जय ।
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