कांग्रेस कमजोर, मगर खुद अपने में उलझी है भाजपा
एक ओर जहां केंद्र की यूपीए सरकार भ्रष्टाचार, घोटाले और महंगाई जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों की वजह से बुरी तरह घिरी हुई है और उसके दुबारा सत्ता में आने की संभावना क्षीण होने लगी है, वहीं भाजपा मौके का फायदा उठाने की बजाय खुद अपने में ही उलझी हुई है। एक ओर जहां उसे मुंबई में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की दो दिवसीय बैठक शुरू होने से ठीक पहले नरेंद्र मोदी को राजी करने के लिए संजय जोशी का राष्ट्रीय कार्यकारिणी से इस्तीफा दे कर शहीद करना पड़ा, वहीं राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा की दादागिरी के आगे झुक कर संघ लाबी को फिलहाल चुप रहने का अनुनय करना पड़ रहा है। उधर कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा ने भी हाईकमान की नींद हराम कर रखी है।
जहां तक मोदी का सवाल है, वे मीडिया द्वारा योजनाबद्ध तरीके से प्रोजेक्ट किए जाने के कारण केन्द्रीय नेताओं के बराबर आ खड़े हुए हैं। उन्हें भाजपा की ओर भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखा जा रहा है। जाहिर सी बात है कि वे अब इतने मजबूत हो गए हैं कि हाईकमान उन्हें चाह कर नजरअंदाज नहीं कर सकता। नजरअंदाज करना तो दूर उसे तो उनके लिए पलक पांवड़े बिछाने की नौबत आ गई है। और उसके एवज में संघ पृष्ठभूमि के संजय जोशी का कार्यसमिति से इस्तीफा लेना पड़ गया।
यहां उल्लेखनीय है कि संघ के जाने-माने चेहरे संजय जोशी नितिन गडकरी के करीबी माने जाते हैं। यूपी विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी में उनकी पार्टी में वापसी हुई थी और चुनाव अभियान का सह-संयोजक बना दिया गया था। इससे नाराज मोदी ने यूपी में चुनाव प्रचार करने से इनकार कर दिया था। मोदी, संजय जोशी को लेकर इतने नाराज थे कि उन्होंने राष्ट्रीय कार्यकारिणी में भी नहीं आने के संकेत दिए थे। वे तभी आए जब कि गडकरी ने संजय जोशी को इस्तीफे के लिए राजी कर लिया।
यह ऐसी शख्सियत का इस्तीफा है जो संघ से बीजेपी में भेजे गए और पार्टी के ताकतवर संगठन मंत्री हुआ करते थे। जिन्ना विवाद के बाद उन्होंने ही लालकृष्ण आडवाणी को बीजेपी अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के लिए बाध्य किया था। वो तो उनकी एक अश्लील सीडी आने के कारण उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था। बाद में जांच में क्लीन चिट मिलने पर वापस लिया गया। हाल ही इस्तीफा देते वक्त जोशी का यह बयान कि वे नहीं चाहते कि पार्टी में उनकी वजह से मनमुटाव हो, उनकी मजबूरी को साफ जाहिर करता है। इसी कारण जोशी के इस्तीफे को गडकरी और मोदी के बीच चल रहे विवाद में मोदी की जीत के रूप में भी देखा जा रहा है।
देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के अध्यक्ष गडकरी की हालत देखिये कि मोदी के बैठक में शामिल होने की पुष्टि का बयान देते हुए उन्हें अपनी ही पार्टी के नेता मोदी के लिए यह कहना पड़ रहा है कि उन्होंने विश्वास दिलाया है कि वे कंघे से कंघा मिला कर काम करेंगे। कैसी विडंबना है? आखिरकार मोदी पार्टी के ही नेता हैं, उन्हें तो पार्टी के लिए काम करना ही है, करना ही चाहिए, मगर चूंकि उनका कद बड़ा हो गया है, इस कारण वे पार्टी के लिए काम करेंगे, इसे रेखांकित करते हुए कहना पड़ रहा है। बहरहाल, मोदी को भले ही उन्होंने राजी कर लिया हो, मगर गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री केशूभाई पटेल को भी पटा कर रखना टेढ़ी खीर होगा।
राजस्थान की बात करें तो यहां भी वसुंधरा पार्टी से इतनी बड़ी हो गईं कि उनके गुस्से को देखते हुए दिग्गज नेता गुलाब चंद कटारिया को मजबूरी में अपनी रथ यात्रा को रद्द करने की घोषणा करनी पड़ी। यह भी तब जब कि संघ लाबी उनके साथ है और गडकरी ने ही उन्हें यात्रा का अनुमति दी थी। अंदाजा लगाया जा सकता है कि वसुंधरा की ताकत के आगे झुकते हुए संघ लाबी को राजी करने में गडकरी को कितना जोर आ रहा होगा। जैसी कि संभावना है कि वसुंधरा को राजस्थान में फ्रीहैंड देना ही होगा।
इन दोनों प्रकरणों में एक समानता ये है कि दोनों ही नेता मोदी व वसुंधरा अपने अपने राज्य में पार्टी से इतर खुद अपना वजूद खड़ा किए हुए हैं और दोनों के ही मामले में संघ समझौता करने को मजबूर है। हालांकि आज संघ के पास हालात के मद्देनजर समझौता करने के सिवाय कोई चारा नहीं है, मगर यह अंनद्र्वद्व पार्टी को दोनों राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में भारी पड़ सकता है। सीधी सी बात है कि उसका असर लोकसभा चुनाव पर भी होगा। ऐसे में पार्टी के कार्यकर्ताओं को कितना मलाल होगा कि एक धक्का मारने पर गिर जाने वाली कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने पर ध्यान देने की बजाय गडकरी को अपनी पार्टी के नेताओं से ही जूझना पड़ रहा है। एक और महत्वपूर्ण बात ये भी कि संघ जैसे सशक्त मातृ संगठन के राजनीति मंच भाजपा पर गैर संघी हावी होते जा रहे हैं, जो कि संघ के लिए गहरी चिंता का विषय है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
एक ओर जहां केंद्र की यूपीए सरकार भ्रष्टाचार, घोटाले और महंगाई जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों की वजह से बुरी तरह घिरी हुई है और उसके दुबारा सत्ता में आने की संभावना क्षीण होने लगी है, वहीं भाजपा मौके का फायदा उठाने की बजाय खुद अपने में ही उलझी हुई है। एक ओर जहां उसे मुंबई में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की दो दिवसीय बैठक शुरू होने से ठीक पहले नरेंद्र मोदी को राजी करने के लिए संजय जोशी का राष्ट्रीय कार्यकारिणी से इस्तीफा दे कर शहीद करना पड़ा, वहीं राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा की दादागिरी के आगे झुक कर संघ लाबी को फिलहाल चुप रहने का अनुनय करना पड़ रहा है। उधर कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा ने भी हाईकमान की नींद हराम कर रखी है।
जहां तक मोदी का सवाल है, वे मीडिया द्वारा योजनाबद्ध तरीके से प्रोजेक्ट किए जाने के कारण केन्द्रीय नेताओं के बराबर आ खड़े हुए हैं। उन्हें भाजपा की ओर भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखा जा रहा है। जाहिर सी बात है कि वे अब इतने मजबूत हो गए हैं कि हाईकमान उन्हें चाह कर नजरअंदाज नहीं कर सकता। नजरअंदाज करना तो दूर उसे तो उनके लिए पलक पांवड़े बिछाने की नौबत आ गई है। और उसके एवज में संघ पृष्ठभूमि के संजय जोशी का कार्यसमिति से इस्तीफा लेना पड़ गया।
यहां उल्लेखनीय है कि संघ के जाने-माने चेहरे संजय जोशी नितिन गडकरी के करीबी माने जाते हैं। यूपी विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी में उनकी पार्टी में वापसी हुई थी और चुनाव अभियान का सह-संयोजक बना दिया गया था। इससे नाराज मोदी ने यूपी में चुनाव प्रचार करने से इनकार कर दिया था। मोदी, संजय जोशी को लेकर इतने नाराज थे कि उन्होंने राष्ट्रीय कार्यकारिणी में भी नहीं आने के संकेत दिए थे। वे तभी आए जब कि गडकरी ने संजय जोशी को इस्तीफे के लिए राजी कर लिया।
यह ऐसी शख्सियत का इस्तीफा है जो संघ से बीजेपी में भेजे गए और पार्टी के ताकतवर संगठन मंत्री हुआ करते थे। जिन्ना विवाद के बाद उन्होंने ही लालकृष्ण आडवाणी को बीजेपी अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के लिए बाध्य किया था। वो तो उनकी एक अश्लील सीडी आने के कारण उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था। बाद में जांच में क्लीन चिट मिलने पर वापस लिया गया। हाल ही इस्तीफा देते वक्त जोशी का यह बयान कि वे नहीं चाहते कि पार्टी में उनकी वजह से मनमुटाव हो, उनकी मजबूरी को साफ जाहिर करता है। इसी कारण जोशी के इस्तीफे को गडकरी और मोदी के बीच चल रहे विवाद में मोदी की जीत के रूप में भी देखा जा रहा है।
देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के अध्यक्ष गडकरी की हालत देखिये कि मोदी के बैठक में शामिल होने की पुष्टि का बयान देते हुए उन्हें अपनी ही पार्टी के नेता मोदी के लिए यह कहना पड़ रहा है कि उन्होंने विश्वास दिलाया है कि वे कंघे से कंघा मिला कर काम करेंगे। कैसी विडंबना है? आखिरकार मोदी पार्टी के ही नेता हैं, उन्हें तो पार्टी के लिए काम करना ही है, करना ही चाहिए, मगर चूंकि उनका कद बड़ा हो गया है, इस कारण वे पार्टी के लिए काम करेंगे, इसे रेखांकित करते हुए कहना पड़ रहा है। बहरहाल, मोदी को भले ही उन्होंने राजी कर लिया हो, मगर गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री केशूभाई पटेल को भी पटा कर रखना टेढ़ी खीर होगा।
राजस्थान की बात करें तो यहां भी वसुंधरा पार्टी से इतनी बड़ी हो गईं कि उनके गुस्से को देखते हुए दिग्गज नेता गुलाब चंद कटारिया को मजबूरी में अपनी रथ यात्रा को रद्द करने की घोषणा करनी पड़ी। यह भी तब जब कि संघ लाबी उनके साथ है और गडकरी ने ही उन्हें यात्रा का अनुमति दी थी। अंदाजा लगाया जा सकता है कि वसुंधरा की ताकत के आगे झुकते हुए संघ लाबी को राजी करने में गडकरी को कितना जोर आ रहा होगा। जैसी कि संभावना है कि वसुंधरा को राजस्थान में फ्रीहैंड देना ही होगा।
इन दोनों प्रकरणों में एक समानता ये है कि दोनों ही नेता मोदी व वसुंधरा अपने अपने राज्य में पार्टी से इतर खुद अपना वजूद खड़ा किए हुए हैं और दोनों के ही मामले में संघ समझौता करने को मजबूर है। हालांकि आज संघ के पास हालात के मद्देनजर समझौता करने के सिवाय कोई चारा नहीं है, मगर यह अंनद्र्वद्व पार्टी को दोनों राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में भारी पड़ सकता है। सीधी सी बात है कि उसका असर लोकसभा चुनाव पर भी होगा। ऐसे में पार्टी के कार्यकर्ताओं को कितना मलाल होगा कि एक धक्का मारने पर गिर जाने वाली कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने पर ध्यान देने की बजाय गडकरी को अपनी पार्टी के नेताओं से ही जूझना पड़ रहा है। एक और महत्वपूर्ण बात ये भी कि संघ जैसे सशक्त मातृ संगठन के राजनीति मंच भाजपा पर गैर संघी हावी होते जा रहे हैं, जो कि संघ के लिए गहरी चिंता का विषय है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
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