आंबेडकर कार्टून विवाद पर मैं इतना जोड़ने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ कि मैं तो हमेशा कहता रहा हूँ कि राज्य दलितों को दे दो | वही सवर्ण हिन्दुओं और मुसलमानों , सबका दिमाग दुरुस्त करेंगे / कर पाएंगे | दलितों के सम्प्रति विरोध का विरोध ज़रा अब वे मुसलमान और उनके हिमायती सेकुलर लोग ज़रा कर के तो दिखाएँ ! किस मुँह से करेंगे जब वे स्वयं ७२ छेद वाली चलनियाँ हैं ? उन्होंने तो खुद डेनमार्की कार्टूनों का आत्यंतिक विरोध या उनका समर्थन किया था | वह कार्टून तो विदेश में बना था , इसलिए भारत में उसका इतना विरोध तो ज़रूरी न था | लेकिन यह कार्टून तो भारत में बना ,तो इसका विरोध क्या अमरीका में किया जायगा ? मज़ाक भी सामने वाले की सहनशीलता का अनुमान लगा कर ही किया जाना उचित होता है | फिर यह शक्ति संतुलन और प्रदर्शन का भी मुद्दा बनता है , भले उतनी भक्ति भावना या मूर्तिपूजा का पुट इसमें न हो | और फिर देखा देखी पाप , देखा देखी पुन्य का भी तो मामला है ! तो , जैसी करनी वैसी भरनी | यह तो राजनीति है | यदि सलमान रुश्दी का आना रुक सकता है , उनकी भाषा -शैली पर कोई छात्र शोध नहीं कर सकता , तो आंबेडकर पर कार्टून -युक्त किताब भी हटानी ही पड़ेगी | अब विरोध रत दलितों का कोई विरोध करे तो हम भी देखें ! हर घटना का कोई एब्सोल्यूट उत्तर नहीं होता | सभी सत्य समय / समस्या सापेक्ष होते हैं , इनके तुलनात्मक अध्ययन की आवश्यकता होती है | मैं तो कार्टून विरोधियों का आलोचक तब भी था , अब भी हूँ | लेकिन जब मैं हाजी याकूब का कुछ बिगाड़ नहीं पाया जिन्होंने कार्टूनिस्ट के सर पर ५ या ५० लाख या करोड़ की सुपारी घोषित की थी , तो अब मैं किस मुँह से इस उबाल का विरोध करूँ ? क्या सबको सारी डिमोक्रेसी सिखाने की ज़िम्मेदारी हमारी ही है ? वे खुद क्यों न कुछ समझें और उसका पालन करें , जिसकी नक़ल और लोग भी करें ? पर यह बात तो अपनी जगह पर है कि यदि मोहम्मद साहेब पर कार्टून न बनाया जाता तो इस से इस्लाम की प्रतिष्ठा कुछ बढ़ न गयी होती , या यदि आंबेडकर पर कार्टून किताब में शामिल न किया गया होता तो इस से राजनीति की पढ़ाई में कुछ कमी रह जाती |
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