3.6.12

व्यंग्य - पानी रे पानी...


राजकुमार साहू, जांजगीर, छत्तीसगढ़
निश्चित ही पानी अनमोल है। यह बात पहले मुझे कागजों में ही अच्छी लगती थी, अब समझ भी आ रहा है। गर्मी में पानी, सोने से भी महंगा हो गया है, बाजार में दुकान पर जाने से ‘सोना’ मिल भी जाएगा, मगर ‘पानी’ कहीं गुम हो गया है। मेरे लिए तो फिलहाल सोने से भी ज्यादा कीमत, पानी की है, क्योंकि पानी को ढूंढने निकलता हूं तो दिन खप जाता है और वह गाना याद आता है...पानी रे पानी...तेरा रंग कैसा...। पानी के बिना वैसे तो जिंदगी ही अधूरी है और ऐसा लग भी रहा है, क्योंकि पानी ने जिंदगी से दूरी जो बना ली है। सुबह से शाम, पानी की चिंता में ही गुजरती है, ऊपर से पेट्रोल ने उसमें छोंक डालने का काम किया है। ऐसे में हम जैसे आम आदमी करे तो क्या करे ? बड़े लोग तो ढूंढकर पानी खरीद लेते हैं, हम जैसे अनगिनत लोग क्या करें, जिन्हें ‘पानी’ ढूंढने से भी नहीं मिल रहा है। हम हाथ मलते ही रह जाते हैं।
गरीबी से वैसे तो सभी चीजें रूठी रहती हैं, अब पानी ने भी मुंह मोड़ लिया है। अपनी इतनी औकात तो है नहीं, जो रोज-रोज ‘पानी’ को अवकात बता सकें। इसलिए दिन भर पानी की राह ताकते रहते हैं। जब उनका मन करता है, नजर आ जाता है, नहीं तो समा जाता है, भू-तल में। इसमें हम जैसों का क्या कसूर। जो पानी से थोड़ी बहुत विनती कर बैठते हैं, मगर वह नहीं सुनता, बस सुनता तो पैसों वालों की और हर जगह सुलभ हो जाता है। गरीबों के हाथ, जिस तरह कुछ ठहरता नहीं, वैसा ही पानी भी दूर फटकता है। नजदीक जाओ, मुंह ऐंठ लेता है। मनाने लगो, त्योरियां चढ़ा लेता है।
इतना कुछ होने के बाद भी मन इसलिए मसोस लिया जाता है, गरीब ऐसे ही पीसने के बने होते हैं, जिनकी जिंदगी के हिस्से में ऐसे ही नजारे सुखद होते हैंे।
अब मैं मूल बात पर आता हूं। जब से सूरज ने तपिश बढ़ाई है, उसके बाद मेरा जीना मुहाल हो गया है। उनकी तपन बर्दास्त हो जाती है, लेकिन पानी की दूरियां नहीं। मैं सुबह से शाम तक बस एक ही चिंता में रहता हूं कि पानी मिलेगा कि नहीं...मिलेगा तो कैसे...नाराज होकर दूर तो नहीं चला जाएगा.. ऐसी ही बातों को सोच-सोचकर मन हैरान-परेशान रहता है। मन, केवल पानी के पीछे भागते रहता है। लेखक मन है, फिर भी लिखने का मन नहीं करता, कुछ सुझता ही नहीं, गर्मी में मन तिलमिलाया हुआ है। मन बस यही कहता है, जब तक पानी नहीं, तब तक कुछ नहीं। सुबह उठो और लग जाओ, पानी की तिमारदारी में। यह सिलसिला देर रात तक नहीं थमता, क्योंकि पानी की खुशामदी जहां छोड़े, उसके बाद पानी भी कहां परवाह करने वाला रहता है।
हालात ऐसे हो गए हैं, बिना नहाए पहले आह्वान करता पड़ता है, पानी भगवान की जय हो... पानी भगवान की जय हो...। ऐसे ही आलाप चलते रहते हैं, तब कहीं जाकर ‘पानीदेव’ खुश होते हैं और फिर तय होता है कि कितने बूंद टपकाए जाएं...। एक-एक बूंद के लिए मिन्नतें करनी पड़ती है। कैसे भी करके बाल्टी भर कर बेड़ा पार लगाओ और इस जिंदगी को सफल बनाओ। मैं पानीदेव को खुश करने के लिए फरमाइश करता हूं कि आ जाओगो तो लड्डू भोग में चढ़ाऊंगा, फिर भी नहीं मानते। कहते हैं, पहले मेरा मोल तो समझो, उसके बाद ही मानूंगा। एक-एक बूंद टपकाने के बाद कहता है, अब कुछ समझ में आ रहा है, ...जल ही जीवन है, इसे व्यर्थ न बहाएं...।
‘पानीदेव’ ने मुझे लताड़ लगाते हुए कहा कि बारिश के समय तो मुझे लात मारते हो और गर्मी आते ही पूजा करने लगते हो, ऐसा नहीं चलने वाला ? मेरा मोल हर समय समझो, तब जाकर मैं खुश होऊंगा। फिर मैं पानी रे पानी... कहते ही साक्षात् प्रकट हो जाऊंगा और कोई आवभगत करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। अब जाकर मुझे समझ में आया कि आखिर ‘पानीदेव’ की महिमा क्या है ?

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