19.7.12

कांग्रेस में विचारों की कमी हो गयी है-ब्रज की दुनिया

मित्रों,प्रणव मुखर्जी का अगला राष्ट्रपति बनना तय हो चुका है.कहने को तो प्रणव सरकार में नंबर २ थे लेकिन अब यह किसी से छिपा हुआ नहीं है कि दरअसल इस सरकार को चला वही रहे थे.लगभग सारी कैबिनेट समितियों के अध्यक्ष वही थे न कि मनमोहन सिंह और तदनुसार सरकार के बारे में सारे यथास्थितिवादी फैसले वही ले रहे थे न कि मनमोहन सिंह.उनमें चाहे जितनी भी योग्यता हो यू.पी.ए.-२ के वित्त मंत्री और अघोषित प्रधानमंत्री के रूप में उनका कामकाज औसत से अतीव कमतर तो रहा ही देश को विकास के पथ पर पीछे 'हिन्दू दर" वाले युग में ले जानेवाला भी रहा.चाहे अर्थव्यवस्था को गति देने का प्रश्न हो अथवा भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने का सवाल प्रणव प्रत्येक मोर्चे पर असफल रहे.उनकी गलत और अर्थशास्त्र के सिद्धांतों से बेमेल नीतियों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को उस समय भारी नुकसान पहुँचाया जब वह पहले से ही वैश्विक आर्थिक संकट के कारण ढलान के मुहाने पर थी.प्रणव मुखर्जी ने ह्रास को रोकने का इंतजाम करने के बदले करों में वृद्धि करके और गार जैसे विवेकहीन कर प्रस्ताव लाकर ढलान से नीचे उतर रही भारतीय अर्थव्यवस्था को जोर का धक्का दे दिया.जिस कालखंड में सरकारी व्यय बढाकर आधारभूत संरचना का तेज विकास किया जाना था उसी कालखंड में मूर्खतापूर्ण तरीके सरकारी सार्थक व्यय में कटौती की गयी जबकि अपव्यय को खूब बढ़ावा दिया गया.जैसे मनरेगा जैसी धन-संपत्ति अनुत्पादक लेकिन आलसी और निकम्मा-उत्पादक और वर्द्धक योजना पर भारी व्यय किया गया जिससे न तो गांवों को आनुपातिक लाभ हुआ और न ही देश और गांवों में स्थायी रोजगार की सृष्टि ही हो पाई.
                 मित्रों,उनकी मौद्रिक नीति का तो कहना ही क्या?लगता है जैसे उनको एक ही काम आता था सिर्फ ब्याज दर में लगातार बढ़ोत्तरी करना.यद्यपि इसके चलते कर्ज यानि पूँजी तो महँगी होती ही गयी महंगाई में भी किसी तरह की कमी नहीं आई.माना कि मौद्रिक नीति का सञ्चालन रिजर्व बैंक करता है लेकिन वे उसे निर्देश तो दे ही सकते थे.भ्रष्टाचार के प्रति भी प्रणव मुखर्जी का रवैया निहायत अफसोसनाक,खतरनाक,शर्मनाक और टालमटोल भरा रहा है.लोकपाल विधेयक के किसी सार्थक परिणति तक नहीं पहुँचने देने के लिए जितने जिम्मेदार कपिल सिब्बल,सलमान खुर्शीद और पी. चिदंबरम हैं प्रणव किसी भी तरह उनसे कम जिम्मेदार नहीं हैं.इस दिशा में उनका रवैया अवरोधक वाला ही रहा है त्वरक (एक्सीलेटर) वाला नहीं.उनके द्वारा काले धन पर प्रस्तुत श्वेत पत्र तो आपको याद होगा ही.शायद वह जिस कागज पर लिखा गया था उसे सादा ही छोड़ दिया गया था उसे किंचित भी काला नहीं किया गया था.इसको लाने के पीछे प्रणव का छिपा हुआ उद्देश्य मुद्दे का घोर-मट्ठा कर देने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था.भ्रष्टाचार के मामलों की लीपा-पोती करने में उनका कोई जवाब नहीं था.यू.पी.ए.-२ में उन्होंने इसके अलावा और कुछ किया ही नहीं.
                    मित्रों,मैं नहीं जानता कि २-जी घोटाले,कोयला घोटाले,अन्तरिक्ष घोटाले,राष्ट्रमंडल घोटाले इत्यादि के पीछे प्रणव की प्रेरणा कहाँ तक काम कर रही थी लेकिन शायद वे इतने अधिक शक्तिशाली भी नहीं थे की इतने बड़े-बड़े सरकार प्रायोजित घोटालों का दिग्दर्शन कर सकें.शायद इनका सबका सूत्रधार कोई और था या थी शायद सोनिया गाँधी या कोई और.जब ये घोटाले किए जा रहे थे तब प्रणव की उतनी चलती नहीं थी जितनी कि घोटालों के हो जाने और उजागर हो जाने के बाद हो गयी.इसका कारण शायद यह था कि वे अतिव्यवहार कुशल और वाकपटु थे कि उन्हें ही सरकार का बचाव करने की महती जिम्मेदारी सौंपी गयी.इसमें भी संदेह नहीं कि उन्होंने संकटमोचक की नई भूमिका का बखूबी निर्वहन भी किया परन्तु घोटाला सम्बन्धी मामलों की लगातार लीपापोती करने से भ्रष्टाचार में वृद्धि ही हुई कमी नहीं आई.साथ ही दादा की चलती का दुष्परिणाम यह भी हुआ कि सरकार ने कोई भी नया निर्णय लेना ही बंद कर दिया.न तो कोई निर्णय लिया जाएगा और न ही कोई घोटाला ही होगा,ठीक बिहार में लालू-राबड़ी शासन वाली स्थिति.प्रणव या सरकार या कांग्रेस की इस नीति की ही परिणति है कि आज की तारीख में भारतीय प्रधानमंत्री की अंतर्राष्ट्रीय छवि रसातल में पहुँच चुकी है.
                              मित्रों,प्रणव जो कांग्रेस और सरकार के लिए संकटमोचक थे अब राष्ट्रपति भवन जा रहे हैं.ऐसे में सरकार में और पार्टी में के विराट शून्य पैदा हो गया है.अब सरकार में कोई संकटमोचक नहीं रहा लेकिन कांग्रेस और सरकार के लिए मूल समस्या यह है ही नहीं.यह तो समस्या-वृक्ष की सिर्फ एक शाखा है.मूल समस्या तो यह है कि कांग्रेस और सरकार में विचारों (IDEAS) की कमी हो गयी है.कांग्रेस और सरकार पूरी तरह से विचारशून्य हो गयी हैं.उनकी समझ में यही नहीं आ रहा है कि वर्तमान परिस्थितियों में उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए.क्यों करना चाहिए और कैसे करना चाहिए तो दूर की बात रही.यह एक सार्वकालिक सत्य है कि विशुद्ध वोट बैंक की राजनीति से सरकार बनाई तो जा सकती है भलीभांति चलाई नहीं जा सकती.भलीभांति से यहाँ मेरा मतलब है कि सिर्फ इसके बल पर ९-१०% की विकास-दर प्राप्त नहीं की जा सकती और न ही देश का चतुर्दिक विकास ही हो सकता है.बल्कि कई बार इस तरह की उपलब्धियाँ प्राप्त करने के लिए लोकप्रिय राजनीति का परित्याग भी करना पड़ता है.बार-बार विधानसभा चुनावों में पराजय का मुँह देखती आ रही कांग्रेस पार्टी उत्तर प्रदेश की हार के बाद कुछ इस तरह सन्निपात की स्थिति में आ गयी हैं वह अपने हर कदम को लेकर संशय की स्थिति में है.भयभीत है कि कहीं उसके किसी कदम का प्रभाव उसके बहुमूल्य वोट-बैंक पर उल्टा न पड़ जाए.अजीब चक्रव्यूह है-जब तक अलोकप्रिय निर्णय नहीं लिए जाते स्थितियां नहीं सुधरेंगी और अगर अलोकप्रिय कदम उठाए जाते हैं तो पार्टी के चुनाव में हार जाने का खतरा है.साथ ही कोई ऐसा विचारक भी पार्टी के पास उपलब्ध नहीं है जो कि यह बतला सके कि एकसाथ इन दोनों निशानों को कैसे साधा जाए और अगर है भी तो सोनिया उनपर विश्वास ही नहीं करतीं या फिर उन्हें भी चापलूसी करवाने में ही मजा आ रहा है.एक समय था जब बतौर साहित्यकार श्रीकांत वर्मा मगध में विचारों की कमी हो गई थी इसलिए उसका पतन हो गया.आज वही स्थिति कांग्रेस के समक्ष उत्पन्न हो गई है और ऐसा कोई आदमी पार्टी को मिल नहीं रहा है जो निर्भीक होकर ऐसे विचार दे सके कि सोनिया गाँधी सुनें तो सुनते ही रह जाएँ और अनायास उनके मुंह से निकल जाए-व्हाट ऐन आईडिया सर जी?मैं पहले ही कह चुका हूँ कि ऐसा भी नहीं है कि पार्टी के पास थिंक टैंक हैं ही नहीं परन्तु वे भी आजकल पार्टी को नए-नए विचार देने के स्थान पर "राहुल बाबा नाम केवलम" नामक निष्प्रभावी सिद्ध हो चुके मंत्र के अखंड जाप में लगे हुए हैं.वे इस छोटी-सी बात को या तो समझ नहीं पा रहे हैं या फिर नहीं समझ पाने का ढोंग कर रहे हैं कि राहुल गाँधी सर्वथा अयोग्य हैं और उनकी एकमात्र योग्यता उनका राजीव गाँधी का बेटा होना है.राहुल उस नेपोलियन बोनापार्ट के पाँव की धूल के बराबर भी नहीं हैं जो अक्सर कहा करता था कि मैं आया,मैंने देखा और मैं जीत गया (I CAME, I SAW AND I WON). 

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