19.9.12

रियुमेटॉयड आर्थ्राइटिस



रियुमेटॉयड आर्थ्राइटिस एक दीर्घकालिक स्व-प्रतिरक्षित (Autoimmune) रोग है जो शरीर के जोड़ों और अन्य ऊतकों में विकृति पैदा  करता है। इस रोग में हाथ और पैरों के जोड़ प्रदाह ग्रस्त (Inflammed) हो जाते हैं, जिसके फलस्वरूप उनमें सूजन और दर्द होता है और धीरे-धीरे जोड़ों में क्षति होने लगती है।
  • शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली जोड़ों और संयोजी ऊतक (Connective Tissue) को नष्ट करते हैं।
  • सुबह उठने पर या विश्राम के बाद जोड़ों (सामान्यतः हाथ और पैरों के छोटे जोड़ों) में दर्द और जकड़न होती है जो एक घंटे से अधिक समय तक रहती है।
  • बुखार, कमजोरी और अन्य अंगों में क्षति हो सकती है।
  • इस रोग का निदान मुख्यतः रोगी में लक्षणों के आधार पर किया जाता है, लेकिन रक्त में रियुमेटॉयड  फेक्टर की जांच और एक्स-रे भी निदान में सहायक होते हैं।
  • इस रोग के उपचार में कसरत, स्प्लिंट, दवाइयों (नॉन-स्टीरॉयडल एंटी-इन्फ्लेमेट्री दवाइयां, एंटीरूमेटिक दवाइयां और इम्युनोसप्रेसिव दवाइयां) और शल्य चिकित्सा की मदद ली जाती है।
विश्व की 1% आबादी रियुमेटॉयड आर्थ्राइटिस का शिकार बनती है। स्त्रियों में इस रोग का आघटन पुरुषों से दो या तीन गुना अधिक होता है। वैसे तो यह रोग किसी भी उम्र में हो सकता है, लेकिन इसकी शुरुआत प्रायः 35 से 50 वर्ष के बीच होती है। इस रोग का एक प्रारूप छोटे बच्चों में भी होता है, जिसे जुविनाइल इडियोपेथिक आर्थ्राइटिस (Juvenile Idiopathic Arthritis) कहते हैं।  
इस रोग का कारण अभी तक अज्ञात है, लेकिन इसे स्व-प्रतिरक्षित रोग (Autoimmune Disease) माना जाता है। प्रतिरक्षा प्रणाली जोड़ों के अस्तर या खोल (Synovial Membrane) पर प्रहार करती है, साथ में शरीर के अन्य अंगों के संयोजी ऊतक जैसे रक्तवाहिकाएं और फेफड़े भी क्षतिग्रस्त होने लगते हैं। और इस तरह जोड़ों के कार्टिलेज, अस्थियां और लिगामेन्ट्स  का क्षरण होने लगता है, जिससे जोड़ विकृत, अस्थिर, खराब और दागदार हो जाते है। जोड़ों के क्षतिग्रस्त होने की गति आनुवंशिक समेत कई पहलुओं पर निर्भर करती है।


लक्षण
आमतौर पर रियुमेटॉयड आर्थ्राइटिस की शुरुआत धीरे धीरे होती है। बीच-बीच में रोग के लक्षण भड़कते हैं, जिसके बाद लम्बे अंतराल तक रोगी लक्षणहीन रहता है और रोग निष्क्रिय अवस्था में  रहता है। या रोगी में लक्षण तेजी से अथवा धीरे-धीरे बढ़ते जाते हैं। कभी रियुमेटॉयड आर्थ्राइटिस अचानक कई जोड़ों पर एक साथ धावा बोलता है। कई बार यह बहुत धीरे से शुरू होता है, और मुख्तलिफ जोड़ों पर असर करता चलता है। यह रोग प्रायः दोनों तरफ के जोड़ों पर असर करता है और मुख्यतः अंगुलियां, हाथ, पैर, कलाई, कोहनी, टखना आदि  छोटे जोड़ों पर पहले प्रहार करता है। प्रदाह ग्रस्त जोड़ में सुबह उठने पर या आराम के बाद प्रायः दर्द और जकड़न होती है जो एक घंटे से अधिक समय तक रहती है। यह रियुमेटॉयड आर्थ्राइटिस का विशिष्ट लक्षण है। कुछ रोगी दोपहर में थकावट और कमजोरी महसूस करते हैं। रोगी को भूख न लगने, वजन कम होने और हल्का बुखार बने रहने की तकलीफ भी हो सकती है।
प्रभावित जोड़ प्रदाह के कारण नाजुक, गर्म, लाल और बड़ा महसूस होता है। कई बार जोड़ में पानी भर जाता है। जल्दी ही जोड़ विकृत और कुरूप हो जाता है। इसके बाद जोड़ में जकड़न बढ़ने लगती है और उसे धुमाना या हिलाना डुलाना मुश्किल हो जाता है। कई बार अंगुलियां उतर कर छोटी अंगुली कनिष्ठा की तरफ झुक जाती हैं जिससे उनके टेन्डन भी उतर जाते हैं।
सूजे हुए जोड़ नाड़ी पर दबाव डालते हैं, जिससे संवेदनशून्यता और सिरहन होती है। कई बार घुटनें के पीछे पुटिका (Cyst) बन जाती है, जिसके फूटने पर टांग में दर्द होता है और सूजन आ जाती है। रियुमेटॉयड आर्थ्राइटिस के 30% रोगियों में त्वचा के नीचे (जहाँ दबाव अधिक पड़ता है जैसे कोहनी) कठोर गांठें बन जाती हैं, जिन्हें रियुमेटॉयड  नोड्यूल्स कहते हैं। इनके अलावा त्वचा में पायोडर्मा, स्वीट्स सिन्ड्रोम, ऐरीदिमा नोडोसम, लोब्युलर पेनिकुलाइटिस, पामर ऐरीदिमा आदि विकार हो सकते हैं।   
कदाचित रियुमेटॉयड आर्थ्राइटिस रक्तवाहिकाओं को प्रदाह ग्रस्त कर देता है। इसकी वजह से ऊतकों को रक्त की आपूर्ति कम होती जाती है, और नाड़ी की क्षति या पैर में छाले हो सकते हैं। फेफड़े के बाहरी आवरण (Plura) या हृदय के  आवरण (Pericardium) या फेफड़े अथवा हृदय के प्रदाह और स्कारिंग के कारण छाती में दर्द या श्वासकष्ट हो सकता है। रियुमेटॉयड आर्थ्राइटिस  में ऐथेरोस्क्लिरोसिस, हार्ट अटेक और स्ट्रोक का जोखिम अधिक रहता है। कभी कभार पेरीकार्डोइटिस, एंडोक्रेडाइटिस, लेफ्ट वेन्ट्रीकल फेल्यर, वाल्वलाइटिस और फाइब्रोसिस  आदि हृदय विकार हो सकते हैं।
दीर्घकालीन  प्रदाह के कारण फेफड़े में फाइब्रोसिस और वृक्क में एमाइलोडोसिस हो सकता है। कुछ रोगियों के लिम्फनोड्स में सूजन आ सकती है। शोग्रिन्ज सिन्ड्रोम नामक रोग में जोड़ में प्रदाह के साथ आँख, योनि या मुँह में खुश्की रहती है। साथ ही कुछ रोगियों में इपिस्क्लिराइटिस, ऐनीमिया, न्यूट्रोपीनिया, थ्रोम्बोसाइटोसिस, पेरीफ्रल न्युराइटिस, लिम्फोमा आदि विकार हो सकते हैं।
निदान
रियुमेटॉयड आर्थ्राइटिस के निदान में इसके विशिष्ट स्वरूप और लक्षणों के साथ प्रयोगशाला के परीक्षण, जोड़ के द्रव की सूक्ष्मदर्शी जांच और बायोप्सी से बहुत मदद मिलती है। रोग की प्रारंभिक अवस्था में एक्स-रे में कोई परिवर्तन देखने को नहीं मिलते हैं। लेकिन बाद में जोड़ के आसपास अस्थि ऊतक कम होना (Juxta-articular Osteopenia), सूजन और जोड़ में जगह कम होना आदि परिवर्तन साफ दिखाई देते हैं। जैसे जैसे रोग बढ़ता है हड्डियों का क्षरण और जोड़ों का ढीला (Subluxation)देखा जा सकता है।    एम.आर.आई. से जोड़ों की बड़ी स्पष्ट और साफ तस्वीरे प्राप्त होती हैं, लेकिन निदान हेतु प्रायः एम.आर.आई. करने की जरूरत नहीं पड़ती है।  
10 में से 9 रोगियों का ई.एस.आर. बढ़ा हुआ मिलता है, जो प्रदाह की उपस्थिति को इंगित करता है। हालांकि कई अन्य रोगों में भी ई.एस.आर. बढ़ा रहता है, लेकिन फिर भी इसका बढ़ना रोग की सक्रियता को दर्शाता है। आमवात के 70% रोगियों के रक्त में खास तरह की एंटीबॉडीज जैसे रियुमेटॉयड फेक्टर पाई जाती हैं। रियुमेटॉयड आर्थ्राइटिस के रोगियों में रियुमेटॉयड  फेक्टर के स्तर का रोग की गंभीरता से सीधा गुणात्मक सम्बन्ध होता है। जब जोड़ों में प्रदाह कम होता है, तो रियुमेटॉयड फेक्टर का स्तर घटने लगता है। लेकिन रियुमेटॉयड  फेक्टर कुछ अन्य रोगों जैसे हिपेटाइटिस के रोगियों में भी मिलता है। कई बार स्वस्थ व्यक्तियों में भी रियुमेटॉयड  फेक्टर उपस्थित हो सकता है।    
रियुमेटॉयड आर्थ्राइटिस के  96% रोगियों में एंटी-सिट्रुलिनेटेड पेप्टाइड (anti-CCP) एंटीबॉडीज पाई जाती हैं और जिन्हें यह रोग नहीं होता है उनमें ये एंटीबॉडीज कभी नहीं मिलती हैं। इसलिए आजकल चिकित्सक इनकी जांच करवाने लगे हैं।
अधिकांश रोगियों में रक्त की मामूली कमी (ऐनीमिया - लाल रक्त कोशिकाओं की कमी) होती है। कभी-कभार श्वेत रक्त कोशिकाओं की गणना (TLC) कम हो सकती हैं। यदि रियुमेटॉयड आर्थ्राइटिस के रोगी में टी.एल.सी. कम हो, यकृत में नोड्यूलर हाइपरप्लेजिया (कुप्फर सेल्स की सक्रियता बढ़ने के कारण) और तिल्ली बढ़ी हुई हो तो इस रोग समूह को फेल्टीज़ सिन्ड्रोम (Felty's syndrome) कहते हैं।
फलानुमान
रियुमेटॉयड आर्थ्राइटिस की प्रगति अनियमित और अप्रत्याशित होती है। यह रोग शुरू के छ सालों में और खासतौर पर पहले साल में तेजी से बढ़ता है। 10 साल के भीतर 80%  रोगियों के जोड़ों में स्थाई अपंगता आ ही जाती है। रोगियों के औसत जीवन में 3-7 वर्ष की कमी आती है। हृदय रोग, संक्रमण, आहार पथ में रक्तस्राव, औषधियां और कैंसर स्थिति को और जटिल बना देते हैं। कभी कभार रोगी अकस्मात ठीक भी हो जाता है।
75% रोगियों में उपचार से फायदा होता है। इन सारे तामझाम और इलाज के बावजूद 10% रोगीयों में तो गंभीर अक्षमता और अपंगता आ ही जाती है। निम्न पहलू खराब फलानुमान को इंगित करते हैं।
  • श्वेत नस्ल के रोगी, स्त्री या दोनों
  • जिन रोगियों में रियुमेटॉयड  नोड्यूल बने हों
  • रोग की शुरूआत अधिक उम्र में हुई हो
  • जिनके 20 या अधिक जोड़ों में तकलीफ हो
  • जिनका ई.एस.आर. ज्यादा हो
  • जिनमें रियुमेटॉयड  फेक्टर या Anti-CCP का स्तर अधिक हो
उपचार
रियुमेटॉयड आर्थ्राइटिस के उपचार में औषधियों और शल्य चिकित्सा के साथ कुछ साधारण उपाय जैसे आराम, स्वस्थ आहार आदि शामिल किये गये हैं। डिजीज मोडीफाइंग एंटीरिह्युमेटिक औषधियां (DMARDs) वास्तव में रोग के विकास और विस्तार को धीमा करते हैं और तकलीफ में आराम दिलाते हैं। इसलिए जैसे ही रोग का निदान हो, इन्हें शुरू कर दिया जाता है।
गंभीर रूप से प्रदाह-ग्रस्त जोड़ को आराम देना जरूरी है, क्योंकि यदि प्रदाह-ग्रस्त जोड़ कार्य करता रहेगा तो प्रदाह और तकलीफ बढ़ती रहेगी। जोड़ को नियमित आराम मिलने से दर्द में राहत मिलती है और रोग की सक्रिय अवस्था जल्दी ठीक होती है। जोड़ों को विश्राम देने और स्थिर करने के प्रयोजन से एक या कई जोड़ों पर स्प्लिंट लगाये जाते हैं। लेकिन जोड़ों के थोड़ी हरकत जरूरी होती है ताकि मांस-पेशियां कमजोर न पड़ें और जोड़ में जकड़न नहीं हो पायें।
औषधियों में नॉन-स्टीरॉयडल एंटीइन्फ्लेमेट्री दवाइयां (NSAIDs), डिजीज मोडीफाइंग एंटीरिह्युमेटिक औषधियां (DMARDs), कोर्टिकोस्टीरॉयड्स, इम्युनोसप्रेसिव दवाइयां आदि प्रमुख हैं। नई दवाओं में लेफ्लुनोमाइड, एनाकिनरा (an interleukin-1 receptor antagonist), ट्यूमर नेक्रोसिस फेक्टर इन्हिबीटर्स आदि प्रमुख हैं। रियुमेटॉयड आर्थ्राइटिस  में कई दवाइयों को संयुक्त रूप से देने का प्रचलन है।   
नॉन-स्टीरॉयडल एंटीइन्फ्लेमेट्री दवाइयां (NSAIDs)
रियुमेटॉयड आर्थ्राइटिस  में ये दवाइयां दर्द और प्रदाह में तो फायदा पहुँचाती है, लेकिन रोग के विकास, विस्तार और जोड़ के क्षयन को रोकने में प्रभावशून्य हैं। एस्पिरिन इस रोग में प्रयोग नहीं की जाती है। NSAIDs का पूरा असर आने में 2 हफ्ते लगते हैं। इसलिए इनकी मात्रा बढ़ाने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिये। NSAIDs साइक्लोऑक्सीजनेज (COX) एंजाइम्स का बाधित करते हैं और इस तरह प्रोस्टाग्लेंडिन्स के निर्माण को कम करते  हैं। कुछ प्रोस्टाग्लेंडिन्स COX-1 से नियंत्रित होते हैं, जो शरीर में कई महत्वपूर्ण कार्य (जैसे आमाशय की श्लेष्मा (Mucosa) को सुरक्षित रखना और बिंबाणुओं का चिपचिपापन कम करना) करते हैं। दूसरे प्रदाहकारी प्रोस्टाग्लेंडिन्स होते हैं जो COX-2 सी सहायता से निर्मित होते हैं। खास COX-2 इन्हिबीटर श्रेणी (जैसे सेलीकोक्सिब) की दवाइयों के आहार-पथ पर कुप्रभाव कम होते हैं। इसलिए दूसरे NSAIDs के पेप्टिक अल्सर और अपच के रोगी को नहीं देना चाहिये।
NSAIDs के दूसरे कुप्रभाव सिरदर्द, सूजन, भ्रम (Confusion), केंद्रीय नाड़ी तंत्र लक्षण, रक्तचाप बढ़ना, बिंबाणु (Platelets) की गतिविधि कम होना आदि हैं। इनके हृदय पर कोई स्पष्ट कुप्रभाव नहीं हैं। कभी कभार क्रियेटिनीन बढ़ सकता है या इंटरस्टिशियल नेफ्रोइटिस हो सकती है।
कोर्टिकोस्टिरॉयड्स – कोर्टिकोस्टिरॉयड्स अन्य औषधियों की अपेक्षा प्रदाह और दूसरी तकलीफों को शीघ्रता से को शांत करते हैं। ये हड्डियों के क्षरण को शिथिल करते हैं। परन्तु ये जोड़  को क्षतिग्रस्त होने से नहीं रोक पाते हैं और इनका असर धीरे धीरे कम होता जाता है। दूसरा कई बार इनको बंद करने के बाद रोग बहुत भड़क सकता है। इनके दीर्घकालीन कुप्रभाव को देखते हुए कई चिकित्सक इनके अन्य DMARDs का असर आने तक देते हैं।
कोर्टिकोस्टिरॉयड्स का प्रयोग तभी किया जाता है जब जोड़ बहुत क्षतिग्रस्त हो गये हो या रोग अन्य स्थानों में भी फैल गया हो। पेप्टिक अल्सर, रक्तचाप, डायबिटीज, ग्लूकोमा और तीव्र संक्रमण में इनका प्रयोग नहीं करें।
इन्ट्रा-आर्टिकुलर इंजेक्शन – जोड़ में कोर्टिकोस्टिरॉयड्स के डिपो इंजेक्शन लगाने से दर्द और सूजन में अस्थाई राहत मिलती है। ट्रायमसिनोलोन हेग्जासीटोनाइड लम्बे समय तक प्रदाह को नियंत्रण में रखता है। ट्रायमसिनोलोन सीटोनाइड और मिथाइल प्रेडनिसोलोन एसीटेट भी प्रभावी हैं। किसी भी जोड़ में स्टिरॉयड के इंजेक्शन साल में 3-4 बार से ज्यादा नहीं देने चाहिये, क्योंकि जोड़ के खराब होने का खतरा रहता है। हालांकि जोड़ में संक्रमण का खतरा 2% से कम रहता है, लेकिन जोड़ में 24 घंटे के बाद भी दर्द का होना संक्रमण को इंगित करता है।
हाइड्रोक्सीक्रोरोक्वीन – इस रोग के तकलीफ में राहत देती है। इसे शुरू करने से पहले और हर साल रोगी की आँख के फंडस और विजुअल फील्ड्स की जांच होनी चाहिये। यदि 9 महीने में कोई फायदा नहीं दिखे तो इसे बंद कर देना चाहिये।
सल्फासेलेजीन – यह इस रोग के लक्षण में फायदा करती है और रोग को बढ़ने से भी रोकती है। इसका असर आने में 3 महीने लगते हैं। इसकी एन्टेरिक कोटेड गोलियां दी जाती हैं। इसे शुरू करने के 1-2 हफ्ते के बाद और हर 12 हफ्ते में सी.बी.सी. करवा लेना चाहिये। हर 6 महीने में या जब भी मात्रा बढ़ानी हो तब एस.जी.पी.टी. और एस.जी.ओ.टी. करवा लेना चाहिये।
लेफ्युनोमाइड – यह नई दवा है और पाइरीमिडिन चयापचय के एक एंजाइम की गतिविधि में व्यवधान पैदा करती है। यह मीथोट्रेक्सेट जितनी ही असरदार है और न बेनमेरो का दमन करती है, न यकृत को नुकसान बहुँचाती है और न ही फेफड़ों में संक्रमण करती है।
मीथोट्रेक्सेट – यह फोलेट विरोधी ( (Folate Antagonist) है और अधिक मात्रा में देने पर रक्षाप्रणाली का दमन (Immunosuppressive) करती है। कम मात्रा में यह एंटीइन्फ्लेमेट्री के रूप में कार्य करती है। यह रियुमेटॉयड आर्थ्राइटिस में बहुत प्रभावी है और अपेक्षाकृत जल्दी (3 से 4 हफ्ते में) असर करती है। यकृत और वृक्क रोग में इसका प्रयोग बहुत सावधानी से करना चाहिये। इसके सेवन के दौरान मदिरा सेवन को टालना ही श्रेयस्कर है। इसके साथ 1 मिलिग्राम फोलेट प्रति दिन का सेवन करने से मीथोट्रेक्सेट के कुप्रभाव कम होते हैं। जिस दिन मीथोट्रेक्सेट दें, फोलेट नहीं दें।  हर 8 हफ्ते में सी.बी.सी., एस.जी.पी.टी., एस.जी.ओ.टी., एल्ब्युमिन, क्रियेटिनीन की जांच करनी चाहिये। यदि यकृत के एंजाइम्स का स्तर निरंतर दो गुना या अधिक बना रहे तो यकृत की बायोप्सी की जानी चाहिये और मीथोट्रेक्सेट बंद कर देनी चाहिये। मीथोट्रेक्सेट बंद करने के बाद कई बार रोग बहुत भड़क सकता है।  कई बार मीथोट्रेक्सेट के प्रयोग से रियुमेटॉयड  नोड्यूल्स बड़े हो सकते हैं।
इम्युनोमोड्यूलेट्री, साइटोटॉक्सिक और इम्युनोमोसप्रेसिव दवाइयाँ – ऐजाथायप्रीन, साइक्लोस्पोरीन (इम्युनोमोड्यूलेट्री) या साइक्लोफोस्फेमाइड का असर DMARDs के जैसा ही है। लेकिन ये दवाइयां विशेष तौर पर साइक्लोफोस्फेमाइड अधिक टॉक्सिक है। इसलिए DMARDs असर नहीं करे या स्टिरॉयड्स के प्रयोग से बचना हो तभी  इनका प्रयोग  किया जाना  चाहिये। इनका प्रयोग प्रायः तभी किया जाता है जब रोग जोड़ों के अलावा अन्य स्थानों में भी फैल गया हो। मेन्टेनेन्स के लिए ऐजाथायप्रीन की न्यूनतम मात्रा प्रयोग की जाती है। साइक्लोस्पोरीन कम मात्रा में अकेले या मीथोट्रेक्सेट के साथ दी जाती है। यह ऐजाथायप्रीन और साइक्लोफोस्फेमाइड से कम खतरनाक मानी गई है।
बॉयोलोजिक एजेंट्स - TNF-α antagonists को छोड़ कर बी-कोशिका या टी-कोशिका को लक्षित करने के लिए ऐबाटासेप्ट, रिटुक्सीमेब, ऐनाकिनरा आदि बॉयोलोजिक रेस्पॉन्स मोडीफायर्स प्रयोग किये जाते हैं।
टीएनएफ-अल्फा एंटागोनिस्ट – (जैसे ऐडालिमुमेब, इटानरसेप्ट और इन्फिक्सीमेब) जोड़ों को क्षतिग्रस्त होने से रोकते हैं। कुछ रोगियों में इनका अच्छा असर होता है। इन्हें मीथोट्रेक्सेट के साथ प्रयोग किया जाता है।

रियुमेटॉयड आर्थ्राइटिस – औषधियां
दवा
मात्रा
कुप्रभाव
डिजीज मोडीफाइंग एंटीरिह्युमेटिक औषधियां (DMARDs)
हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन (Hydroxychloroquine)


शुरू में 400-600 मिलिग्राम प्रति दिन भोजन या दूध के साथ दी जाती हैं। इसकी मात्रा धीरे-धीरे बढ़ाई जाती है जब तक वांछित लाभ नहीं मिल जाता है। 4-12 हफ्ते बाद मात्रा घटा कर 200-400 ग्राम प्रति दिन कर देते हैं।
मामूली डर्मेटाइटिस. मायोपेथी, कोर्निया में ओपेसिटी, कभी कभार रेटीना में स्थाई क्षयन
लेफ्यूनोमाइड (Leflunomide)
20 मिलिग्राम/दिन लेकिन यदि कोई कुप्रभाव हो तो मात्रा घटा कर 10 मिलिग्राम/दिन कर दें
त्वचा में रियेक्शन, यकृत रोग
मीथोट्रेक्सेट (Methotrexate)
7.5 मिलिग्राम हफ्ते में एक बार दें, धीरे-धीरे मात्रा 25 मिलिग्राम तक बढ़ाई जा सकती है। 20 मिलिग्राम/सप्ताह से ज्यादा मात्रा त्वचा के नीचे (SC) दी जा सकती है। 
यकृत में फाइब्रोसिस, उबकाई, बोनमेरो का दमन, मुँह में छाले, न्युमोनाइटिस
सल्फासेलेजीन (Sulfasalazine)


शुरू में 0.5 से 1 ग्राम प्रति दिन दी जाती हैं,  जिसे हर हफ्ते बढ़ा कर 2 ग्राम प्रति दिन तक ले जाते हैं। इस मात्रा को दो खुराक में विभाजित करके सुबह और शाम देना चाहिये। आधिकतम मात्रा 3 ग्राम प्रति दिन है।  
बोनमेरो का दमन, पाचन विकार, न्यूट्रोपीनिया, हीमोलाइसिस, हिपेटाइटिस
कोर्टिकोस्टीरॉयड्स (Corticosteroids)
प्रेडनिसोलोन (Prednisone)

7.5 मिलिग्राम दिन में एक बार
वजन बढ़ना, डायबिटीज, उच्च रक्तचाप, अस्थिक्षयन (Osteoporosis)
इम्युनोमोड्यूलेट्री, साइटोटॉक्सिक और इम्युनोमोसप्रेसिव दवाइयाँ
Azathioprine



1 मिलिग्राम/किलो (50–100 मिलिग्राम) दिन में एक या दो बार, 6-8 हफ्ते बाद 0.5 मिलिग्राम/किलो/दिन के हिसाब से मात्रा बढ़ाएं फिर हर 4 हफ्ते में मात्रा बढ़ाएँ।  अधिकतम मात्रा 2.5 मिलिग्राम/किलो/दिन है।
यकृत में खराबी, बोनमेरो का दमन, साइक्लोस्पोरिन के प्रयोग से कैंसर का खतरा, गुर्दे कमजार होना
Cyclophosphamide



2–3 मिलिग्राम/किलो रोजाना गोली के रूप में या आई.वी. पल्स थेरेपी: 0.75 ग्राम/मीटर2 हर माह (मात्रा को 1 ग्राम/मीटर2/माह के हिसाब से बढ़ा कर 6 माह तक दी जाती है यदि टी.एल.सी.  3000/µL से अधिक बना रहे), इसे 30-60 मिनट में धीरे-धीरे दिया जाता है। साथ में मुँह या आई.वी. द्वारा तरल दिये जाते हैं।
साइक्लोस्पोरीन (Cyclosporine)
50 मिलिग्राम प्रति दिन , अधिकतम मात्रा 1.75 मिलिग्राम /किलो सुबह शाम 
बायोलोजिक एजेन्ट
अबाटासेप्ट (Abatacept)
शुरू में 750 मिलिग्राम इंजेक्शन आइ.वी. दिया जाता है, फिर 2 हफ्ते बाद, 4 हफ्ते बाद और फिर हर 4 हफ्ते बाद इंजेक्शन दिया जाता है।
फेफड़े में खराबी संक्रमण का जोखिम, सिरदर्द, यू.आर.आई., गले में खारिश, उबकाई
रिटुक्सीमेब (Rituximab)
1 ग्राम इंजेक्शन आइ.वी. दिया जाता है, फिर 2 हफ्ते बाद, 4 हफ्ते बाद और फिर हर 4 हफ्ते बाद एक इंजेक्शन दिया जाता है।
इंजेक्शन देते समय – इंजेक्शन की जगह पर चकत्ते बन जाना, कमर दर्द, बुखार, उच्च रक्तचाप या रक्तचाप कम हो जाना,  संक्रमण या कैंसर का खतरा, बोनमेरो का दमन
IL-1 रिसेप्टर विरोधी
ऐनाकिनरा  (Anakinra)
100 मिलिग्राम इंजेक्शन रोज त्वचा के नीचे (SC) लगाये    
इंजेक्शन की जगह रियेक्शन, रक्षाप्रणाली और बोनमेरो का दमन
टी एन एफ - α विरोधी
एडालिमुमेब (Adalimumab)
40 मिलिग्राम का इंजेक्शन रोज त्वचा के नीचे (SC) हर 1 या 2 हफ्ते में लगावें
संक्रमण (संभवतः टी.बी.) या कैंसर का जोखम, लिम्फोमा, बोनमेरो दमन, यकृत में खराबी, नाड़ी विकार
इटानरसेप्ट (Etanercept)
25 मिलिग्राम का इंजेक्शन रोज त्वचा के नीचे सप्ताह में दो बार या 50 मिलिग्राम का इंजेक्शन रोज त्वचा के नीचे प्रति सप्ताह  
इन्फिक्सीमेब (Infliximab)


3 मिलिग्राम/किलो सेलाइन में मिला कर आइ.वी. दी जाती है। इसके 2 और 6 सप्ताह बाद दूसरी और तीसरी ड्रिप दी जाती है। फिर हर 8 हफ्ते में एक ड्रिप दी जाती है। (मात्रा 10 मिलिग्राम किलो के हिसाब बढ़ाई जा सकती है) 


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