कहने को तो आप कह सकते हैं कि भला कोयले जैसी निर्जीव चीज का आध्यात्म या दर्शन से क्या लेना-देना हो सकता है? लेकिन हमारे देश में गुणीजनों की कमी नहीं है। वे जल, थल व नभ में किसी भी चीज की अजब-गजब गूढ़ से गूढ़ मीमांसा कर सकते हैं। वह भी डंके की चोट पर। ऐसे में उस मामले में तो चर्चा और जरूरी हो जाती है, जिसमें बड़े-बड़े सफेदपोश स्वनाम धन्य लोगों पर कालिख लगने का खतरा मंडरा रहा हो। वे बेचारे बचे-बचे घूम रहे हैं। सफाई दे रहे हैं। कुछ-कुछ बाल कन्हैया के भाव में। वे तो माखन चोरी के आरोप लगने पर बोले थे, ‘मैया, मैं नहीं माखन खायो’। किसी को आज तक पता नहीं है कि मैया ने माखनचोर की सफाई मानी थी, या नहीं। लेकिन वे बड़े थे, सो उनकी चोरी भी गुणगान योग्य मानी गई। श्रद्धाभाव से माखनचोर का नाम लिया जाता है। सभी आस्तिक जन उनके चौर्य कर्मों के भजन भी गाते हैं। लेकिन, सवा अरब वाले लोकतांत्रिक देश में भाई लोग कुछ कैबिनेट मंत्रियों को भी बख्स नहीं रहे। महज शक के आधार पर उन्हें कोयला चोर कहे जा रहे है। वे बार-बार कह रहे हैं। संसद से सड़क तक बवाल काट रहे हैं।
टीवी मंचों से लेकर पंचायत की चौपालों तक बहस होने लगी है। यह चर्चा चल पड़ी कि किसने क्या-क्या खा डाला? कोयला जैसी नाचीज के लिए कोहराम मचा है। वे कालिख लगने से बच रहे हैं। जबकि दूसरे लोग मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहते। चाहते हैं कि कोयले की कालिख इतनी पोत दी जाए कि सत्तारूढ़ दल की कम से कम दो पीढ़ियां कालिखदार ही पैदा हों। यही रस्साकसी जारी है। उस दिन कस्बे की पंचायत में स्थानीय मुद्दों के बाद जब फुर्सत मिली, तो राष्टÑीय चिंतन पर चर्चा शुरू हुई। बस, फिर क्या पंचों की जुबान पर कोयला ऐसा चढ़ा कि खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था। किसी ने कहा कि कन्हैया जी ने बचपन में जरा-सा माखन चुरा लिया था, तो युगों बाद भी माखनचोर कहलाते हैं। लेकिन इनको कोयलाचोर कहलाने में इतनी शर्म क्यों आ रही है?
इन चुने हुए लोकतांत्रिक देवताओं ने तो पता नहीं कितने अरब रुपए का कोयला खा डाला। लेकिन चाहते हैं कि कोई इन्हें कोयलाचोर तक न कहे। कितना घनघोर कलयुग है। यह चर्चा चाय-पकोड़ों के साथ जारी थी। इसी बीच वहां एक भगवाधारी संतनुमा व्यक्ति पधार गए। हल्ला मचा था कि दस साल पहले भागकर संत बने, फलां महाशय लौटकर आए हैं। वह भी खांटी संत के चोले में। कुछ लोग कानाफूसी कर कह रहे थे कि बेचारे को प्रेम में ऐसा धोखा मिला था कि सीधे पहाड़ों की ओर भाग गया था। अब मोह-माया छोड़ने का उपदेश देता रहता है।
संत जी ने आते ही कहा, आप लोग चर्चा जारी रखिए। कस्बे के गुणीजनों ने जानकारी दी कि वे लोग कोयले की सियासत पर बात कर रहे हैं। संत जी भी मशविरे में शामिल हो गए। उन्होंने कोयले पर आध्यात्म की चादर बिछानी शुरू की। कहा आप लोगों को पॉजटिव सोच रखनी चाहिए। देखिए, दशकों से कोयले का खनन जारी है। लाखों टन कोयला ईमानदारी से भी निकाला गया होगा। इसे क्यों नहीं याद करते? नकारात्मक पक्ष पर ज्यादा ऊर्जा लगाने की क्या जरूरत है? कोयला, बेचारा हजारों साल धरती के गर्भ में दबा रहा। इतने त्याग और बलिदान के बाद कहीं जाकर खरा कोयला बन पाया। मान लीजिए कि इसकी यही गति होनी थी। इसके लिए बस माध्यम कोई बन गया, तो उस बेचारे का क्या दोष? इसी तरह एक भले चंगे नेता पर ‘चारा’ खाने का कलंक लगाया था। अरे! चारा था, तो उसे किसी के पेट में जाना ही था। मान लीजिए, इसमें कुछ हिस्सा लोकतंत्र के किसी गण या देवता के पास चला गया, तो क्या आफत है? वैसे भी भारत की धरती धैर्य, संतोष, चुप्पी और परम शांति के लिए जानी जाती है। दुनिया में सब नश्वर है। आप, हम और कोयला भी। ऐसे में जो चला गया, जो लुट गया, उसके लिए क्या रोना। संत जी ने कोयले के मामले में आध्यात्म का रंग चढ़ाया, तो कुछ युवा बहस करने पर उतारु हो गए।
एक बोला, आप संत बनने के पहले यहां बहुत कुछ कर रहे थे। हमें सब पता है। यह कौन-सा संतपना है कि आप कोयले की कालिख पर चुप रहने को कहते हैं। उन्होंने चारा खाया, हम चुप रहे। उन्होंने किसानों की उपजाऊ जमीन हड़पी, हम चुप रहे। उन्होंने हेरा-फेरी से चुनाव जीते, हम चुप रहे। आख्रिर यह चुपिस्तान कहां थमेगा? महाराज माफ करना। आपने एक मौकापरस्त लड़की से धोखा खाया, तो जीवन से भाग गए। संत बन गए। नाम बदल डाला। पहचान बदल डाली। आपका यह रणछोड़ आध्यात्म किस काम का?
संत जी गुस्से को चुपचाप झेलते रहे। अंत में मुस्कराकर बोले। वत्स, इतना गुस्सा न करो कि सब कोयला हो जाए। अगर कोयला बने, तो वे तुम्हें भी बेभाव बेच डालेंगे। इस वाणी से गुस्साया युवा कुछ अचकचाया, तो संत जी ने कहा, ये कलियुग नहीं। कोयला युग है। सो, यहां कालिख बटोरने की होड़ है। इसीलिए तैयार रहो और इंतजार करो कि लोकतंत्र के ये गण अभी क्या-क्या और निगल जाते हैं। क्योंकि 65 साल में इनका हाजमा काफी उम्दा हो गया है। किसी ने एक सवाल और दागा, तो संत जी ने हाथ-जोड़ लिए। बोले, कोयला युग तो अभी-अभी शुरू हुआ है, इसके बारे में फिर कभी कालिखभरी चर्चा करेंगे।
साभारः वीरेंद्र सेंगर (कार्यकारी संपादक, डीएलए)।
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