खाप – वोटतंत्र का श्राप
हरियाणा के पिछले एक महीने में 18 महिलाओं, जिनमें
नाबालिग भी शामिल हैं, के साथ बलात्कार की घटनाएँ पुलिस द्वारा दर्ज की गई हैं।
इनसे हरियाणा सरकार की इतनी किरकिरी हुई कि सोनिया गाँधी जब हरियाणा गई तो एक
बलात्कार-पीड़ित दलित महिला से मिलने अस्पताल जा पहुँची। लेकिन उन्होने जब हरियाणा
छोड़ते समय पत्रकारों से बात की तो बलात्कार की औपचारिक आलोचना के साथ ही यह भी कह
गईं कि देशभर में इस तरह की घटनाएँ बढ़ रही हैं। अपराधियों को सजा, पीड़ितों को
न्याय और कानून व्यस्था में सुधार के बजाए अपनी हरियाणा सरकार का बचाव उनकी
प्राथमिकता बन गई। गोया महिलाओं के साथ अपराध बढ़ रहे हैं तो इसे न तो हरियाणा
सरकार और न ही केन्द्र सरकार की कोई जिम्मेवारी है, न इसे उनकी असफ़लता के तौर पर
देखा जाना चाहिए।
जब
बलात्कार-पीड़िता से मिलने के बाद इस तरह का असंवेदनशील बयान दिया गया तो बलात्कारी
से मिल लेने के बाद क्या होता? संभव है कि तब वही बयान होता जो हरियाणा की खाप
पंचायतों ने दिया – “लड़कियाँ पहले की अपेक्षा अब जल्दी जवान हो रही हैं
इसलिए उनकी जल्दी शादी कर दी जानी चाहिए – सरकार को विवाह की न्यूनतम उम्र सीमा को
घटाकर पंद्रह साल कर देना चाहिए।”
यह हरियाणा,
उत्तर प्रदेश और राजस्थान की खाप-राजनीति का ही असर है कि बलात्कारियों को
यथाशीघ्र सजा सुनिश्चित करने के बजाए ऐसी घटनाओं की वर्ष-दर-वर्ष बढ़ती संख्या को
सामान्य रुप से लेने की कोशिश, उस राजनीतिक हस्ती को करनी पड़ी जिसे विश्व की छठवें
नंबर की सबसे शक्तिशाली महिला घोषित किया गया है।
हद तो तब हो गई जब उन्हीं की पार्टी के नेताओं ने न
सिर्फ खुलेआम खाप की बातों का समर्थन किया बल्कि विपक्ष ने पूरी तन्मयता से खापों
की बात राज्यपाल तक पहुँचाने में शीघ्रता दिखाई। खापों के डर से उत्तर प्रदेश से
राजस्थान, हरियाणा से हिमाचल प्रदेश तक के सत्ताधारी और विपक्ष के नेता समय-समय पर
खापों के दकियानूसीपन का समर्थन करते देखे जाते हैं।
आजादी के पैंसठ
साल बाद भी जिस देश के अधिकांश ग्राम पंचायतों में ग्राम सभा की बैठकें नहीं होती,
जातीय राजनीति करनेवाले करनेवाले अधिकांश लोग बिना दहेज के अपनी ही जाति की बेटी
को अपनी बहू नहीं बनाते, किसी पंचायत सरकार के काम और खर्च का हिसाब न तो जनता ही
एकजुट होकर माँगती है, न ही मिलता है, ऐसी परिस्थिति में आखिर यह कौन सी बात है
जिसकी वजह से एक बड़े भू-भाग में हिन्दू से मुस्लिम तक खाप पंचायतों का बोलबाला है।
कभी ये खाप
पंचायतें एक स्त्री को कुछ साल से साथ रह रहे पति को छोड़कर अपने पुराने पति के पास
लौट जाने का फरमान सुनाती हैं, तो कभी बच्चों और प्रेमी-पति को छोड़्कर पिता की
मर्जी से दूसरी शादी कर लेने का। इन खापों की अधिकांश चिंताएं स्त्रियों को लेकर
ही होती हैं। स्थानीय राजनेता खुलेआम इन खापों का समर्थन करते हैं तो राष्ट्रीय
राजनेता कुटनीतिक रूप से या मौन से।
इस क्षेत्र में
अधिकांश महिलाएं अभी जागरुकता की पहली सीढियों पर ही हैं और समाज मुख्यतः
पुरुषवादी ही है। अलग-अलग जातियों और समुदायों का घनत्व कहीं न कहीं ज्यादा होता
है। ऐसी जगहों पर ये समूह पारंपरिक रूप से अपनी समस्याओं को खाप पंचायतों में
सुलझाते थे। वर्तमान में ऐसी पंचायतों का नेतृत्व ऐसे लोग करते हैं जो या तो दबंग
प्रवृत्ति के होते हैं या पारंपरिक रुप से धनाढ्य रहे हैं।
लोकतंत्र का
तकाजा है कि राजनेताओं के लिए यह जरूरी हो जाता है कि कम-से-कम मेहनत में ज्यादा
से ज्यादा वोट हासिल किए जाएँ। यही तकाजा राजनेताओं को खापों का समर्थन करने पर मजबूर
कर भारतीय लोकतंत्र को वोटतंत्र का जनाजा बना देता है। राजनेताओं को एक-एक व्यक्ति से अलग-अलग मिलने के बजाए खाप के
चंद नेताओं से मिलना और उन्हें अपने पक्ष में करना आसान होता है। बाद में खाप के
ये नेता राजनेताओं के पक्ष-विपक्ष में सामुहिक या जातीय गोलबंदी का काम करते हैं। बदले
में राजनेता ठेकेदारी-पट्टेदारी आदि के जरिए इन दबंगों के व्यक्तिगत हित मदद करते
हैं और सामुहिक हित सामूहित कार्यों (ज्यादातर धार्मिक या आडंबरकारी आयोजनों) में
चंदे देकर करते हैं। यह एक अति-सरलीकृत विवेचना है, उम्मीद है पाठकगण लेखक से ज्यादा
समझदार होंगे ।
यह मजबुरी
राष्ट्रीय और स्थानीय नेताओं को इन खापों को बनाए रखने का कारण बनती है। दुसरी तरफ
खापों को अपने आस-पास के माहौल पर वर्चस्व बनाए रखने में मदद करती है, विजयी
राजनेता के समर्थक अपने क्षेत्र में दुसरी जातियों समुदायों पर वर्चस्व बनाये रखने
में नेताजी की मदद भी लेते हैं। कभी-कभी तो ये राजनेता खापों के बीच विवादो में
सुलहकर्ता की मुख भुमिका में भी रहते हैं। इस तरह तैयार होता है एक लोकताँत्रिक
राजनेता और खाप का ऐसा गठजोड़ जो एक-दुसरे को कुछ भी करने की छुट दे देता है।
सर्वोच्च न्यायालय इन खाप पंचायतों और उनके द्वारा
समय-समय पर जारी होनेवाले फरमानों को असंवैधानिक करार दे चुकी है, यहां तक कि कई
मौकों पर खापों को अवैध करार देते हुए उन्हें सख्ती से बंद करने को कहा है। इसके
बावजूद खाप पंचायतें न केवल तालीबानी फरमान जारी करती है बल्की स्थानीय से लेकर
राष्ट्रीय मीडिया के समक्ष उपस्थित भी होती है। राजनेता मजबुर है कि समर्थन करना
छोड़ नहीं सकते। आलोचना होने पर केन्द्र राज्यों पर और राज्य केन्द्र पर कुटनीतिक
दार्शनिकता की गुगली मारते हैं। देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के सर्वोच्च नेता
का बयान खापों की आवश्यकता का नतीजा भले ही रहा हो लेकिन वोट के लिए किसी भी हद तक
नीचे गिरने का सिलसिला ऐसे ही चलता रहा तो कानून का राज नहीं रह पायेगा। रह जायेगा
तो केवल खापों का राज जो आधी आबादी के गैरतपूर्ण अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा
देगा।
कृपया अपनी प्रतिक्रिया हमें जरुर दें..
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