13.10.12

न तो वोट पेड़ पर लगते हैं...और न ही जनता की याददाश्त कमजोर है


 केन्द्र सरकार के कड़े फैसलों के बाद देशभर की दो संसदीय सीटों पश्चिम बंगाल की जांगीपुर और उत्तराखंड की टिहरी सीट पर देशभर की निगाहें थे। जांगीपुर में देश के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के बेटे और कांग्रेस प्रत्य़ाशी अभिजीत मुखर्जी की किस्मत दांव पर थी तो टिहरी में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के बेटे और कांग्रेस प्रत्याशी साकेत बहुगुणा के भाग्य के साथ ही सीएम बहुगुणा की प्रतिष्ठा भी दांव पर थी...लेकिन दोनों ही उपचुनाव के नतीजे कांग्रेस के लिए मायूसी ही लेकर आए। भले ही जांगीपुर में कांग्रेस ने जीत दर्ज की लेकिन जीत का अंतर कांग्रेस के माथे पर बल लाने के लिए काफी है...वो भी तब जब टीएमसी ने जांगीपुर सीट पर अपना प्रत्याशी नहीं उतारा था। जिस सीट पर 2009 में कांग्रेस के टिकट पर प्रणव मुखर्जी करीब सवा लाख से अधिक मतों से जीते हों...उस सीट पर उनका बेटा सिर्फ 2536 वोटों से ही जीत दर्ज कर पाया। उत्तराखंड के टिहरी की अगर बात करें तो इस सीट पर अपने बेटे साकेत के लिए तमाम विरोधों और विवादों के बीच सीएम आलाकमान से जीत की गारंटी के साथ टिकट लेकर आए थे...और इसके लिए मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने कोई कसर भी नहीं छोड़ी थी। लेकिन जब ईवीएम ने नतीजे बाहर फेंके तो मुख्यमंत्री बहुगुणा के चेहरे का रंग भी उड़ गया। भाजपा प्रत्याशी महारानी राज्य लक्ष्मी शाह ने कांग्रेस प्रत्याशी साकेत बहुगुणा को 22 हजार 431 वोट से करारी शिकस्त दी। पश्चिम बंगाल के जांगीपुर की बात हो या फिर उत्तराखंड की टिहरी की दोनों ही सीटों पर जनता ने कांग्रेस को बता दिया कि न तो वोट पेड़ पर लगते हैं और न ही जनता की याददाश्त कमजोर होती है...जो कि सरकार के घोटालों को जल्द भूल जाए। यहां पर हमारे प्रधानमंत्री और गृहमंत्री का बयान याद दिलाना चाहूंग...जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने देश के नाम संबोधन में कहा था कि- पैसे पेड़ पर नहीं लगते...साथ ही हमारे गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने कोयला घोटाले पर कहा था कि- बफोर्स की तरह जनता कोयला घोटाला भी भूल जाएगी। इसके साथ ही इन दो उपचुनाव की नतीजों के पीछे जिसका सबसे बड़ा हाथ है वो शायद रसोई गैस सिलेंडर है...जिसे सरकार के एक फैसले ने आम आदमी की पहुंच से दूर कर दिया। पेट्रोल के दाम या खाद्य सामग्री के दाम बढ़ते हैं तो जनता को उतनी तकलीफ नहीं होती क्योंकि ये चीजें महंगी भले ही हो जाएं...लेकिन जनता को आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं...जबकि एक - एक गैस सिलेंडर के लिए आमजन को नाको चने चबाने पड़ते हैं...और उस पर भी सिलेंडर के दाम बढ़ाने के साथ ही रसोई गैस सिलेंडर का कोटा फिक्स करने के केन्द्र की कांग्रेस नीत सरकार के फैसले ने पहले से ही महंगाई से त्रस्त आम जनता के गुस्से में घी का काम किया और नतीजा सबके सामने है। उत्तराखंड में जहां राज्य मे कांग्रेस सरकार होने के बाद भी कांग्रेस को करारी हार झेलनी पड़ी...वहीं पश्चिम बंगाल में कांग्रेस बमुश्किल हारते हारते बची। उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल के उपचुनाव भले ही केन्द्र की यूपीए सरकार के लिए सदन में संख्या के लिहाज से बहुत मायने नहीं रखते हों...लेकिन देश में केन्द्र सरकार के फैसलों के बाद बने माहौल का असर इन दोनों उपचुनाव में साफ देखने को मिला है। जिसका बड़ा असर नवंबर में हिमाचल प्रदेश औऱ दिसंबर में गुजरात में होने वाले विधानसभा चुनाव में साफ तौर पर देखने को मिलेगा। दोनों ही राज्यों में वर्तमान में भाजपा की सरकार है...और कांग्रेस दोनों ही राज्यों में वापसी का दावा कर रही है...लेकिन कांग्रेस की राह कितनी आसान है इन दो उपचुनाव के नतीजों ने इसका आभास भी करा दिया है। बहरहाल जनता ने उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल के उपचुनाव में जता दिया कि कहीं न कहीं केन्द्र के फैसले के खिलाफ ये उसका गुस्सा है...जिसे सही वक्त पर सरकार ने नहीं पहचाना तो आने वाले चुनावों में कांग्रेस का सफाया हो सकता है। इसका ये मतलब बिल्कुल भी नहीं कि जनता का रूझान देश के मुख्य विपक्षी दल भाजपा या किसी दूसरी पार्टी की तरफ है...क्योंकि अगर जनता भाजपा के साथ होती तो इन फैसलों के खिलाफ खुलकर मतदान करती। उत्तराखंड की टिहर सीट पर हुए उपचुनाव में टिहरी की कुल 43 फीसदी जनता वोट देने पोलिंग बूथ तक पहुंची तो पश्चिम बंगाल के जांगीपुर सीट पर ये आंकड़ा 60 फीसदी रहा। हालांकि 60 फीसदी मतदान ठीक ठाक माना जाता रहा है...लेकिन इस सीट पर 2009 में 84.71 प्रतिशत मतदान हुआ था...जिसके मुकाबले इसे ठीक ठाक तो नहीं माना जा सकता। इसका सीधा मतलब ये निकलता है कि जनता ये समझ चुकी है कि सत्ता में कोई भी रहे न तो भ्रष्टाचार और घोटाले रूकेंगे और न ही आमजन की मुश्किलें कम होंगी...इसलिए शायद उत्तराखंड की टिहरी सीट पर 57 फीसदी जनता तो पश्चिम बंगाल की जांगीपुर सीट पर 40 फीसदी जनता पोलिंग बूथ तक पहुंची ही नहीं। ये न सिर्फ दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए बल्कि उन राजनीतिक दलों के लिए खतरे की घंटी है जो ये सोचते हैं कि वोट पेड़ पर लगते हैं और जनता की याददाश्त भी कमजोर होती है। खैर समझने वालों के लिए ईशारा काफी होता है...और जनता ने ईशारा कर दिया है...देखना ये होगा कि कितने समझदार ये ईशारा समझते हैं।

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