18.10.12

तुम सब जगह हो, मलाला!


सच्चे जज्बे और जुनून का पर्याय बन गई है, 14 वर्षीय मलाला। वह पाकिस्तान के स्वात घाटी की रहने वाली है। कट्टरवादी तालिबान आताताइयों की गोलियों ने उसे लहूलुहान कर डाला है। वह जीवन- मौत के बीच पिछले 9 दिनों से लगातार संघर्ष कर रही है। इन दिनों उसका इलाज ब्रिटेन के एक नामी अस्पताल में चल रहा है। नन्हीं मलाला के जीवन के लिए मुल्क के करोड़ों हाथ रोज दुआओं के लिए उठ रहे हैं। तालिबानों के खूनी कारनामे से वे भी आहत हो गए हैं, जो कहीं ना कहीं इन कट्टरपंथियों के लिए अपने अंदर नरम कोना रखते आए हैं। इतनी कम उम्र में यह लड़की अपनी मुहिम के लिए मौत से भी नहीं डरी। इसी के चलते ताकतवर तालिबान इस छोटी सी लड़की से डरे, तो उसकी जान लेने के लिए उतारू हो गए। लेकिन आतंकी गोलियां झेलकर मलाला ने गफलत में उनींदे मुल्क को झकझोर कर रख दिया है। अब मलाला केवल पाकिस्तान की ही नहीं रही। दुनिया में जहां भी अमानुषिक कट्टरपंथ के खिलाफ संघर्ष चल रहा है, वहां के लिए मलाला की पहल उम्मीद की एक किरण बन गई है। ऐसे में मलाला सबकी अपनी हो गई है। इस्लामाबाद से महज 160 किमी दूर है, खूबसूरत स्वात घाटी। किसी दौर में यह घाटी अपनी प्राकृतिक सुंदरता के कारण पर्यटकों को बहुत लुभाती थी। लेकिन अब इस इलाके में तालिबानों का बोल-बाला है। इनके दबदबे के चलते यहां पर पाक की हुकूमत की नहीं चल पाती। बंदूकधारी तालिबान ही स्वात घाटी के मालिक बन बैठे हैं। ये लोग ‘शरीया कानून’ के नाम पर महिलाओं को घर के बाहर नहीं निकलने देना चाहते। यहां तक कि इन्होंने बालिकाओं के स्कूल भी तोड़ डाले हैं। खौफ पैदा करने के लिए कईयों को गोलियों का शिकार भी बना चुके हैं। इस बर्बरता के बावजूद यहां पर प्रतिरोध की कोशिशें जारी हैं। एक ऐसी ही बहादुराना कोशिश मलाला ने 3 साल पहले शुरू की थी। उस समय उसकी उम्र महज 11 साल ही थी। उसने तालिबानियों के फरमान के बाद भी कह दिया था कि वह जान दे देगी, लेकिन स्कूल जाना बंद नहीं करेगी। धीरे-धीरे मलाला ने दूसरी लड़कियों को पढ़ाई जारी रखने के लिए तैयार किया। देखते-देखते उसकी मुहिम रंग लाती गई। तालिबानों ने तमाम धमकी दी। लेकिन स्वात घाटी के कई स्कूलों में बालिकाएं जाती रहीं। क्योंकि इन सबकी प्रेरणा स्रोत बन गई थी, मलाला। बीबीसी की उर्दू सेवा ने उसकी डायरी प्रसारित करनी शुरू कर दी थी। इस डायरी ने उसे पूरे इस्लामिक जगत में खासतौर पर चर्चित कर डाला। लोग यह नहीं समझ पा रहे थे कि तालिबानों के गढ़ स्वात घाटी में एक छोटी सी लड़की कैसे इन कट्टरपंथियों को रोज चुनौती दे देती है? जब तालिबानों की धमकियों से वह लड़की नहीं डरी, तो फिर तालिबानों ने नन्हीं जान के जिस्म में 2 गोलियां उतार दीं। पूरा मुल्क मलाला के लिए दुआ कर रहा है। जनभावनाओं का उबाल देखकर पाक की सरकार भी सहम गई है। उसने घायल मलाला के इलाज के लिए बेहतर से बेहतर प्रबंध कर दिए हैं। हैरान करने वाली बात तो यह है कि इस देश के करोड़ों वयस्क कह रहे हैं कि मलाला, तो सबसे बड़ी ‘मर्द’ निकली। पिछले साल सरकार ने उसे पहला ‘नेशनल यूथ पीस अवार्ड’ दे दिया था। इसके पहले नोबल पुरस्कार विजेता डेसमंड टुटु ने मलाला के जज्बे को सलाम करने के लिए उसे ‘इंटरनेशनल चिल्ड्रेन पीस अवार्ड’ के लिए नामित किया था। इससे मलाला एक जानी मानी शख्सियत बन गई थी। तालिबानियों ने 9 अक्टूबर को स्कूल की बस में उसे गोलियां मार दीं। अब पूरा मुल्क इन कट्टर पंथियों के खिलाफ अंगड़ाई लेता नजर आ रहा है, तो वे खंभा नोचने को दौड़ रहे हैं। उन्हें समझ में नहीं आ रहा कि मुल्क के आवाम को अचानक क्या हो गया है? वे नन्हीं बच्ची को गोलियां मारने की जिम्मेदारी तो ले रहे हैं, लेकिन सफाई में यही कह रहे हैं कि यह लड़की ‘शरीया कानून’ के खिलाफ खड़ी हो गई थी। ऐसे में उन्हें मजबूरन इसे गोलियां मारनी पड़ीं। ये लोग अब धमकी दे रहे हैं कि यह लड़की बच भी गई, तो वे उसे दोबारा गोलियों से भून देंगे। लेकिन अब बात दूर तक चली गई है। स्वात घाटी की तमाम छात्राओं ने कहना शुरू कर दिया है कि अब उनमें से हर एक लड़की, मलाला है। बीबीसी के एक संवाददाता ने रिपोर्ट दी है कि स्वात घाटी में कई छात्राएं अपने दुपट्टों में एक नारा लिख रही हैं, ‘हम सब मलाला हैं।’ सरकार ने भी लड़कियों के इस हौसले को प्रोत्साहन देने के लिए कई स्तरों पर कवायद तेज की है। सुरक्षा बल तैनात कर दिए गए हैं। स्थानीय लोगों की नाराजगी के चलते हथियारबंद तालिबानी छिपते घूम रहे हैं। क्योंकि मलाला की बहादुरी ने अब यहां गोलियों के खौफ को कुछ कम कर दिया है। गलियों में कई लोग कह रहे हैं कि छोटी सी लड़की मलाला ने हमे झकझोर दिया है। यही कि हौसला बना लें, तो तालिबानियों की गोलियां दम तोड़ देंगी। भारत जैसे मुल्कों में भी धर्म के नाम पर कट्टरवादी जमातें जब-तब उधम करने से नहीं चूकतीं। कभी मंदिर-मस्जिद के नाम पर, तो कभी अजब-गजब मुद्दों पर फसाद किए जाते रहे हैं। दशकों से जम्मू-कश्मीर का अमन छीन लिया गया है। यहां भी कट्टरवादी तत्व कई बार धर्म के नाम पर लोगों के जज्बात भड़काते रहते हैं। इसके चलते घाटी की आर्थिक तस्वीर भी बिगड़ी है। लेकिन ऐसे कठिन दौरों में भी कोई ना कोई उम्मीद की लौ दिखाई पड़ने लगती है। भारत में भी कई ऐसे दौर आए हैं, जिनमें यह लगने लगा था कि हालात शायद ही ठीक हों। इंदिरा गांधी सरकार के दौर में ‘इमरजेंसी’ लगा दी गई थी। स्वतंत्र अभिव्यक्ति का गला घोटने की पूरी कोशिश हुई थी। माहौल में नाउम्मीदी का धुप अंधेरा छाने लगा था। लेकिन सरकार की तानाशाही ज्यादा नहीं चल पाई। क्योंकि जगह-जगह देश में ‘मलाला सिंड्रोम’ का जज्बा पैदा हुआ, तो आइरन लेडी कही जाने वाली इंदिरा गांधी को भी बहुत बुरे दिन देखने पड़े थे। याद कीजिए, 90 के दशक में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक गैर पढ़े-लिखे किसान ने अपने जज्बे के चलते राज्य और केंद्र सरकार को पानी पिला दिया था। इस शख्स का नाम था, महेंद्र सिंह टिकैत। टिकैत के किसान आंदोलन ने उत्तर भारत के किसानों में एक नई एकजुटता पैदा कर दी थी। ऐसे में सरकार को किसान हितों की परवाह करनी पड़ी। क्योंकि गांव-गांव में तमाम किसान ‘टिकैत’ बन गए थे। यानि वे अपने अधिकारों के लिए उठ खड़े हुए थे। छत्तीसगढ़ के क्रांतिकारी मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी के बलिदान को कौन भुला सकता है? उन्होंने मजदूरों के लिए अपनी जान दे दी थी। शराब माफिया की गोलियों ने उन्हें शहीद कर डाला था। लेकिन मरने के बाद भी नियोगी की मुहिम लंबे अरसे तक जीवंत रही। ताजा मामला हरियाणा के एक खांटी ईमानदार और जुझारू आईएएस अफसर अशोक खेमका का है। इस अधिकारी ने सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ड वाड्रा की जमीनों के सौदों की जांच कराने का साहस कर लिया। ट्रांसफर के रूप में उसे कीमत भी चुकानी पड़ी। लेकिन 21 साल की नौकरी में खेमका को 42 बार ट्रांसफर के दंश झेलने पड़े हैं। क्योंकि किसी भी सरकार को खेमका की खांटी ईमानदारी रास नहीं आती रही है। दरअसल, इन सबमें ‘मलाला प्रवृति’ के ही कहीं ना कहीं दिग्दिर्शन हो जाते हैं। इसीलिए कह सकते हैं कि कोई भी मुल्क हो, जहां भी गैर-इंसाफी है, वहां मुकाबले के लिए ‘मलाला जज्बा’ किसी ना किसी रूप में सामने आ ही जाता है। कहा जा सकता है कि ‘मलाला जिजीविषा’ मरा नहीं करती। वीरेंद्र सेंगर (कार्यकारी संपादक), डीएलए।

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