दो
पत्रकारों को कथित धन उगाही
के आरोप
में गिरफ़्तार
किया गया
और दो
दिनी पुलिस
रिमांड पर
भेज दिया
गया ! धन
उगाही के
आरोप में
देश का
एक बड़ा
इलेक्ट्रोनिक {z news}मिडिया पुलिस
के पेंच
में फंस
गया है
! मुझे
अमिताभ बच्चन
की डान
फिल्म के
उस गीत
की लाइने
याद आ
रही है
जिसमे किशोर
दा ने
कहा है......जो है
शिकारी उन्हें
खेल हम
सीखाएँगे,अपने
ही जाल
में शिकारी
फंस जायेंगे
! कुछ ऐसे
ही शिकारी
निकले नवीन
जिंदल !
पत्रकार
बिरादरी बँट
गई है!आमतौर पर
पत्रकारों के संपन्न समुदाय का
तर्क है
कि ये
प्रेस की
आज़ादी का
मामला है
और इसकी
जाँच पत्रकारों
के ही
किसी संगठन
को करनी
चाहिए. जबकि
वंचित पत्रकारों
का समुदाय
इस मामले
में बहुत
से सवाल
उठा रहा
है !कईयों
ने सरकार
और उसकी
उस दादागिरी
पर भी
सवाल खड़े
कर दिए
है जिसमे
मिडिया की
स्वतंत्रता खतरे में पड़ती दिख
रही है
!इन दोनों
के बीच
भी एक
वर्ग है
वो संपन्न
है और
वंचित दिखना
चाहता है.
वो दोनों
नावों में
सवार है!पत्रकार और
उनके संस्थान
को इस
बात से
इनकार नहीं
है कि
उन्होंने उद्योगपति
से मोलभाव
किया था!
उनका तर्क
है कि
वे उद्योगपति
की पोल
खोलना चाहते
थे!दिलचस्प
है कि
जिसे पोल
खोलनी था
उसने स्टिंग
ऑपरेशन नहीं
किया. स्टिंग
ऑपरेशन किया
उसने, जिसकी
पोल खुलने
वाली थी
!ये पेंचदार
बात है
! आम लोगों
को सिर्फ़
कील का
माथा दिख
रहा है,
कील के
भीतर के
पेंच नहीं
दिख रहे
हैं!
ये
पूरा मामला
औद्योगिक-व्यावसायिक
और मीडिया
संस्थानों की कार्यप्रणाली से जुड़ा
हुआ है!एक अख़बार
के मालिक
और संपादक
ने कहा
है कि
कंपनियों के
जनसंपर्क अधिकारियों
और उनके
लिए काम
करने वाली
जनसंपर्क कंपनियों
के प्रतिनिधियों
का भी
स्टिंग ऑपरेशन
करना चाहिए
जिसमें वे
कंपनी की
ख़बरें रुकवाने
के लिए
आते हैं!बात सही
है, उम्मीद
करनी चाहिए
कि वे
ऐसा करेंगे
क्योंकि वे
एक मीडिया
संस्थान के
मालिक भी
हैं !ऐसा
करना किसी
संपादक के
बूते की
बात नहीं
है ! अख़बार
या टीवी
कंपनी का
मालिक ऐसा
करने नहीं
देगा ! सोने
के अंडे
देने वाली
मुर्गी को
समझदार व्यक्ति
मार ही
नहीं सकता!एक संपादक
मित्र की
सलाह है
कि संपादकों
और ब्यूरो
प्रमुखों के
लिए हर
साल अपनी
संपत्ति का
ब्यौरा देना
ज़रुरी कर
देना चाहिए
!वे ये
सलाह देने
से चूक
गए कि
मीडिया संस्थानों
के मालिकों
को ऐसा
करना चाहिए
!
'पेड
न्यूज़' यानी
ख़बरों को
अपने पक्ष
में छपवाने/चलवाने के
लिए भुगतान
किए जाने
का मामला
पिछले कुछ
समय से
गर्म है.
राजनेता कथित
रूप से
चिंतित हैं
,लेकिन इससे
बड़ा मामला
ख़बर को
ना छापने
या रोकने
के लिए
होने वाले
भुगतान का
है! जितना
मीडिया व्यवसाय
दिखता है
उससे तो
बस रोटी
का जुगाड़
होता है,
उस रोटी
पर घी
तो ख़बर
रोकने या
तोड़ने-मरोड़ने
के धंधे
से चुपड़ी
जाती है
!
विज्ञापन
से लेकर
ज़मीनें सरकारें
ख़बर छापने
के लिए
नहीं, न
छापने के
लिए देती
हैं !ये
आपराधिक सांठगांठ
है. उद्योग-व्यवसाय और
मीडिया के
बीच. राजनीतिक
वर्ग और
मीडिया के
बीच !दरअसल
जो ख़बर
दिखती हैं,
वो तीन
तरह की
होती हैं
!एक वो
जिसमें मीडिया
संस्थान की
लाभ-हानि
का सवाल
ही नहीं
होता, दूसरी
वो जिससे
मीडिया संस्थान
का कोई
राजनीतिक या
आर्थिक हित
सधता है
और तीसरी
वो जो
राजनीतिक-आर्थिक
लाभ सधने
की आस
टूटने के
बाद प्रकाशित-प्रसारित होती
है !
यक़ीन
मानिए कि
असल में
जो ख़बर
है, वो
नदारद है.
कुछ अपवाद
हो सकते
हैं. लेकिन
वो सिर्फ़
अपवाद हैं
!मीडिया पर
समाज अब
भी बहुत
भरोसा करता
है, लेकिन
मीडिया क्या
इसको बरकरार
रख पा
रहा है?
यक़ीनन नही,मै ये
मानता हूँ
की जब
तक मिडिया
के ऊपर
उद्योगपतियों या बड़े कारोबारियों का
कब्ज़ा रहेगा
तब तक
समाज में
जरूरत मंदों
के बीच
विश्वास लम्बे
समय तक
कायम रखना
कठिन होगा
! हकीकत तो
ये भी
है हम
उन ख़बरों
को दिखा
ही नही
पाते जिससे
समाज को
सरोकार होता
है,वजह
फिर वही
मिडिया के
मालिकों {व्यापारियों}
का सीधा
हस्तक्षेप ! समाज की समस्या की
वजह बहुत
हद तक
वो ही
लोग है
जिनके मुठ्ठी
में निष्पक्ष
ख़बरें दिखाने,लिखने का
दंभ भरने
वाले हम
जैसे कलमकार
है ! खैर
देश में
एक इलेक्ट्रोनिक
मिडिया के
साथ जो
हुआ वो
नीरा राडिया
टेप काण्ड
की याद
ताजा कर
देता है
! इस समय
तो इक़बाल
के एक
शेर का
एक मिसरा
याद आता
है, "यही अगर कैफ़ियत है
तेरी तो
फिर किसे
ऐतबार होगा"
!
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