28.11.12

"जय बोलो बेईमान की"

मित्रों, आजकल के फिल्मों में संगीत देना कितना आसान है। है न ! बस किसी पुराने गाने का स्थायी लिया और उसपर अपने बोल डाल दिए,  किसी पुरानी फ़िल्म के गीत की कुछ धुनें लीं और अपने संगीत में पिरो दिए। फिर किसी और गीत  के अन्तरा की धुन ली और अपना अन्तरा बना लिया। किसी की मजाल जो कोई आँख उठा सके। अभी-अभी एक ऐसा ही गीत सुना। आपने भी सुना होगा। क्या कहा - नहीं ! तो मैं आप को बता देता हूँ।
आप ने मुहम्मद रफी का एक गीत सुना होगा-
"तुमसे इज़हारे हाल कर बैठे।
बेखुदी में कमाल कर बैठे रे.....।"

अब आजकल गुनगुनाइए- "तेरे नैना बड़े दगाबाज़ रे।"
बीच की धुन में आप को रफी के ही एक मशहूर गीत-"हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाता चला गया"  की झलक दिखाई देगी।
अन्तरा का भी लगभग यही हाल है, मगर ये खोज आपको करनी है।
मगर साथ में आप मुकेश का ये जरूर गाइयेगा "जय बोलो बेईमान की।"
एक प्रश्न का उत्तर मुझे नहीं मिलता- क्या वास्तव मे पूरे भारत में मौलिक रचनात्मक व्यक्तित्वों का लोप हो गया है ?
( और कोई नहीं मिलता तो मुझे ही याद कर लेते.........हा...हा...हा...)

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