मैं एक अंगरेजी का शिक्षक एवं एक अप्रसिद्ध लेखक हूँ . उम्र अड़तालीस के करीब है . और , असफलताओं ने हिम्मत को तोड़ सा दिया है . जब मेरी पहली रचना छपी थी तब मैं सिर्फ तेरह वर्ष का था . सोलह -सत्रह वर्ष का होते-होते पटना के स्थानीय प्रतिकाओं में बार-बार लिखने लगा था और साहित्यांचल का सदस्य भी बन गया था . कवि गोष्ठियों में मेरी मित्रता अनेक उम्रदराज लोगों से हुयी . उनमें से एक स्वर्गीय रघुनाथ प्रसाद विकल जी स्वर्गीय हरिवंश रॉय जी के पत्र मित्र थे और उन्होंने स्व0 विकल को 101 पत्र भेजे . फिर उनकी अनुमति से उनका प्रकाशन भी हुआ और एक प्रति विकल जी ने मुझे भी दी . जब कवि बच्चन दिवंगत हुए तो मैंने एक सांत्वना पत्र प्रिय अमिताभ जी को दिया और उनका उत्तर भी आया जिस पर श्री अमिताभ बच्चन के साथ -साथ जया और अभिषेक ने भी हस्ताक्षर किये थे . तब तक मेरी चार पुस्तकें प्रकाशित हो चुकीं थीं जिनमें दो उपन्यास थे ; 'आत्महत्या से पहले' नामक हिंदी उपन्यास और 'दी रिबर्थ आव महात्मा ' नामक अंगरेजी उपन्यास . मैंने अमिताभजी के पास इनकी प्रतियाँ भी भेजी यह सोचकर कि यद्यपि वो प्रोडूसर नहीं हैं , शायद उन्हें पसंद आने का कुछ अर्थ निकले . पर व्यर्थ . पत्रोत्तर भी नहीं आया . फिर मैंने भी उन्हें कभी नहीं लिखा परन्तु उनके पिताजी विकल जी के पत्र मित्र थे और एक प्रिय कवि , यह तो हमेशा याद रहता है .
मैं जिस विद्यालय में अंगरेजी पढाता हूँ उस विद्यालय में बड़ी हस्तियाँ आती रहती हैं . मैं पाँच वर्षों तक लगातार विद्यालय पत्रिका का सम्पादक रहा हूँ . फरवरी 2008 में श्री प्रकाश झा पधारे . मुझे यह पता था की वह आने वाले हैं . मैंने अपना अंगरेजी उपन्यास' दी रिबर्थ आव महात्मा' उन्हें उन्हीं के हाथों में दिया . उनका कोई उत्तर मुझे नहीं मिला . मैंने उनके लैंडलाइन पर एक दो बार फोन किया और संभवतः किसी छाया मिश्रा से मेरी बात हुयी पर श्री प्रकाश झा से मेरी बात नहीं हो सकी . असफलताओं के चहेते इस लेखक को मौन धारण करते देर नहीं लगी .
फिर वर्षों बाद सुना कि श्री प्रकाश झा आरक्षण पर एक फिल्म बना रहे हैं तो बड़ा आश्चर्य हुआ . यही तो मेरे उपन्यास का थीम था . अपने मित्रों से मैंने कहा . मैं सोच रहा था कि संभवतः श्री झा मुझसे संपर्क करेंगे . पर ऐसा नहीं हुआ . मेरे मित्रों ने बताया कि किसी प्रकाशित उपन्यास की कहानी चुरा लेना कोई खेल बात नहीं है .
अब आप ज़रा मेरे उपन्यास की कहानी सुनें . इसमें महात्मा गांधी एक अनाथ दलित के रूप में पैदा होते हैं और एक ब्राह्मण द्वारा पाले जाते हैं . महात्मा गांधी आरक्षण नहीं चाहते थे और अपने नए जन्म में उन्हें पुराने संकल्पों को संकेतित सा करते सपने आते हैं . डोमिसाईल से ब्राह्मण होने के नाते उनके पुनर्जन्म को कोई आरक्षण का फायदा नहीं मिलता . उनके साथियों में ज्यादातर सवर्ण हैं जो जाति आधारित आरक्षण का पुरजोर वैचारिक विरोध करते हैं . कहानी में आरक्षण के राजनीतिकरण एवं जातिवादी संघर्षों के कुपरिणामों पर चर्चाएँ हैं . अंततः महात्मा गांधी गुंडों द्वारा मार डाले जाते है पर मरने के पहले वो अपने संघर्ष को आगे बढाने के लिए पुनः एक ब्राह्मण बनकर पैदा होने की इच्छा जाहिर करते हैं .वे राष्ट्रहित में जातिवादी भेदभाव से बचने का आग्रह करते हैं और एक दलित उनकी बात से सर्वथा सहमत होकर पूर्णतः उनके साथ भी है .
पर फिल्म की कहानी ने बहुतों को निराश किया . अगर श्री झा आरक्षण का मुद्दा तो चाहते थे पर मेरी कहानी नहीं चाहते थे तो भी उन्हें इतने गंभीर मुद्दे को ऐसे नहीं रखना चाहिए था कि लोग जान ही न पायें कि लेखक आरक्षण के पक्ष में है या विपक्ष में . आखिर प्रकाश झा जी ने ऐसा क्यों किया ? उनकी प्रतिबद्धता किसके प्रति है ; राष्ट्र के प्रति ? या, कुछ जातियों के प्रति ? या, एक लेखक और फिल्मकार के रूप में अपने महान दायित्व को समझे विना , सिर्फ संभावित व्यक्तिगत राजनैतिक लाभों के प्रति ?
मैं जिस विद्यालय में अंगरेजी पढाता हूँ उस विद्यालय में बड़ी हस्तियाँ आती रहती हैं . मैं पाँच वर्षों तक लगातार विद्यालय पत्रिका का सम्पादक रहा हूँ . फरवरी 2008 में श्री प्रकाश झा पधारे . मुझे यह पता था की वह आने वाले हैं . मैंने अपना अंगरेजी उपन्यास' दी रिबर्थ आव महात्मा' उन्हें उन्हीं के हाथों में दिया . उनका कोई उत्तर मुझे नहीं मिला . मैंने उनके लैंडलाइन पर एक दो बार फोन किया और संभवतः किसी छाया मिश्रा से मेरी बात हुयी पर श्री प्रकाश झा से मेरी बात नहीं हो सकी . असफलताओं के चहेते इस लेखक को मौन धारण करते देर नहीं लगी .
फिर वर्षों बाद सुना कि श्री प्रकाश झा आरक्षण पर एक फिल्म बना रहे हैं तो बड़ा आश्चर्य हुआ . यही तो मेरे उपन्यास का थीम था . अपने मित्रों से मैंने कहा . मैं सोच रहा था कि संभवतः श्री झा मुझसे संपर्क करेंगे . पर ऐसा नहीं हुआ . मेरे मित्रों ने बताया कि किसी प्रकाशित उपन्यास की कहानी चुरा लेना कोई खेल बात नहीं है .
अब आप ज़रा मेरे उपन्यास की कहानी सुनें . इसमें महात्मा गांधी एक अनाथ दलित के रूप में पैदा होते हैं और एक ब्राह्मण द्वारा पाले जाते हैं . महात्मा गांधी आरक्षण नहीं चाहते थे और अपने नए जन्म में उन्हें पुराने संकल्पों को संकेतित सा करते सपने आते हैं . डोमिसाईल से ब्राह्मण होने के नाते उनके पुनर्जन्म को कोई आरक्षण का फायदा नहीं मिलता . उनके साथियों में ज्यादातर सवर्ण हैं जो जाति आधारित आरक्षण का पुरजोर वैचारिक विरोध करते हैं . कहानी में आरक्षण के राजनीतिकरण एवं जातिवादी संघर्षों के कुपरिणामों पर चर्चाएँ हैं . अंततः महात्मा गांधी गुंडों द्वारा मार डाले जाते है पर मरने के पहले वो अपने संघर्ष को आगे बढाने के लिए पुनः एक ब्राह्मण बनकर पैदा होने की इच्छा जाहिर करते हैं .वे राष्ट्रहित में जातिवादी भेदभाव से बचने का आग्रह करते हैं और एक दलित उनकी बात से सर्वथा सहमत होकर पूर्णतः उनके साथ भी है .
पर फिल्म की कहानी ने बहुतों को निराश किया . अगर श्री झा आरक्षण का मुद्दा तो चाहते थे पर मेरी कहानी नहीं चाहते थे तो भी उन्हें इतने गंभीर मुद्दे को ऐसे नहीं रखना चाहिए था कि लोग जान ही न पायें कि लेखक आरक्षण के पक्ष में है या विपक्ष में . आखिर प्रकाश झा जी ने ऐसा क्यों किया ? उनकी प्रतिबद्धता किसके प्रति है ; राष्ट्र के प्रति ? या, कुछ जातियों के प्रति ? या, एक लेखक और फिल्मकार के रूप में अपने महान दायित्व को समझे विना , सिर्फ संभावित व्यक्तिगत राजनैतिक लाभों के प्रति ?
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