भारतीय जनता पार्टी
को आखिर राजनाथ सिंह के रूप में नया राष्ट्रीय अध्यक्ष मिल ही गया। पार्टी विद
डिफरेंस और आंतरिक लोकतंत्र की बात करने वाली भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष का चयन
भले ही निर्विरोध हुआ हो लेकिन ये चयन अपने आप में कई सवाल खड़े कर गया..! क्या पार्टी का
कोई भी नेता पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने का इच्छुक नहीं था..? क्या गडकरी के
चुनाव लड़ने इंकार करने के बाद क्या राजनाथ सिंह वाकई में अपनी मर्जी से पार्टी अध्यक्ष
बनना चाहते थे..?
जाहिर है ऐसा नहीं
रहा होगा और कई भाजपा नेताओं के मन में पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने का सपना
रहा होगा या कहें अभी भी जिंदा होगा लेकिन फिर सवाल उठता है कि इंटरनल डेमोक्रेसी
की बात करने वाली भाजपा ने क्यों 2009 में गडकरी की तरह इस बार गडकरी के नाम पर
विरोध के बाद राजनाथ सिंह को अध्यक्ष बना दिया। क्यों पार्टी ने अध्यक्ष पद के लिए
चुनाव कराकर भी एक तरह से नहीं कराया..? हालांकि इस सवाल का जवाब भाजपा नेता कुछ
यूं देंगे कि किसी भी नेता ने नामांकन ही नहीं कराया ऐसे में राजनाथ को निर्विरोध
चुना गया और ये चुनावी प्रक्रिया के तहत हुआ है लेकिन क्या वास्तव में ऐसा ही हुआ
है जैसा दिख रहा है या भाजपा द्वारा दिखाया जा रहा है..!
भाजपा नेता कुछ भी
कहें लेकिन पर्दे की पीछे की सच्चाई भाजपा के इंटरनल डेमोक्रेसी के दावे को खोखला
बनाती नजर आती है और ये सब संचालित हो रहा है एक्सटरनल ताकतों(आरएसएस) के द्वारा।
दरअसल ये सौ फीसदी सच है कि भाजपा में वही होता है जो संघ चाहता है...वही 2009 में
गडकरी को अध्यक्ष भी बनाता है और वही 2013 में भी गडकरी को दोबारा अध्यक्ष बनाना
चाहता था...इसके लिए बकायदा पार्टी के संविधान में संशोधन भी होता है लेकिन गडकरी
की कंपनी पर घालमेल के आरोप पर भाजपा के वरिष्ठ नेताओं के विरोध के चलते गडकरी
दोबारा अध्यक्ष नहीं बन पाए लेकिन इसके बाद भी राजनाथ सिंह का अध्यक्ष बनना भी संघ
की मर्जी से ही संभव हुआ है।
बात सिर्फ राष्ट्रीय
अध्यक्ष की कुर्सी तक ही सीमित रहती तो समझ में आता है लेकिन अमूमन यही हाल भाजपा
में प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव से लेकर तमाम छोटे बड़े पदों पर नेताओं की नियुक्ति
पर भी होता है। ज्यादा दूर या पीछे जाए बिना अगर उत्तराखंड राज्य का ही उदाहरण ले लें
तो तस्वीर साफ हो जाती है कि भाजपा में इंटरनल डेमोक्रेसी की कैसे पार्टी का शीर्ष
नेतृत्व खुद धज्जियां उड़ाता है। उत्तराखंड प्रदेश अध्यक्ष का मसला चुनाव की तारीख
घोषित होने के बाद भी नहीं तय हो पाया है क्योंकि कुर्सी के लिए एक नाम पर सहमति
नहीं है और दो नेता अध्यक्ष का चुनाव लड़ना चाहते थे।
दोनों नेताओं तीरथ
सिंह रावत और त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने बकायदा नामांकन भी दाखिल कर दिया लेकिन पार्टी
ने चुनाव कराने की बजाए नाम वापस लेने की तारीख आगे बढ़ा दी ताकि दोनों पर नाम
वापस लेने के लिए दबाव बनाया जा सके और दोनों के नाम वापस लेने के बाद आलाकमान
अपनी पसंद के व्यक्ति को प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठा सके। आखिर में यही हुआ
और दोनों ने अपना नाम वापस ले लिया और अब सबको इंतजार है आलाकमान की पसंद के
प्रदेश अध्यक्ष का..! समझा जा सकता है कि भाजपा में इंटरनल डेमोक्रेसी को कैसे एक्सटरनल
ताकतें(संघ) कंट्रोल कर रही हैं और पार्टी नेता चाहकर भी मुंह नहीं खोल पाते।
ऐसा नहीं है कि ये
हाल सिर्फ भाजपा में ही है...देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस में भी कुछ ऐसा ही
है वहां पर एक्सटरनल ताकत एक परिवार है और वो है गांधी परिवार जो कांग्रेस का
पर्याय भी है। शुरु से परिवारवाद ही पार्टी में हावी रहा है। यहां पर एक ही परिवार
पूरा पार्टी को चलाता है इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी
के उदाहरण हमारे सामने हैं। जाहिर है इच्छाएं यहां भी नेताओं की कुलाचें भरती
होंगे लेकिन आलाकमान के फैसले के आगे सब मौन हो जाते हैं। पार्टी के शीर्ष पद पर
पहुंचने वाले नेताओं की संख्या ऊंगलियों में गिनी जा सकती है जो इस बात को खुद ब
खुद साबित करती है।
बहरहाल जो भी हो
लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में देश की दो सबसे बड़ी राजनीतिक
पार्टियों में लोकतंत्र की ये हालत अपने आप में कई सवाल खड़े करती है और मजबूर
करती है ये सोचना पर कि क्या ये पार्टियां वाकई में देश चलाने लायक हैं। जिस
पार्टी का शीर्ष नेतृत्व अपनी ही पार्टी के लोकतंत्र की हत्या कर देता है उस
पार्टी के नेताओं से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वे दुनिया के सबसे बड़े
लोकतंत्र की रक्षा करेंगे..?
deepaktiwari555@gmail.com
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