न्याय
एक देवदूत ने कहा -मैं संसार में जा कर न्याय करना चाहूंगा।भगवान् ने उसे पृथ्वी
पर भेज दिया।वह पृथ्वी पर पहुंचा और मानव से बोला -मैं तटस्थ भाव से न्याय
करने को आया हूँ इसलिए मेरी आँखों पर पट्टी बाँध दो।
देवदूत की आँखों पर पट्टी डाली गयी ताकि वह तटस्थ भाव से न्याय कर सके मगर
जैसे ही आँखों पर पट्टी डाली कि वह तटस्थ भाव भूल कर अँधा हो गया।
देवदूत की आँखों पर पट्टी बांधते समय एक और भूल हो गयी सिर्फ आँखे बाँधने को
कहा था मगर आँखों के साथ मानव ने उसके कान भी बाँध दिये इसलिए वह बहरा भी
हो गया।
देवदूत अब ना देख सकता था और ना सुन सकता था इसलिए वह संवेदना शून्य हो
गया और शब्दों के बंधन में बंध गया।
देवदूत न देख सका,ना सुन सका ,ना सोच सका तो वह चिल्लाया -मैं फैसले कैसे लूंगा ?
मानव ने कहा-चिंता ना करो तुझे वह तर्क और सबूतों की बैसाखी दे देते हैं वो जिधर
घुमे उस पक्ष के फैसले सुना दिया करो अब वह तर्क और सबूतों के पराधीन हो गया।
देवदूत चिल्लाया -यह गलत हो रहा है मानव,मैं देखे बिना न्याय नहीं कर सकता,ये
आँखों की पट्टी हटा दो।
मानव बोला -पट्टी हटाने की जरूरत नहीं है तुझे देखने के लिए गवाह की आँखे दे देते
हैं उनसे देख कर फैसले करना।
तब से देवदूत गवाह की आँखों से देखने लगा वह न तो जुर्म की गहराई में उतर सकता है
और ना खुद सोच सकता है वह तो कुछ शब्दों में फँस कर तड़फ रहा है।
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