मायावती और आसाराम बापू के हाथी
कल ही आज़म खान ने कहा है कि लोग जिन्दा रहकर ही अपनी मूर्तियाँ लगवा देते हैं । अल्ला से दुआ है कि बेटी दे तो दे पर मायावती जैसी न दे । गुस्साए एक बी एस पी नेता का बयान आया है - आज़म की मानसिकता ही ऐसी है । बी एस पी का हाथी बहुत आगे जाएगा । हाथी चलता रहता है और कुत्ते भौंकते रहते हैं । एक बार सोचा - कुछ लिखूं लेकिन तभी एक अन्य संत की विगत दिनों की वाणी याद आई जिन्होंने दामिनी के लिए कहा था कि दामिनी को उन बलात्कारियों को भाई बनाना चाहिए था । यदि उसने दीक्षा ली होती तो उसकी ऐसी दुर्गत न होती । बाद में बवाल मचा तो आसाराम मीडिया पर बिगड़कर बोले - कुत्ते भौंकते रहते हैं और हाथी चलता रहता है । यह आसाराम का हाथी था । एक संत का हाथी । हाथी संत का हो या मायावती का । बाकि सब कुत्ते ही हैं । आज़म खान का बयान तो कोई अर्थ नहीं रखता । मायावती ने मूर्ति अपने अज्ञान के कारण ही लगाईं होगी । उन्हें मालूम न रहा हो कि जिन्दे आदमी की मूर्ति नहीं लगवाई जाती । हो सकता है मालूम भी रहा हो आ लेकिन अब सोचता हूँ - यदि एक विज्ञापन में दिवंगत ग़ज़ल गायक आज भी एक खांसी की दवा का प्रचार कर सकते हैं तो मायावती ने भी कोई ख़ास बुरा नहीं किया था । उसने जो किया वह वास्तव में सम्मान के लिए वर्षों से तरसते एक समाज का उतावलापन ही था । पता नहीं , कल क्या हो और कोई मायावती को याद करे भी या न करे । कुछ लोग समाज में ऐसे भी होते हैं जिन्हें जब पुत्रों से कोई उम्मीद नहीं होती तो वे अपना श्राद्ध का इंतजाम भी अपने आप ही कर जाते हैं । भारत में सन्यासी बनने से पहले स्वयं अपना श्राद्ध करने की परम्परा है । मायावती सन्यासी बनने तो नहीं ही जा रही थी लेकिन उतावलापन तो दिखाई ही देता है । लेकिन आज़म खान का कहना कि कोई बेटी मायावती न बने , वास्तव में मानसिक दिवालियेपन का ही परिचय है । मायावती की उस भूल पर अब सपा ने ही अपमान की चादर चढ़ा दी है । मूर्ति लगवा दी , लोग तो मूर्ति उखाड़ रहे हैं । यदि आसाराम जैसे संतों की बुद्धि का दिवाला निकल रहा है तो राजनीति के नाले में श्वास प्रश्वाश ले रहे इन राजनेताओं के मुख से निकलते इन शब्दों पर कैसा शोक ? संस्कृत में शब्द नित्य माना गया है । शब्दो नित्यः , शब्द एव ब्रह्म , ऐसा ही संस्कृत शास्त्रों में लिखा गया है । वैज्ञानिक इसे प्रतिपादित भी कर चुके हैं । वह ब्रह्म इनके मुख से इस रूप में निकल कर गुफा से निकलने वाले शब्द की तरह कहीं गूंजता होगा । गूंजता रहेगा । गुफाओं से संतों की वाणी ॐ के रूप में निकला करती थी । आसाराम जैसे संतो की वाणी नहीं । ऋषियों की वाणी । इन नेताओं की वाणी से निकले ये शब्द हमेशा इस बात की याद दिलाते रहेंगे कि भारतीय राजनीति में इन अपशब्दों का उच्चारण करने वाले इन लोगों ने माँ सरस्वती के साथ भी पाशविकता का ही बर्ताव किया था । कालिदास ने कहा था -
वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये ।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतिपरमेश्वरौ ।।
पार्वती और परमेश्वर वाणी और अर्थ की तरह एक दुसरे से संपृक्त हैं । शब्द और अर्थ की प्रतिपत्ति यानि बोध के लिए मैं उनकी वंदना करता हूँ ।
निश्चित रूप से जहां शब्द और अर्थ को इतना सम्मान दिया गया है उस देश में शब्दों और अर्थों का इतना दुरूपयोग देश को कितना भारी पड़ने वाला है निश्चित रूप से ये तो वे जानते ही नहीं होंगे ।
कल ही आज़म खान ने कहा है कि लोग जिन्दा रहकर ही अपनी मूर्तियाँ लगवा देते हैं । अल्ला से दुआ है कि बेटी दे तो दे पर मायावती जैसी न दे । गुस्साए एक बी एस पी नेता का बयान आया है - आज़म की मानसिकता ही ऐसी है । बी एस पी का हाथी बहुत आगे जाएगा । हाथी चलता रहता है और कुत्ते भौंकते रहते हैं । एक बार सोचा - कुछ लिखूं लेकिन तभी एक अन्य संत की विगत दिनों की वाणी याद आई जिन्होंने दामिनी के लिए कहा था कि दामिनी को उन बलात्कारियों को भाई बनाना चाहिए था । यदि उसने दीक्षा ली होती तो उसकी ऐसी दुर्गत न होती । बाद में बवाल मचा तो आसाराम मीडिया पर बिगड़कर बोले - कुत्ते भौंकते रहते हैं और हाथी चलता रहता है । यह आसाराम का हाथी था । एक संत का हाथी । हाथी संत का हो या मायावती का । बाकि सब कुत्ते ही हैं । आज़म खान का बयान तो कोई अर्थ नहीं रखता । मायावती ने मूर्ति अपने अज्ञान के कारण ही लगाईं होगी । उन्हें मालूम न रहा हो कि जिन्दे आदमी की मूर्ति नहीं लगवाई जाती । हो सकता है मालूम भी रहा हो आ लेकिन अब सोचता हूँ - यदि एक विज्ञापन में दिवंगत ग़ज़ल गायक आज भी एक खांसी की दवा का प्रचार कर सकते हैं तो मायावती ने भी कोई ख़ास बुरा नहीं किया था । उसने जो किया वह वास्तव में सम्मान के लिए वर्षों से तरसते एक समाज का उतावलापन ही था । पता नहीं , कल क्या हो और कोई मायावती को याद करे भी या न करे । कुछ लोग समाज में ऐसे भी होते हैं जिन्हें जब पुत्रों से कोई उम्मीद नहीं होती तो वे अपना श्राद्ध का इंतजाम भी अपने आप ही कर जाते हैं । भारत में सन्यासी बनने से पहले स्वयं अपना श्राद्ध करने की परम्परा है । मायावती सन्यासी बनने तो नहीं ही जा रही थी लेकिन उतावलापन तो दिखाई ही देता है । लेकिन आज़म खान का कहना कि कोई बेटी मायावती न बने , वास्तव में मानसिक दिवालियेपन का ही परिचय है । मायावती की उस भूल पर अब सपा ने ही अपमान की चादर चढ़ा दी है । मूर्ति लगवा दी , लोग तो मूर्ति उखाड़ रहे हैं । यदि आसाराम जैसे संतों की बुद्धि का दिवाला निकल रहा है तो राजनीति के नाले में श्वास प्रश्वाश ले रहे इन राजनेताओं के मुख से निकलते इन शब्दों पर कैसा शोक ? संस्कृत में शब्द नित्य माना गया है । शब्दो नित्यः , शब्द एव ब्रह्म , ऐसा ही संस्कृत शास्त्रों में लिखा गया है । वैज्ञानिक इसे प्रतिपादित भी कर चुके हैं । वह ब्रह्म इनके मुख से इस रूप में निकल कर गुफा से निकलने वाले शब्द की तरह कहीं गूंजता होगा । गूंजता रहेगा । गुफाओं से संतों की वाणी ॐ के रूप में निकला करती थी । आसाराम जैसे संतो की वाणी नहीं । ऋषियों की वाणी । इन नेताओं की वाणी से निकले ये शब्द हमेशा इस बात की याद दिलाते रहेंगे कि भारतीय राजनीति में इन अपशब्दों का उच्चारण करने वाले इन लोगों ने माँ सरस्वती के साथ भी पाशविकता का ही बर्ताव किया था । कालिदास ने कहा था -
वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये ।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतिपरमेश्वरौ ।।
पार्वती और परमेश्वर वाणी और अर्थ की तरह एक दुसरे से संपृक्त हैं । शब्द और अर्थ की प्रतिपत्ति यानि बोध के लिए मैं उनकी वंदना करता हूँ ।
निश्चित रूप से जहां शब्द और अर्थ को इतना सम्मान दिया गया है उस देश में शब्दों और अर्थों का इतना दुरूपयोग देश को कितना भारी पड़ने वाला है निश्चित रूप से ये तो वे जानते ही नहीं होंगे ।
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