हमारी न्यायिक-प्रणाली दुर्योधनवाली है या युधिष्ठिरवाली-ब्रज की दुनिया
मित्रों,अभी दिल्ली दुष्कर्म पर उबल रहा जनाक्रोश ठंडा भी नहीं पड़ा था कि
इसी 24 जनवरी को उत्तर प्रदेश के गोंडा में विचित्र और अतिशर्मनाक घटना घट
गई। ऐसी शर्मनाक घटना जिसने पूरे भारतीय न्यायपालिका को ही शर्मिन्दा कर
दिया। उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले में एक जज पर अपने चैंबर में 13 साल की
नाबालिग लड़की से छेड़छाड़ का आरोप लगा है। लड़की के परिजनों द्वारा दर्ज
कराई गई शिकायत में कहा गया है कि सोमवार को जज ने अपने चैंबर में लड़की के
नाबालिग होने की जांच करने के बहाने उसके कपड़े उतरवाए और उसके साथ
शारीरिक छेड़छाड़ की। लड़की का आरोप है कि जज ने उससे शॉल हटाकर कपड़े
उतारने को कहा, जिससे वह उसकी उम्र का पता लगा सके। लड़की ने अपने बयान में
कहा है कि इसके बाद जज ने उसका सीना छुआ और सलवार उतारने को कहा। इस पर
लड़की रोने लगी और कहा कि यह सब मुझसे नही होगा। 21-वर्षीय एक अन्य युवती ने
भी उक्त जज पर छेड़छाड़ का आरोप लगाया है, लेकिन अभी यह साफ नहीं है कि
उसने पुलिस में इसकी शिकायत क्यों नहीं की। उसका कहना है कि जज ने कपड़े न
उतारने पर गलत बयान लिखने की धमकी भी दी। दोनों लड़कियों ने गोंडा में
पत्रकारों को आपबीती सुनाई। पुलिस ने 24 जनवरी की देर शाम तक जज के खिलाफ
एफआईआर दर्ज नहीं की थी। पुलिस के मुताबिक, इसके लिए इलाहाबाद कोर्ट से
अनुमति की जरूरत है। यह जज इन दोनों महिलाओं के अपहरण के मामले की सुनवाई
कर रहा था।
मित्रों,अब प्रश्न यह उठता
है कि जब कानून के देवता ही इस प्रकार दानव बन जाएंगे तो कैसे मिलेगा लोगों
को न्याय? प्रश्न तो यह भी उठता है कि अब इस जज को क्या सजा दी जाए? देश
का अंधा कानून तो कहेगा कि पहले साबित करो कि उसने छेड़खानी की है।जो होगा
ही नहीं क्योंकि इस घटना का कोई चश्मदीद गवाह तो है ही नहीं। मेडिकल जाँच
में भी कुछ नहीं आएगा और फिर बात आई-गई हो जाएगी। जज साहब भविष्य में और भी
निर्भीक होकर बंद कमरे में अपनी बेटी की उम्र की लड़कियों के बालिग या
नाबालिग होने की डॉक्टरी जाँच करेंगे,बयान बिगाड़ देने की धमकी देकर उनसे
कपड़े उतरवाएंगे और स्पर्श-सुख का आनन्द लेंगे।
मित्रों,दुनिया के सबसे बड़े महाकाव्य महाभारत में
एक ऐसी ही कथा आती है जो अक्षरशः ऐसी तो नहीं है लेकिन इस मामले पर हमारा
मार्गदर्शन जरूर कर सकती है। हुआ यह कि जब कौरव और पांडव गुरूकुल से वापस
आए तो उसी समय हत्या का एक मामला राजदरबार में पेश हुआ।
ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र चारों जातियों से संबद्ध एक-एक अपराधी
दरबार में लाए गए। चारों ने हत्या की थी। पहले महाराजकुमार दुर्योधन से
न्याय करने को कहा गया। दुर्योधन ने चारों को एकसमान सजा सुना दी। फिर
मामले को धर्मराज युधिष्ठिर के सामने लाया गया। धर्मराज ने शूद्र को सिर्फ
कुछ कोड़े लगाकर छोड़ देने को कहा। वैश्य को कोड़े के साथ-साथ सम्पत्ति
जब्ती का भी दंड दिया। क्षत्रिय को आजीवन कारावास की सजा दी और ब्राह्मण को
मृत्युदंड देने का आदेश दिया। तब राजा धृतराष्ट्र ने उससे पूछा कि अपराध
तो चारों ने एकसमान किए हैं फिर चारों की सजा अलग-अलग क्यों? धर्मराज ने
उत्तर में कहा कि महाराज इन चारों ने कतई एकसमान अपराध नहीं किया है। यह
शूद्र समाज द्वारा विद्या से वंचित है इसलिए भले-बुरे की पहचान नहीं कर
सकता इसलिए इसका अपराध काफी कम और क्षम्य है। वैश्य अल्पशिक्षित है अतः
इसका अपराध शूद्र से ज्यादा गंभीर है। क्षत्रिय शिक्षित तो है ही इस पर
समाज में व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी भी है अतः इसका अपराध अक्षम्य
है। ब्राह्मण समाज के लिए नीतियाँ बनाता है,कानून बनाता है और अगर वह खुद
आपराधिक गतिविधियों में संलिप्त हो जाएगा तो फिर उन नीतियों और कानुनों पर
कौन अमल करेगा और इस तरह राज्य और समाज में अराजकता उत्पन्न हो जाएगी,
इसलिए इसका अपराध जघन्य है। महाराज,ऊपरी तौर पर इन चारों के अपराध समान
दिखते जरूर हैं पर समान हैं नहीं और इसलिए मैंने इन चारों को सजा भी
अलग-अलग दी है।
मित्रों,कहना न होगा कि हमारे वर्तमान भारत की
न्याय-प्रणाली भी दुर्योधनी है। यह दुर्योधन जैसा कि मैं अचूक भविष्यवाणी
चुका हूँ इन जज साहब को बाईज्जत बरी कर देगा परंतु इस स्थिति में युधिष्ठिर
क्या करते? वे कदाचित् इसे मृत्युदंड से कमतर सजा देते ही नहीं क्योंकि
इसने न सिर्फ एक नाबालिग लड़की की मजबूरी का बेजा लाभ उठाया है बल्कि इसके
कुकृत्य के चलते लोगों का कानून में विश्वास भी कम हुआ है,उसे गंभीर क्षति
पहुँची है। परन्तु क्या भारत में हमें कभी युधिष्ठिर-सदृश न्यायपालिका
देखने को मिलेगी? हमें कब तक दुर्योधनी न्यायिक-प्रणाली का बोझ उठाना
पड़ेगा? मैं मानता हूँ कि न्याय को त्वरित तो होना ही चाहिए गतिशील भी होना
चाहिए। फैसले सब धन बाईस पसेरी की तर्ज पर नहीं बल्कि प्रत्येक मामले के
गुण-दोष के आधार पर आने चाहिए। इसके साथ ही फैसले सदियों पुरानी धूल से सनी
जर्जर विदेशी पुस्तकों के आधार पर भी नहीं किए जाने चाहिए। मैं पूछता हूँ
अपने देशवासियों से कि दिल्ली बलात्कार मामले में सबसे बड़ी भूमिका
निभानेवाले अपराधी को सबसे सस्ते में छोड़ देना कैसा न्याय है,कहाँ का
न्याय है? क्या पाँच-सात साल की बच्ची के साथ दुष्कर्म और दुष्कर्म के बाद
हत्या के मामले में सजा पूरी कर चुके सुनील सुरेश उर्फ पप्पू साल्वे को
उसके पहले अपराध की गंभीरता को देखते हुए तभी फाँसी नहीं दे दी जानी चाहिए
थी? तब क्या हम एक और मासूम को उसका शिकार होने और मृत्यु को प्राप्त होने
से नहीं बचा सकते थे जिसके साथ उसने जेल से छूटने के कुछ ही दिनों बाद
दुष्कर्म किया और फिर मौत के घाट उतार दिया? मैं पूर्व न्यायाधीश श्री
जगदीश शरण वर्मा जी से जानना चाहता हूँ कि दिल्ली दुष्कर्म कांड में अगर
दामिनी के स्थान पर उनकी बेटी या पोती होती तब भी क्या उनकी रिपोर्ट वही
होती जो अब है? लेकिन इसमें वर्माजी का क्या दोष? वे बेचारे भी तो इसी
दुर्योधनी न्यायपालिका की उपज हैं जो न्याय करना जानती ही नहीं है,नाबालिग
लड़कियों के कपड़े उतरवाना जरूर जानती है। नहीं तो वर्माजी यह कैसे भूल
जाते कि जहाँ हत्या शरीर का हनन करती है बलात्कार सीधे आत्मा की हत्या करता
है,हनन करता है। जहाँ हत्या ईन्सान को लाश में बदल देती है बलात्कार
पीड़िता को जिंदा लाश में बदल देता है। इसलिए बलात्कारी को तो हत्यारे से
भी ज्यादा सख्त सजा मिलनी चाहिए,दुनिया की सबसे सख्त संभव सजा मिलनी चाहिए।
वर्माजी फरमाते हैं कि इस समय पूरी दुनिया में मृत्युदंड के खिलाफ माहौल
बन रहा है। क्या वर्माजी को पूरी दुनिया के लिए सिफारिश करनी थी या फिर
सिर्फ भारत के लिए? अर्जुन की तरह सिर्फ पक्षी की आँख देखने के बदले
वर्माजी तो पेड़ और डालियों को भी देखने लगे। मैं वर्माजी से पूछना चाहता
हूँ कि क्या भारत में भी इस समय मृत्युदंड के खिलाफ माहौल बना हुआ है? अगर
नहीं तो फिर कैसे उन्होंने जनभावना की उपेक्षा कर दी? कोई भी कानून जनता के
लिए होता है या जनता कानून के लिए होती है? क्या भारत के लोकतंत्र को
भी,लोकतंत्र के प्रत्येक आधार-स्तम्भों को भी जनता का,जनता के द्वारा और
जनता के लिए नहीं होना चाहिए?
मित्रों,मैं अपने पहले के
आलेखों में भी अर्ज कर चुका हूँ कि सरकार ने वर्मा कमीशन का गठन जनता को
सिर्फ मूर्ख बनाने के लिए और समय खराब करने के लिए किया था। उसे अगर सचमुच
सख्त कानून बनाना होता तो वो अविलंब संसद का विशेष सत्र बुलाती जो उसने
नहीं किया। आलेख के अंत में मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि आपको कौन-सी
न्याय-प्रणाली चाहिए? नराधम दुर्योधनवाली जो अभी अपने यहाँ प्रचलन में है
या धर्मावतार युधिष्ठिरवाली जो महाभारत-युद्ध के बाद कुछ ही समय के लिए सही
भारतवर्ष में प्रचलन में थी।
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