20.3.13

--शर्म आती है कि उस शहर में हैं हम---------------------------------।

--शर्म आती है कि उस शहर में हैं हम---------------------------------।
मित्रों एक तरफ संसद में बलात्कार विरोधी बिल पास हो रहा है तो दूसरी ओर देश में ऐसी शर्मनाक घटनाओं की बाढ आयी हुई है।अभी मुश्किल से २ महीने गुजरे हैं 'दामिनी कांड'को कि अनगिनत घटनाओं के बीच बिल्कुल वैसी ही घटना चंडीगढ में हो गयी।राजधानी समेत देश के अधिकांश महानगरों में ,सरकारी कार्यालयों में जिस तरह से छेडछाड ,बलात्कार और शोषण की ये घटना हो रही हैं उससे तो लगता नही कि नये पुराने किसी भी कानून का खौफ इस पाशविक सोच के राक्षसों में है।कई बार तो ये लगता है कि कहीं राजधानी में हुये 'दामिनी कांड' के प्रतिकार में जो गुस्सा लोगों में दिखा कहीं वह भी प्रायोजित तो नहीं था वरना निंदनीय घटनाओं की इन बौछारों के बीच नारी संगठनों ,मानवाधिकार और महिला अधिकारों की दुहाई देने वाले मीडिया संगठनों की आवाज नक्कार खाने की तूती से ज़्यादा नहीं साबित हो रही।कोई जन सैलाब नहीं उमड रहा।लोकसभा में हमारे सांसदों की संख्या और बहस का स्तर भी बताता है कि कितने संज़ीदा हैं हम इस मामले में।अभी पिछले दिनों आकाशवाणी में हुये ऐसे ही घटनाक्रम पर जिस तरह से लीपापोती की गयी और सोशल मीडिया ने कोल्ड रिस्पांस दिया उससे भी जाहिर है कि किसी झूठि तारीफ के लाइक्स और ज़िंदगी को हिला देने वाली घटना पर कमेंट्स पाने में कितना अंतर होता है।कुछ पत्रकार मित्रों और कवियों को यह कहते हुये सुना कि सब आगे बढने के सार्टकट्स का इस्तेमा करने और पुरूषों को ब्लैकमेल करने की मानसिकता की वज़ह से है।कुछ हद तक ये बातें भी सही हैं पर इन शर्मनाक घटनाओं का इन घटिया तर्कों से समर्थन करना या उदासीन  रूख अपनाना शुतुरमुर्ग के रेत में सिर छिपा लेने से अलग नही है।शायद हर आदमी ये सोचता है कि ऐसी घटना उसकी अपनी बेटी या बीबी के साथ नही हो सकती।कन्या भ्रूण हत्या को गलत ठहराने वाले की बेटी के साथ बलात्कार हो जाये तो शायद वह यही सोचेगा कि वह भ्रूण हत्या ही उचित थी।ऐसा इसलिये कि बाकी समाज जब तक कि पीडिता मर ना जाये ताली बजाने और तमाशा देखने की ही मुद्रा में रहता है।ये शायद हमारी पुरातन सोच ही है कि हम जीवित से ज़यादा मरे हुओं की परवाह करते हैं ,शायद हम मरे हुये ही हैं और मरे हुओं को ही महान समझते हैं वरना कोई वज़ह नही कि चंडीगढ की जीवित'अभया' और दिल्ली की मृत 'निर्भया' के संघर्ष में फर्क करते।--क्या कहूं-बस--शर्म आती है कि उस शहर में हैं हम---------------------------------।

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