जो भी हुआ बुरा हुआ जो भी होगा ...?-ब्रज की दुनिया
मित्रों,मैं कई बार लिख चुका हूँ कि हमारी वर्तमान केंद्र सरकार नक्सली
समस्या को जितने हल्के में ले रही है यह समस्या उतनी हल्की है नहीं। यह
समस्या हमारी संप्रभुता को खुली चुनौती है,हमारी एकता और अखंडता के मार्ग
में सबसे बड़ी बाधा है लेकिन केंद्र सरकार को वोटों का हिसाब लगाने से
फुरसत कहाँ। इसलिए तो वो इसे सिर्फ कानून-व्यवस्था की स्थानीय समस्या बताती
रही है। उसको अपने प्रचार-तंत्र पर अटूट विश्वास भी है। वो समझती है कि
मीडिया में सिर्फ यह बताकर कि सरकार ने गरीबों-आदिवासियों के लिए कितनी
योजनाएँ चला रखी हैं नक्सलवाद को समाप्त किया जा सकता है।
मित्रों,मैंने अपने पहले के आलेखों में अर्ज किया है कि आज का नक्सल
आंदोलन 1967 वाला आदर्शवादी आंदोलन नहीं है बल्कि यह लुम्पेन साम्यवादियों
के रंगदारी वसूलनेवाले आपराधिक गिरोह में परिणत हो चुका है। इन पथभ्रष्ट
लोगों का साम्यवाद और गरीबों से कुछ भी लेना-देना नहीं है। हाँ,इनका धंधा
गरीबों के गरीब बने रहने पर ही टिका जरूर है इसलिए ये लोग अपने इलाकों में
कोई भी सरकारी योजना लागू नहीं होने देते हैं और यहाँ तक कि स्कूलों में
पढ़ाई भी नहीं होने देते। आप ही बताईए कि जो लोग देश के 20 प्रतिशत
क्षेत्रफल पर एकछत्र शासन करते हैं वे भला क्यों मानने लगे समझाने से? क्या
कोई ऐसी समस्या जिसका विस्तार देश के 20 प्रतिशत भाग पर हो स्थानीय हो
सकती है? क्या यह सच नहीं है कि हमारे संविधान और कानून का शासन छत्तीसगढ़
राज्य के सिर्फ शहरी क्षेत्रों में ही चलता है? क्या यह सच नहीं है कि वहाँ
के नक्सली क्षेत्रों में जाने से हमारे सुरक्षा-बल भी डरते हैं योजनाएँ
क्या जाएंगी? इसलिए बल-प्रयोग कर वहाँ पहले संविधान और कानून का राज
स्थापित करना पड़ेगा तब जाकर उन क्षेत्रों में भी 1 रुपया में से 10 पैसा
भी जा पाएगा। अब ये दूसरी बात है कि जब संविधान और कानून का सम्मान केंद्र
सरकार खुद ही नहीं कर रही है तो फिर वो इनका सम्मान करने कि लिए नक्सलियों
को कैसे बाध्य कर पाएगी? कहाँ से आएगा उनके पास इस अतिकठिन कार्य के लिए
नैतिक बल जो खुद ही लगातार अनैतिक कार्यों में,गैरकानूनी कृत्यों में
आपादमस्तक संलिप्त हैं? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर जेपी और रविशंकर
महाराज ने चंबल के डाकुओं से आत्मसमर्पण करवाया था तो अपने नैतिक बल पर ही
करवाया था।
मित्रों,यह सच है कि महेन्द्र
कर्मा सलवा जुडूम के कारण नक्सलियों की हिट लिस्ट में सबसे ऊपर थे इसलिए
अगरचे तो उन्हें उनके इलाके में जाना ही नहीं चाहिए था और अगर गए भी तो
स्थल-मार्ग से नहीं जाना चाहिए था। जब एक अदना-सा डाकू वीरप्पन अगर जंगल
में छिप जाए तो उससे पार पाना कठिन होता है तो फिर नक्सलियों ने तो
बाजाप्ता फौजी ट्रेनिंग ले रखी है,फौज बना रखी है। जंगल में सबसे बड़ी
कठिनाई यही होती है कि आप उनको नहीं देख रहे होते हैं जबकि वे आपको हर वक्त
देख रहे होते हैं। वहाँ जेड प्लस-माईनस का कोई अर्थ नहीं होता। कुछ लोग इस
घटना के लिए राज्य सरकार को दोषी ठहरा रहे हैं और राजनैतिक लाभ पाना चाहते
हैं। मैं उनसे पूछना चाहता हूँ कि श्रीमती इन्दिरा गांधी की जब हत्या हुई
तब तो वे खुद ही प्रधानमंत्री थीं,बेअंत सिंह को जब मारा गया तब तो वे
स्वयं पंजाब के मुख्यमंत्री थे फिर उनकी सुरक्षा में चूक के लिए कौन
जिम्मेदार था? बल्कि इंदिरा को तो उनके सुरक्षा बलों ने ही मार डाला था
इसलिए मैं कहता हूँ कि आरोप-प्रत्यारोप बंद करो,कुर्सी की राजनीति बंद करो
और इस बात पर विचार करो कि इस नक्सली समस्या को कैसे जड़-मूल से समाप्त
किया जाए?
मित्रों,हमारे कुछ मित्र अभी भी उन आदिवासियों को जो नक्सल आंदोलन में
शामिल हैं भोला भाला और गुमराह कर दिया मानते हैं। मैं उनलोगों से पूछता
हूँ कि परसों कांग्रेसी नेताओं की बेरहमी से हत्या करके लाशों पर नृत्य
करनेवाला कैसे भोला-भाला हो सकता है? जब सुरक्षा बलों की गोलियाँ समाप्त हो
गई थीं तब तो वे निहत्थे थे तो क्या निहत्थों पर बेरहमी से वार करने को
मानवाधिकार का सम्मान कहा जाना चाहिए? क्या सिर्फ नक्सलियों का ही
मानवाधिकार होता है? क्या यह फर्जी मुठभेड़ नहीं हुई? मैं दावे के साथ
कहता हूँ कि न तो ये लोग भोले भाले हैं और न ही गुमराह बल्कि ये लोग असभ्य
हैं,नरपिशाच हैं,ड्रैकुला हैं,हार्डकोर वधिक हैं इसलिए बातों से नहीं
मानेंगे कभी नहीं मानेंगे। इनके लिए मनमोहन जैसा पिलपिला शासक नहीं चाहिए
बल्कि राम जैसा अस्त्र-शस्त्रधारी चाहिए जो सिंहासन पर बैठते ही प्रतिज्ञा
ले कि-निशिचरहीन करौं मही हथ उठाई पन किन्ह।
मित्रों,कुल मिलाकर यह हमला न तो केवल राजनीति पर हमला है और न ही
कांग्रेस नेताओं पर बल्कि यह भारत की संप्रभुता पर हमला है,भारत पर हमला है
और इससे पहले के वो सारे हमले भी सीधे-सीधे भारत की संप्रभुता पर ही किए
गए थे जिनमें हमारे सैंकड़ों जवान मारे गए। मैं नहीं समझता कि उनमें और
इसमें कोई अंतर है या किया जाना चाहिए। प्रश्न अब यह उठता है कि हमारी
केंद्र सरकार अब करेगी क्या? मुझे नहीं लगता कि इस सरकार के मंत्री और
प्रधानमंत्री माँ के गर्भ से वो जिगर लेकर पैदा हुए हैं जिनकी आवश्यकता
नक्सलियों और माओ की वैचारिक,रक्तपिपासु संतानों से निबटने के लिए होती है।
बल्कि इन लोगों ने तो लूट-पर्व में भाग लेने के लिए सत्ता संभाली है इनको
कहाँ देश सों काम। सो पहले की तरह कुछ दिनों तक बड़े-बड़े बयान दिए
जाएंगे,किसी भी दोषी को नहीं बक्शने के बेबुनियाद दावे किए जाएंगे और इस
घटना को भी भुला दिया जाएगा तब तक के लिए जब तक कि कोई अगली बड़ी घटना न घट
जाए।
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