27.6.13

उत्तराखंड में संकट में लोक तंत्र लापता-ब्रज की दुनिया

मित्रों,16 जून की शाम ढलने तक दुनियाभर के हिन्दुओं के लिए सदियों से अतिपवित्र माना जानेवाला देवभूमि उत्तराखंड श्मशान में तब्दील हो चुका था। हर जगह,हर तरफ लाशें थीं,चीखें थीं,चीत्कारें थीं,नहीं थी तो केवल सरकार और सरकारी तंत्र। कहीं कोई राहत का इंतजाम नहीं,कहीं किसी तरह की कोई व्यवस्था नहीं। एक घोर चापलूस,दरबारी और अयोग्य मुख्यमंत्री से हम उम्मीद भी क्या करें और क्यों करें? अब तक केंद्र व राज्य की सरकारों ने हादसे के बाद बस इतना ही काम किया है कि वे लाशों को गिन रहें हैं मगर काफी कम करके। जहाँ मरनेवाले अभागे 20 हजार से कम नहीं हैं इन सरकारों की गिनती अभी हजार तक भी नहीं पहुँची है।
             मित्रों,हम सभी जानते हैं कि उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था सदियों से हिन्दू तीर्थयात्रियों के आगमन पर आधारित है और 16 जून को आए जल प्रलय में मरनेवाले और प्रभावित होनेवाले लगभग सारे लोग हिन्दू तीर्थयात्री ही हैं। कहाँ तो वे आए थे चारों धाम की यात्रा कर पुण्य कमाने और कहाँ तो वे या तो सुरधाम पहुँच गए या फिर उनको मरणांतक पीड़ा का सामना करना पड़ा और करना पड़ रहा है। सोलह जून की शाम को उन्होंने खुद को 15-20 फीट ऊँची वो भी कंकड़-पत्थरयुक्त अतिशीतल पानी की तेज धारा के मध्य में पाया। उनमें से कुछ अभागे तो तत्काल मर गए और जो बच गए उनकी हालत तो और भी बुरी थी। उनको सरकारी अव्यवस्था और अराजकता के चलते न तो कुछ खाने को ही कुछ मिल रहा था और न तो पीने को ही। न तो दवा ही मिल रही थी डॉक्टर भला कहाँ से मिलते? नौ-दस दिनों तक वे लोग लगातार पानी उड़ेलते खुले आकाश के नीचे भींगते-सूखते भूखे-प्यासे पड़े रहे और पड़े हैं। न कहीं शासन का पता और न कहीं प्रशासन का ही,पूरा-का-पूरा तंत्र लापता। न जाने क्यों और किसलिए राज्य सरकार ने इतने भारी-भरकम तंत्र को पाल-पोस रखा है? क्या अब भी किसी को संदेह रह गया है कि भारतीय लोकतंत्र में खासकर कांग्रेसी लोकतंत्र में तंत्र की नजर में लोक का कोई स्थान रह भी गया है? यह सर्वविदित है कि इस प्राकृतिक त्रासदी में मरनेवाले लगभग सारे लोग हिन्दू हैं और कोई हिन्दू वोट बैंक तो होता है नहीं कि उनकी चिंता की जाए। हिन्दू अगर अब भी नहीं जागे तो परंपरागत,सदियों पुरानी चार धाम यात्रा तो भविष्य में थम ही जाएगी उनके जीने के भी लाले पड़ जाएंगे जैसे कि इस समय देवभूमि उत्तराखंड में पड़े हुए हैं।
                         मित्रों,यह सब तब हुआ है जबकि सीएजी ने दो महीने पहले ही अपनी रिपोर्ट में उत्तराखंड में आपदा-प्रबंधन के शून्य होने की चेतावनी दे दी थी। फिर किंकर्त्तव्यविमूढ़ता की ऐसी स्थिति क्यों आई? क्यों राज्य और केन्द्र की सरकारों को कल-परसों यह कहना पड़ा था कि जिनको पीड़ितों तक राहत पहुँचानी है वे आप खुद जाकर पहुँचाएँ? आप ही बताईए कि ऐसा भी कहीं हुआ है कि सड़क मार्ग से कटे,अतिदुर्गम क्षेत्रों में जाकर देशभर के सहृदय और देशभक्त लोग खुद राहत पहुँचाएँ? फिर जब लोग आगे आने लगे तो अब वही केंद्र व राज्य सरकारें ऐसा क्यों कह रही हैं कि राहत-कार्य सिर्फ हमारे द्वारा ही चलाए जाएंगे?
                       मित्रों,क्या सीएजी की चेतावनी के बाद भी केंद्र और उत्तराखंड की सरकारों का कान में तेल डालकर सोए रहना आपराधिक कृत्य नहीं है? क्या केंद्र और उत्तराखंड की सरकारों पर हजारों निरपराधों की हत्या का मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिए? हमारे प्रधानमंत्री रोजाना सर्वोच्च न्यायालय को अपनी सीमा में रहने की चेतावनी देते रहते हैं फिर क्यों बिना सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के उत्तराखंड में राहत और बचाव का काम शुरू नहीं किया गया? देश में क्या आवश्यकता है ऐसे लोकतंत्र की जिसमें जब लोक की जान पर बन आए तो तंत्र लापता हो जाए? क्या जरुरत है ऐसी सरकारों की जो गाढ़ी जरुरत के समय जनता की किसी भी तरह से मदद न कर पाए और जनता को पूरी तरह से रामभरोसे तिल-तिल कर मरने के लिए छोड़ दे?
                       मित्रों,पूरा देश आभारी है भारतीय सेना और भारत-तिब्बत सीमा पुलिस के उन जवानों का जिन्होंने रात-दिन एक करके और अपनी जान की बिल्कुल भी परवाह न करते हुए हजारों लाचारों की जान बचाई। कल की हेलिकॉप्टर दुर्घटना में वायुसेना और अर्द्धसैनिक बलों के 19 जवानों को जान भी गवानी पड़ी है। हम उनकी आत्मा की शांति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते हैं और महापापी सरकार से अनुरोध करते हैं कि इन वास्तविक नायकों के परिजनों को पर्याप्त मुआवजा दे,कम-से-कम राशि धौनी ब्रिगेड को कप जीतने पर मिलने वाली राशि से तो ज्यादा जरूर होनी चाहिए,प्रति जवान कम-से-कम एक करोड़ रूपया। दोस्तों,यह घोर दुर्भाग्यपूर्ण है कि अभी भी कम-से-कम पाँच हजार लोग लगातार 11 दिनों से बरसात,मच्छर,कीड़े-मकोड़े और भूख-प्यास से लड़ते हुए अभी भी मदद का इंतजार कर रहे हैं। देश में किसी भी तरह की आपदा-योजना या आपदा-तंत्र का नहीं होना क्या यह नहीं दर्शाता है कि वर्तमान केंद्र-सरकार और उत्तराखंड की सरकार दोनों ही नाकारा हैं और किसी भी तरह की बाहरी और भीतरी चुनौती से निबटने में पूरी तरह से अक्षम हैं? क्या ऐसी सरकारें खुद अपने-आपमें ही आपदा नहीं होती हैं?
                              मित्रों,मुझे आपको यह सूचित करते हुए अपार क्रोध हो रहा है कि भारत को श्री सुशील कुमार शिंदे के बाद कई और नीरो के बाप मिल गए हैं। जिस प्रदेश में 10-11 दिनों से साक्षात महाकाल का तांडव चल रहा हो,लाशों को जलाने के लिए लकड़ियों के लाले पड़े हों उस राज्य का मुख्यमंत्री न जाने क्यों इसी सप्ताह स्विट्जरलैंड की यात्रा पर जा रहा है। उनको स्विस बैंक से कोई जमा-निकासी करनी है या कोई अन्य अपरिहार्य काम आ पड़ा है पता नहीं लेकिन वे जिस विषम परिस्थिति में विदेश जाने पर अड़े हुए हैं उसे देखकर तो कदाचित् किसी जल्लाद को भी शर्म आ जाए। जब उनका प्रेरणा-पुरूष युवराज ही दो-दो गृह राज्य मंत्रियों को साथ में लेकर ऐन घटना के दिन से एक सप्ताह तक पेरिस में रंगरलियाँ मना रहा हो तो बहुत सारे अज्ञात गुणों से युक्त बहुगुणा क्यों नहीं मनाएंगे? मरनेवाले या नरक की पीड़ा भोग रहे लोग कोई उनके सगे-संबंधी तो हैं नहीं। इसी बीच कृपालु युवराज 24 जून को देश में वापस आ गए हैं और लगातार बाढ़-पीड़ितों से मिल रहे हैं जबकि इससे पहले भारत-सरकार के गृह-मंत्री श्री शिंदे ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को यह कहकर ऐसा करने से रोक दिया था कि इससे राहत-कार्य में बाधा आएगी। देश की कुंडली में राहु की महादशा ला सकने की अपार क्षमता रखनेवाले राहुल गांधी किसी नियम के अंतर्गत तो आते हैं नहीं सो वे क्यों मंत्री की सलाह पर अमल करने जाएँ? कुछ अन्य केंद्रीय मंत्री तो ऐसे भी हैं जिन्होंने तो राहत में लगे हेलिकॉप्टरों को जबरन खाली करवा दिया और तब आपदा-प्रभावित क्षेत्रों का क्रूरतापूर्वक हवाई और जमीनी सर्वेक्षण किया। क्या पता फिर कब ऐसा सुनहरा मौका हाथ लगता?
                               मित्रों,इस बीच उत्तराखंड के प्रलय-क्षेत्र से कुछ इस तरह की सूचनाएँ या खबरें भी आ रही हैं जो उसके एक और नाम देवभूमि से बिल्कुल भी मेल नहीं खातीं। कई जगहों पर स्थानीय निवासी फँसे हुए तीर्थयात्रियों से खाद्य-सामग्री और पानी के मनमाने दाम वसूल रहे हैं। देवताओं यह देव-संस्कृतिवाली बात तो हुई नहीं। भारतीय वांङ्मय में अतिथियों को देवता का दर्जा दिया गया है फिर उनकी मजबूरियों से अनुचित लाभ उठाना तो दानवोंवाला कृत्य ही कहा जाएगा न? इतना ही नहीं कई जीवित-मृत महिलाओं के हाथ तक भी स्वर्णाभूषणों के लालच में काट लिए गए हैं,कई तीर्थयात्रियों को पहाड़ से नीचे फेंकने की धमकी देकर लूटा गया है और कई तीर्थयात्री महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार भी किया गया है। कुछ जगहों से जैसे गौरीकुंड से इस तरह की खबरें भी आ रही हैं कि वहाँ के ग्रामीणों ने अपना सारा राशन-पानी पीड़ित आगन्तुकों को खिला-पिला दिया है और खुद उपवास कर रहे हैं। ऐसे लोग निश्चित रूप से श्रद्धा और स्तुति के पात्र हैं।
                मित्रों,कहते हैं कि आपदायें मानवता का लिटमस टेस्ट होती हैं। इसी दौरान पता चलता है कि कौन मानव है और कौन दानव,कौन हितैषी है और कौन शत्रु। तभी तो रहीम कवि ने कहा था कि-रहिमन विपदा हूँ भलि जो थोड़े दिन होय।हित-अनहित या जगत में जानि पड़े सब कोय।। जल-प्रलय ने हिन्दुओं के समक्ष कांग्रेस के खौफनाक हिन्दू-विरोधी,मानवता-विरोधी और देश-विरोधी चेहरे को तो पूरी तरह से अनावृत कर ही दिया है वहाँ की स्थानीय जनता के देव-संस्कृति का हिस्सा होने के दावे को भी कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया है। मैं हमेशा से तीर्थयात्रा को मूर्खता मानता रहा हूँ। भक्तराज रामकृष्ण परमहंस भी कहा करते थे कि जहाँ सज्जन लोग निवास करते हों वहीं तीर्थ है अन्यत्र नहीं। हिन्दुओं को अपना कर्म सुधारना चाहिए परलोक बिना तीर्थयात्रा किए ही सुधर जाएगा।
                   मित्रों,उत्तराखंड में न तो पहली बार बादल फटे हैं और न ही पहली बार भूस्खलन ही हुआ है। हाँ,इस बार जान-माल का नुकसान जरूर बहुत ज्यादा हुआ है। हमने प्रकृति के साथ खिलवाड़ किया और प्रकृति ने हमें बिना देरी किए उसका दंड भी दे दिया। हिमालय के साथ सबसे पहला खिलवाड़ तो अंग्रेजों ने पूरे क्षेत्र में अखरोट के बदले चीड़ का जंगल लगाकर किया था जिसकी जड़ों में मिट्टी को जकड़कर रखने की क्षमता कम होती है। फिर हमने औद्योगिकीकरण,सड़क-निर्माण और जल-विद्युत उत्पादन के नाम पर पूरे उत्तराखंड के पहाड़ों को वेध कर रख दिया,छलनी कर दिया। अभी-अभी 4-5 जून को मूर्खता के प्रकाश-स्तंभ,चापलूस-शिरोमणि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने केंद्र सरकार के पर्यावरण मंत्रालय पर राज्य में नई जल-विद्युत परियोजनाओं और नई सड़कों के निर्माण को बाधित करने का आरोप लगाते हुए देखा। सूत्र बताते हैं कि नई जल-विद्युत परियोजनाओं के लिए प्रति मेगावाट 1 करोड़ रूपया माननीय मुख्यमंत्री सुविधा-शुल्क के रूप में लेते हैं।
                       मित्रों,सारे पर्यावरणविद् हिमालय-क्षेत्र में नए बाँधों और सड़कों के निर्माण के विरूद्ध लगातार चेतावनी देते रहे हैं। हमने अपनी आँखों से देखा है कि मंसूरी में लोगों ने पहाड़ की ढाल पर पीलर दे-देकर घर बना लिए हैं। नवीन वलित पर्वतीय व भूकंप की दृष्टि से अतिसंवेदनशील क्षेत्र में इस प्रकार से घर बनाना और उसमें रहना निश्चित रूप से मृत्यु को आमंत्रण देना है इसलिए प्रदेश में अंधाधुंध कंक्रीटों के जंगल लगाने पर भी रोक लगाई जानी चाहिए। गिनाने को तो मैंने गिना दिया कि उत्तराखंड में क्या-क्या किया जाना चाहिए परन्तु यह सब करेगा कौन? कांग्रेस पार्टी के नेताओं से तो कुछ होनेवाला है नहीं सिवाय धर्मनिरपेक्षता के फूटे ढोल को पीटते रहने के और धर्मनिरपेक्षता की छतरी के नीचे बैठकर देश-प्रदेश को लूट लेने के,बेच देने के और फिर अमेरिका व स्विट्जरलैंड जाकर लूट और विक्रय के माल को ठिकाने लगाने के या फिर पेरिस जाकर रंगरलियाँ मनाने के। तो आईये मित्रों,अंत में हम भी भारतेन्दु हरिश्चंद्र की तरह वर्तमान भारत की महादुर्दशा (अंग्रेजों ने तो भारत की सिर्फ दुर्दशा ही की थी) पर सामूहिक विलाप करें-रोवहु सब मिलि के आवहु भारत भाई। हा! हा! भारत महादुर्दशा देखी न जाई।। 

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