आजकल हर किसी पर फेसबुक फीवर छाया हुआ है। पत्रकार हों या बेकार,
स्टूडेंट्स हों या कामगार, तथाकथित पढ़े-लिखे हों या गंवार, कामकाजी हो या
घरेलू शायद ही कुछ लोग होंगे, जो मामूली टेक्नोसेवी होने के बावजूद इस
नेटवर्किंग साइट से न जुड़े हों। इनमें ज्यादातर लोग मूल्यों को ताक पर
रखकर अपडेट हिट और लाइक्स के लिए जूझते नजर आते हैं। एक पत्रकार होने के
नाम पर इस फेसबुकिया नाम की खुजली मुझे भी लग गई, फिर क्या था शुरू हो गया
सिलसिला। लेकिन, हाल की एक घटना ने मन क्षीण कर दिया।
एक मित्र कुछ हफ्ते पहले बनारस (काशी) की कमियां गिनाते हुए अपडेट कर दिए
कि वहां तो गंगा में लाशें बहाई जाती हैं, कब डुबकी लगाते वक्त आपसे कोई
लाश टकरा जाए। उस वक्त मैंने उन्हें टोका- भाईसाहब वहां लाशें बहाई नहीं
जलाई जाती हैं, संभव है कहीं दूर दराज से लहरों में भटक आई कोई लाश तैरती
दिख जाए, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि आप काशी की गंगा में लाशें तैराने
लगें। बाद में मैंने उन्हें फोन पर भी टोका कि फेसबुक विश्वमंच है, इस पर
अपने शहर या देश की कुंठित तस्वीर न रखें।
बहरहाल, यह तो एक पहलू था। हाल में, उन्होंने बनारस की तारीफों में लिपटे कई अपडेट किए और बनारस से इश्क तक की बात कर डाली, लोगों को भी बनारस में डूबकर महसूस करने की सलाह दी। इस बार मैंने रिएक्शन दिए बगैर और किसी का नाम लिए बिना खुद अपडेट किया कि एक शहर से नफरत करने वाले उसे प्यार कैसे करने लगे। शायद यह टीआरपी का खेल है, जो गिरगिट की तरह रंग बदलने वालों ने शहर को अपनी लोकप्रियता का माध्यम बना लिया। यह कुछ नहीं, टीआरपी का खेल है। बस, फिर क्या था! शुरू हो गई शाब्दिक जंग और वे सीधे-सीधे नाराजगी जताने लगे।
इतना ही नहीं, उन्होंने यह चिढ़ पहले मेरे अपडेट पर रिएक्शन देकर निकाली, फिर अपने लगातार अपने अपडेट देने लगे। वे ऐसे नाराज हुए जैसे यह राष्ट्रीय बहस का मुद्दा हो और मैं उन्हें प्रधानमंत्री बनने से रोक रहा हूं। बहस को अजीबो-गरीब मोड़ देते हुए वे शहर और शख्सियत की पड़ताल पर उतर आए। साथ में शुरू हो गई लॉबिंग, उन्होंने कई सहयोगियों को साथ लपेटा और जुट गए साबित करने पर कि मैं बेवजह उन्हें झुठला रहा हूं।
बहरहाल, यह तो एक पहलू था। हाल में, उन्होंने बनारस की तारीफों में लिपटे कई अपडेट किए और बनारस से इश्क तक की बात कर डाली, लोगों को भी बनारस में डूबकर महसूस करने की सलाह दी। इस बार मैंने रिएक्शन दिए बगैर और किसी का नाम लिए बिना खुद अपडेट किया कि एक शहर से नफरत करने वाले उसे प्यार कैसे करने लगे। शायद यह टीआरपी का खेल है, जो गिरगिट की तरह रंग बदलने वालों ने शहर को अपनी लोकप्रियता का माध्यम बना लिया। यह कुछ नहीं, टीआरपी का खेल है। बस, फिर क्या था! शुरू हो गई शाब्दिक जंग और वे सीधे-सीधे नाराजगी जताने लगे।
इतना ही नहीं, उन्होंने यह चिढ़ पहले मेरे अपडेट पर रिएक्शन देकर निकाली, फिर अपने लगातार अपने अपडेट देने लगे। वे ऐसे नाराज हुए जैसे यह राष्ट्रीय बहस का मुद्दा हो और मैं उन्हें प्रधानमंत्री बनने से रोक रहा हूं। बहस को अजीबो-गरीब मोड़ देते हुए वे शहर और शख्सियत की पड़ताल पर उतर आए। साथ में शुरू हो गई लॉबिंग, उन्होंने कई सहयोगियों को साथ लपेटा और जुट गए साबित करने पर कि मैं बेवजह उन्हें झुठला रहा हूं।
दोहरे चरित्र का भयानक रूप
कुल मिलाकर मैं समझ गया कि यह इंटरनेट है ही ऐसी चीज, जो कुछ भी उलट-पलट कर
सकती है। यही वजह है कि उत्तराखंड में महाप्रलय आया, तो तमाम मीडिया ने
अपने-अपने तईं उसे उछाला, परोसा। किसी ने इस मानवीय आपदा से खबर चुराई, तो
कोई पुराने और झूठे वीडियो दिखाकर टीआरपी बढ़ाया। यही दृश्य फेसबुकियों के
टीआरपी बढ़ाने की तकनीक में दिखा। बनारस से जुड़े अपडेट में शहर का भला हो,
न हो! मित्रों के अपडेट पर अपडेट होते गए, लाइक्स और कॉमेंट्स की संख्या
बढ़ती गई। आखिरकार, मैंने सोचा कुछ भी बोल, लिखकर पीछा छुड़ाओ! अन्यथा इस
फेसबुक के चक्कर में बरसों पुरानी मित्रता लडख़ड़ा जाएगी। फिर एक गजल की
लाइन मन में कौंध गई-
जिंदगी को करीब से देखो, इसका चेहरा तुम्हें रुला देगा!!
-सर्वेश पाठक
जिंदगी को करीब से देखो, इसका चेहरा तुम्हें रुला देगा!!
-सर्वेश पाठक
जिंदगी के दो रूप में काला चेहरा ज्यादा भयानक है ... सुंदर प्रस्तुति ..... ब्लॉग पर आने के आभार
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