26.9.13

आडवानी का मोदी विरोध महज एक दिखावा या संघ की रणनीति
भारतीय जनता पार्टी के पितृ पुरुष माने जाने वाले लालकृष्ण आडवानी के विरोध को दो बार दर किनार करके नरेन्द्र मोदी को पहले चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष और फिर प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाना क्या उतना ही सहज सरल और पारदर्शी है, जितना दिखायी दे रहा है या फिर पर्दे के पीछे की कहानी कुछ और है? क्या भाजपा में संघ के आर्शीवाद से उदारवादी अटलबिहारी वाजपेयी और हिन्दूवादी लालकृष्ण आडवानी की जोड़ी को सुनियोजित तरीके से अब उदारवादी लालकृष्ण आडवानी और हिन्दूवादी नरेन्द्र मोदी के रूप में बदला जा रहा है? ये यक्ष प्रश्न आज देश के राजनैतिक क्षितिज में उत्सुकता के साथ चर्चित है।
स्मरणीय है कि सन 1977 में भारतीय जनसंघ का विलय जनता पार्टी में हुआ था। जनता पार्टी की पहली गैर कांग्रेसी केन्द्र सरकार में अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवानी दोनों ही मंत्री बने थे। लेकिन जनता पार्टी की सरकार के मात्र ढ़ाई साल में गिर जाने का कारण भी इसमें शामिल समाजवादी दलों के नेताओं द्वारा जनता पार्टी और आर.एस.एस. की दोहरी सदस्यता का मसला ही था। इसके बाद पूर्व जनसंघ घटक के नेताओं ने एक अलग पार्टी बनायी जिसका नाम भारतीय जनता पार्टी रखा गया। केन्द्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में बनी दूसरी गैर कांग्रेसी सरकार भी भाजपा के बाहरी समर्थन से बनी थी। इस दौरान भाजपा नेता लालकृष्ण आडवानी राम रथ पर सवार होकर  सोमनाथ से अयोध्या की यात्रा पर राम मंदिर के मुद्दे को लेकर निकल पड़े थे। यह वाकया भी कम रोचक नहीं है कि जब मीडिया ने इस पर अटल जी से आगे की रणनीति पर टिप्पणी मांगी थी तो अटल जी ने यह कहा था कि ये तो शेर की सवारी है आगे जो भी करेगा वो शेर ही करेगा। बिहार में लालू यादव द्वारा रथ यात्रा को रोककर आडवानी को गिरफ्तार कर लिया तो भाजपा के समर्थन वापस लेने से केन्द्र की दूसरी गैर कांग्रेसी सरकार भी गिर गयी थी।
भाजपा के गठन से ही निरंतर कुछ ऐसे राजनैतिक घटनाक्रम होते गये कि अटल जी एक उदारवादी नेता के रूप में उभरे तो दूसरी ओर आडवानी जी की छवि एक हिन्दूवादी नेता की बनती रही।  अतीत के इस दौर में संघ चट्टान की तरह आडवानी जी के पीछे खड़ा दिखायी देता था। अटल आडवानी की इस जोड़ी के नेतृत्व में भाजपा ने केन्द्र में अटल जी के नेतृत्व में सरकार बनायी और आडवानी जी गृह मंत्री बने। इस दौर में उन्हें लोह पुरुष का दर्जा भी भाजपा में दिया गया। जबकि आडवानी के गृह मंत्री रहते हुये ही काश्मीर के कट्टरपंथी आतंकवादियों को विदेश मंत्री जसवंत सिंह कांधांर तक छोड़ कर आये थे। हालांकि इस दौरान अटल आडवानी द्वारा की जाने वाली रोजा अफ्तार की दावतें भी बहुत चर्चित रहती थीं। एन.डी.ए. के ऐजेन्डे में राम मंदिर का मुद्दा ना होने को कारण बता कर भाजपा ने इससे भी किनारा कर लिया था। 
अस्वस्थ हो जाने के कारण देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी सक्रिय राजनीति से दूर हो गये। ऐसे में देश की राजनीति की मांग के अनुरूप भाजपा और संघ को अटल जी के बदले एक उदारवादी चेहरे की आवश्यकता थी। ऐसा माना जा सकता है कि इसकी सुनियोजित शुरुआत उस वक्त हुयी जब पाकिस्तान के दौरे पर गये देश के पूर्व उप प्रधानमंत्री एवं भाजपा नेता लालकृष्ण आडवानी ने जिन्ना की मजार पर जाकर फूल चढ़ाये। संघ ने इसका भारी विरोध किया जिससे आडवानी की धर्म निरपेक्ष छवि बनना प्रारंभ हुई। दूसरी तरफ गुजरात के गोधरा कांड़ के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी कट्टरवादी हिन्दू नेता के रूप में उभर कर सामने आ गये। हालाकि गोधरा कांड़ के बाद अटल जी ने मोदी राजधर्म निभाने की सलाह तो दी लेकिन कोई कठोर कार्यवाही नहीं की थी। गुजरात में तीसरी पारी खेलने के बाद मोदी के व्यक्तित्व को संघ के इशारे पर विशाल रूप में प्रचारित किया गया।
संघ ने मोदी पर दांव लगाने का फैसला किया और उन्हें चुंनाव अभियान समिति का अध्यक्ष घोषित करने के लिये भाजपा पर दवाब बनाया। लेकिन आडवानी इस वक्त मोदी की घोषणा के पक्ष में नहीं थे। उनका तर्क था कि नवम्बर 2013 में राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद यह घोषणा की जाये। अपने मोदी विरोध के चलते आडवानी गोवा में आयोजित राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में शामिल नहीं हुये। लेकिन उनके विरोध को दरकिनार करते हुये संघ के दवाब में भाजपा ने नरेन्द्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष घोषित कर दिया। इससे नाराज आडवानी ने भाजपा में अपने सभी पदों से स्तीफा दे दिया था जिसे चंद दिनों बाद ही वापस भी ले लिया। हाल ही में नरेन्द्र मोदी को भाजपा ने प्रधानमंत्री पद का दावेदार भी घोषित कर दिया। आडवानी इस बार भी इस पक्ष में नहीं थे कि यह घोषणा अभी की जाये। अपने विरोध के चलते इस बार भी आडवानी भाजपा की संसदीय बोर्ड की बैठक में नहीं गये लेकिन संघ के दवाब में भाजपा ने आडवानी के विरोध को एक बार फिर दरकिनार करते हुये मोदी की घोषणा कर डाली। अपनी नाराजगी के बाद भी आडवानी ने दो दिन बाद ही छत्तीसगढ़ केे एक शासकीय समारोह में अपने भाषण में मोदी की जमकर तारीफ कर डाली। आडवानी का रूठना और मानना भी कहीं ऐसा ही तो नहीं है जैसे अटल जी ने मोदी को राज धर्म निभाने की सलाह देकर चुप्पी साध ली थी। शायद इीलिये अब यह धारणा बन गयी है कि संध आडवानी की धर्म निरपेक्ष छवि बनाये रखने के लिये उनका दिखावटी विरोध कर रहा है।
ऐसे हालात में यह सवाल उठना स्वभाविक ही है कि क्या आडवानी जैसा एक अत्यंत अनुभवी और उम्रदराज नेता एक ही गलती बार बार दोहरा सकता है? क्या आडवानी के मोदी विरोध को दरकिनार करने का साहस भाजपा ने इसलिये किया कि वो यह जानती थी कि ये विरोध महज एक दिखावा है? मोदी को लेकर दो बार दर्ज कराये गये अपने विरोध के चलते आडवानी अल्पसंख्यकों में यह संदेश देने में तो सफल हो गये कि वे उनके हित चिंतक है। ऐसा करके उन्होंने उनके उदारवादी नेता की छवि में तो इजाफा कर ही लिया है। इन्हीं सारे तथ्यों को देखते हुये ऐसा मानने वालों की कमी नहीं है कि आडवानी का मोदी विरोध संघ की एक सुनियोजित रणनीति का ही हिस्सा था। संघ की यह योजना बहुत हद तक सफल भी रही कि जिस तरह भाजपा में अटलबिहारी वाजपेयी की उक उदारवादी नेता की छवि थी वैसे स्वरूप में अब आडवानी आ गये है और कट्टरवादी हिन्दू नेता के रूप में आडवानी की जगह नरेन्द्र मोदी ने ले ली है। इस तरह संघ अटल आडवानी की जोड़ी को आडवानी मोदी की जोड़ी के रूप में स्थापित करने में सफल हो गया है। अब यह तो आगामी लोकसभा चुनावों के बाद ही स्पष्ट हो पायेगा कि संघ का यह प्रयोग कितना सफल होता है। 
               लेखक:- आशुतोष वर्मा,16 शास्त्री वार्ड, बारापत्थर सिवनी 480661 मो. 9425174640 



 

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