9.11.13

झूठों का सरताज अरविन्द केजरीवाल-ब्रज की दुनिया

मित्रों,मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि अगर टीम केजरीवाल के महत्त्वपूर्ण सदस्य व सर्वेक्षणवीर योगेन्द्र यादव भी इस बात को लेकर देश की जनता के बीच सर्वेक्षण करवाएँ कि देश में सबसे ज्यादा झूठ किस पेशे से संबंधित लोग बोलते हैं तो यकीनन देश की 99 प्रतिशत जनता यही कहेगी कि इस कला में राजनीतिज्ञ लाजवाब हैं। यह राजनीति ही है जिसने कथित रूप से पूरी तरह से सच्चे रहे मनमोहन सिंह को परले सिरे का झूठा व मक्कार बना दिया। नेताओं के प्रति यह घनघोर निराशा का भाव ही था जिसके चलते जब विकट सामाजिक कार्यकर्ता अरविन्द केजरीवाल ने पिछले साल गांधी जयन्ती पर राजनीतिज्ञों को राजनीति सिखाने के लिए नई राजनैतिक पार्टी की स्थापना करने की घोषणा की तो जनता के एक बड़े वर्ग को काफी हर्ष हुआ। हालाँकि मेरे जैसे कुछ शक्की किस्म के इंसान अब भी ऐसे थे जो केजरीवाल पर आँख मूँदकर विश्वास करने के पक्ष में नहीं थे। (पढ़िए मेरा 17 अक्तूबर को लिखा गया आलेख http://brajkiduniya.blogspot.com/2012/10/blog-post_17.html)। इस शक की पीछे जो ठोस कारण था वो यह था कि राजनीति में उतरकर केजरीवाल ने न केवल अपने पुराने वादे को तोड़ा था बल्कि उनके ऐसा करने से उनके राजनैतिक गुरू अन्ना हजारे का दिल भी टूटा था। तब जनसामान्य के मन में यह सवाल उठा था कि क्या केजरीवाल ने सीधे-सादे अन्ना का दुरुपयोग किया और समय आने पर उनके दिल के टुकड़े-टुकड़े करके मुस्कुरा के सत्ता की राह में चल दिए? क्या अन्ना आंदोलन में अन्ना को आगे करके जनभावना को उभारना और बाद में उनके मना करने पर भी राजनीति में आ जाना उनकी सोंची-समझी रणनीति थी? हमारे जैसे कुछ भाइयों को यह भी लग रहा था कि केजरीवाल कांग्रेस के धनुष से छोड़ा गया वाण है जो चुनावों में भाजपा का वोट काटने के लिए छोड़ा गया है।
                                             मित्रों,अभी बमुश्किल एक साल ही बीते हैं और अरविन्द की कलई पूरी तरह से उतर गई है। आज उनको देखकर हर कोई यही कहता है कि या तो सालभर पहले का अरविन्द असली था या फिर आज का अरविन्द असली अरविन्द है क्योंकि दोनों अरविन्दों में मात्र एक साल में ही जमीन और आसमान का फर्क आ गया है। सालभर पहले जो अरविन्द सच्चाई का पुतला माना जाता था आज झूठ की फैक्ट्री में तब्दील हो चुका है। सालभर पहले जो अरविन्द वोट बैंक की राजनीति करनेवालों की लानत-मलामत करता था आज खुद ही वोट बैंक की राजनीति कर रहा है। सालभर पहले जिस अरविन्द को वंदे मातरम् कहने में गर्व महसूस होता था आज वो न तो भारतमाता का जयकारा लगाता है और न ही वंदे मातरम् का नारा ही क्योंकि उसे भय है कि उसके ऐसा करने से मुस्लिम मतदाता उसकी पार्टी से हड़क जाएंगे। मुस्लिम वोट बैंक को अपनी तरफ करने के प्रयास में वे कई-कई बार जामा मस्जिद दिल्ली के विवादास्पद ईमाम मौलाना बुखारी की परिक्रमा कर चुके हैं। हद तो तब हो गई जब उन्होंने बरेली दंगों के मुख्यारोपी तौकीर रजा से मुलाकात कर उनसे अपनी पार्टी के लिए समर्थन मांगा। अभी तक रजा कांग्रेस और सपा के लिए मुस्लिम मतदाताओं को प्रभावित करते आ रहे थे। मैं श्री केजरीवाल से पूछता हूँ कि अगर उनको कांग्रेस और सपा की नीतियों पर ही चलनी थी तो क्यों उन्होंने आम आदमी पार्टी की स्थापना की?
                मित्रों,इतना ही नहीं तौकीर रजा मामले में तो उन्होंने झूठ बोलने की प्रत्येक सीमा को मीलों पीछे छोड़ दिया। उनसे मिलने के बाद जब मीडिया में विवाद पैदा हो गया तो उन्होंने तत्काल कहा कि तौकीर साहब एक ईज्जतदार ईंसान हैं फिर जब उनसे पूछा गया कि उन पर तो बरेली में दंगा करवाने का आरोप है तो उन्होंने गुलाटी मारते हुए कहा कि आरोप तो है लेकिन कोर्ट ने अभी सजा नहीं दी है। उनका यह भी कहना था कि यह मुलाकात पूर्वनियोजित नहीं थी बल्कि अकस्मात् थी लेकिन तौकीर रजा ने स्वयं यह कहकर उनके इस दावे को झूठा साबित कर दिया कि केजरीवाल ने कई दिन पहले ही उनसे मुलाकात के लिए समय मांगा था। जब सरदार ही झूठ बोल रहा हो तो कारिंदे क्यों पीछे रहते? कुमार विश्वास जी अब निर्लज्जतापूर्वक यह कहते फिर रहे हैं कि तौकीर से तो उनसे पहले कांग्रेस और सपा ने भी सहायता ली थी। वाह,क्या तर्क है कि वो जो करते हैं वही हमने किया तो फिर आपने क्यों यह दावा किया था कि आप राजनेताओं को यह सिखाने के लिए राजनीति में आए हैं कि राजनीति कैसे की जानी चाहिए? इसी तरह जब केजरीवाल से इंडिया टीवी के कार्यक्रम आपकी अदालत में यह पूछा गया कि उन्होंने राशन माफिया सहित कई-कई दागियों को कैसे टिकट दे दिया तो उन्होंने इसकी जानकारी होने से मना कर दिया। आप ही बताईए कि जिस व्यक्ति को यह पता है कि स्विस बैंक में किस भारतीय के कितने पैसे जमा हैं उसे यह नहीं पता कि उसके किस उम्मीदवार के खिलाफ कौन-कौन से और कितने आपराधिक मामले चल रहे हैं?कौन मानेगा कि वे सच बोल रहे हैं?
                                           मित्रों,अब बात करते हैं उनपर लगाए गए इस आरोप की कि वे कांग्रेस के मोहरे हैं। इस बारे में सबसे पुख्ता प्रमाण मिला है इस खुलासे से कि जिस सर्वे को दिखा-दिखाकर अरविन्द ने पूरी मीडिया को दिग्भ्रमित करने के साथ-साथ पूरी दिल्ली में पोस्टर्स लगवा दिए और दावा करते फिरते हैं कि आप को 37 सीटें मिलेंगी उस सर्वे के पीछे कोई और नहीं बल्कि दिल्ली कांग्रेस का एक पदाधिकारी था। जैसा कि हम सब जानते हैं कि वो सर्वे आप के ही योगेन्द्र यादव ने किसी 'Cicero Associates' नाम की सर्वे फर्म से करवाया था। जब एक चुनावी विश्लेषक को शक़ हुआ कि आखिर आप के सर्वे के परिणाम बाकी बड़ी सर्वे कंपनियों जैसे कि सी-वोटर और एसी नेल्सन से इतने अलग क्यूँ आ रहे हैं तो उसने जांच शुरू की जिसमें पता चला कि यह फर्म (Cicero Associates) इतनी नई थी कि इसकी वेबसाइट मात्र 3 महीने पहले ही बनाई गई थी। जब आगे अनुसंधान किया गया तो पता चला इस फर्म का निदेशक है-'सुनीत कुमार मधुर' और पता है यह मधुर कौन है? दिल्ली कांग्रेस कमिटी का महासचिव। मतलब कि फर्जी फर्म, फर्जी सर्वे, फर्जी सर्वेक्षणकर्त्ता-सबके सब कांग्रेस के द्वारा खड़े किए हुए। ईधर-उधर से तो बहुत ख़बरें आती थी लेकिन अब इस खुलासे के बाद यह बात सप्रमाण साबित हो गई है कि केजरीवाल को किसी अन्य ने नहीं,बल्कि कांग्रेस पार्टी ने ही खड़ा किया है।
                                        मित्रों,यह तो हम पहले से ही जानते थे कि व्यवस्था-परिवर्तन की मांग करना और बात है और उसके लिए लंबा संघर्ष करना दूसरी लेकिन हम यह नहीं जानते थे अरविन्द केजरीवाल का एकमात्र उद्देश्य सत्ता पाना है। मुझे आज यह आलेख लिखते हुए अपार दुःख हो रहा है क्योंकि मैं कई-कई बार अरविन्द केजरीवाल का समर्थन इस उम्मीद में कर चुका हूँ कि कम-से-कम कोई एक राजनेता तो ऐसा है जो व्यवस्था-परिवर्तन की बात कर रहा है बाँकी तो सिर्फ सत्ता-परिवर्तन की बात करते हैं। भाइयों एवं बहनों,अन्ना का आंदोलन कोई छोटा-मोटा आंदोलन नहीं था बल्कि सन् 74 के बाद यह पहला ऐसा आंदोलन था जिसने पूरी व्यवस्था की चूलों को हिलाकर रख दिया था। अब क्या पता कि ऐसा व्यापक आंदोलन फिर से निकट-भविष्य में कभी हो भी या नहीं जबकि देश की हालत तो इस समय पहले से भी कहीं ज्यादा खराब होती जा रही है और दिन-ब-दिन एक और व्यवस्था-परिवर्तक आंदोलन की आवश्यकता बढ़ती ही जा रही है। लेकिन यह भी सही है कि आंदोलन होने से ज्यादा जरूरी है उसका परिणति तक पहुँचना। चाहे जेपी आंदोलन हो या अन्ना आंदोलन दुर्भाग्यवश दोनों को पलीता दोनों के चेलों ने ही लगाया और दोनों ही मामलों में ऐसा सत्ता-प्राप्ति के लिए कांग्रेस के इशारे पर किया गया।

2 comments:

  1. अन्ना हज़ारे के रामलीला मैदान में विशालकाय भीड़ के बीच हुए आंदोलन को देखकर आम भारतीय उससे ऐसे ही जुड़ गया मानो पहली बार इतने शुद्ध खरे व्यक्तित्व के लोग ज़रूर कुछ न कुछ बदलाव लाकर रहेंगे। अन्ना हज़ारे की उम्र का लिहाज़ न करते हुए बिना अन्न जल के इतना लम्बा उपवास कि जब तक जनलोकपाल बिल नहीं पास हो जाता, अन्ना कुछ भी नहीं ग्रहण करेंगे, अन्ना के स्वास्थ्य के प्रति इन लोगों की लापरवाही दर्शाता है। वो विभिन्न राजनीतिक पार्टियों से अपने आंदोलन को समर्थन देने की गुहार भी कर रहे थे. इस सबसे प्रभावित होकर कुछ राजनीतिज्ञों ने उनके मंच पर जाकर समर्थन भी दिया जिसमें BJP भी शामिल थी लेकिन बदले में केजरीवाल & Co. ने क्या किया। जिन लोगों ने उन्हें समर्थन दिया, उलटे उन्हीं को ठेंगा दिखा दिया। बीजेपी - कांग्रेस दोनों को एक ही तराजू में रख दिया और दोनों पार्टियां आपस में मिली हुई हैं, ऐसा दुष्प्रचार करने लगे। ऐसे मतलबी होने के क्या मायने।

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