21.12.13

दोस्तों से डर लगे







राजेश त्रिपाठी
रहबर कभी थे आजकल राहजन होने लगे।
मूल्य सारे क्यों भला इस तरह खोने लगे।।
स्वार्थ की आग में जल गयी इनसानियत।
दुश्मनों की कौन पूछे दोस्तों से डर लगे।।

जमीं पर था कभी अब आसमां को चूमता।
उसको इनसानियत का पाठ बेमानी लगे।।
झोंपड़ी सहमी हुई है, बंगले तने शान से।
ये तरक्की की तो हमें बस लंतरानी लगे।।

आपने देखा अपना आज का ये हिंदोस्तां।
हर तरफ मुफलिसी औ गम के मेले लगे।।
कोई मालामाल तो कर रहा है फांके कोई।
ख्वाब गांधी का तो अब यहां फानी लगे।।

हर तरफ नफऱत रवां है, आदमी बेजार है।
प्यार लेता सिंसकियां दुश्मनी हंसती लगे।।
हम भला क्या कहें अब सारा जहां बीमार है।
मुल्क में लोग खौफ के ख्वाब हैं बोने लगे।।

पाठ समता का कभी जिसने पढ़ाया खो गया।
सुख की सोये नींद कोई कोई कर रहा रतजगे।।
दुनिया में जो था आला आज वह बदहाल है।
ये खुशी तो है नहीं हंसता आदमी रोने लगे।।



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