“कितनी बेशर्म थीं तुम,
देखा था तुम्हें
अगहन की उस रात
बूचे पाँव
पास वाले डोबने पर
सानते हुए अपने पैरों को
गीली मिट्टी से
चुपचाप,
और फिर
चलीं आईं थीं
किस अभिमान से
घुटनों तक उठाए साड़ी;
रख कर जाँघ पर मेरी
वही कीचड़-भरा पाँव
जबकि सिर्फ़ दस ही तो बजा था
उस वक्त इंतज़ार था मुझे
कविता के कागज़ पर उतरने का
और तब सब कुछ छोड़कर
पूछा था ड्रामाई अंदाज़ में,
”तो......अभी से रिझा रही हो मुझे, हूँ.....”
और तुम चली गईं थीं
तुनक कर मुझे ठेलकर,
और फिर
थामकर हौले से तुम्हें
पूछा था मैंने
”कि कैसे पता चला तुम्हें कि
मरता हूँ मैं तुम्हारे पैरों पर
क्या उस रोज़ जब
चूम रहा था मैं
बिस्तर पर मिली ख़ानाबदोश पायल....”
(तुम मौन ही बनी रहीं)
”या फिर तब पहली दफ़े
उस रात जब छुआ था
हमने परस्पर
तब तुम सिमट गईं थीं
कितने भीतर खुद के
उस रात
सुना था मैंने तुम्हारे पाँवों का वह
आदिम उच्छवास........”
(कुछ क्षण)
“तो क्या देख लिया था
सबेरे आँगन में
तुमने मुझे
देखते हुए तुम्हें छिपकर,
छुड़ाते हुए
एड़ी का वो बासा महावर....”
(तुम बरबस मुस्काईं पर बोली कुछ भी नहीं)
“या फिर उस रोज़
बैंठीं थीं तुम पैंरों को
यूँ मोड़कर
जैसे बैठी हो किसी कथा में,
(तुम भूल गईं थीं पाँवों को ढ़ँकना साड़ी से )
तब सहसा तुम्हें आभास हुआ
पलटकर देखा था तुमने
मुझे टकटकी बाँधे,
.....उस दिन लड़ाई थी हमारी
तब भी
मुस्कराईं थीं तुम सब कुछ बिसराकर....”
” या कि समझ गईं थीं
मेरी आँखों में उतर आए मद को
क्योंकि देखा था मैंने
तुम्हें बाँधते हुए मुरवे पर वो
नज़र का धागा........
एक रात”
(सलज्ज हँसी थी चेहरे पर तुम्हारे)
“अच्छा ?? तो क्या अच्छा लगता था
मेरा तुम्हारे पैंरों को थामकर
आहिस्ते से धोना
बोलो...बोलो तो....और
तुम चल दीं थीं बेफ़िक्री से
मुझे पगलूराम बोलकर.....”
(कुछ क्षण)
अगहन की उस उतरती रात, मुझे याद हो आईं
तुम्हारे सधःस्नात पैंरों पर ठिठकी वो बूँदे,
तुम्हारे पैरों की वो कनसुई
तुम्हारे ही भार से झुहिरते पैरों पर पड़ती वो चुन्नटें;
वो अचानक से बनते सुंदर चाप,
अँगूठे पर चाँदी का वो अनवट
वो बिछियों की झनक
मुरवे पर कसी गुजरिया की झनकार
नीचे लुरकती पायल में गँसे
बोरों का रूनझुन निनाद
तुम्हारा वो ठेठपन
वो अनबनाव..................”
(फू.....मैं हार गया)
उस रात फिर पूछा था तुमसे लेकिन अंतिम बार
कि “कैसे पता चला कि
मरता हूँ मैं तुम्हारे भूरे पैरों पर”,
पर तुम........ चुप ही बनीं रहीं
मुझे याद थी वो तुम्हारी
दबी-दबी सी कूट हँसी,
और फिर आवेश में तुम्हें पकड़ कर कसके
मैंने बोला था
”हाँ की थी तुम्हारे पैरों की पधरावनी अपने अंतर में...”
तुम चकित थीं
और मैं विकल,
अगहन की उस रात
जाने कितनी देर मुझे एकटक निहारकर
पहली बार बोली थीं तुम कि
“सच में नहीं मालूम मुझे कि कैसे पता चला मुझे,
प......र.....पर.........(तुम हकलाईं थीं)
(कुछ क्षण) “सुनिए.......”
और फिर
लिपटकर मुझसे
कहा था तुमने
बहुत ही धीमे से
”कि मैं मरती हूँ आप पर.....”।
प्रणव सक्सेना “अमित्रघात”
Amitraghat.blogspot.com
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