है काली-कट में, कालिख़,
दिल्ली की, डाली गयी,
फ़िर इक, मासूम
दोशीजा, मिटा डाली गयी,
ये कैसे लोग हैं,
इंसां हैं, या कुछ और हैं,
कली नाज़ुक, मसल
दो बार वो डाली गयी,
हदें हैवानियत की
भी यहाँ तोड़ी गयीं,
वो अबला लूट कर, फ़िर
है जला डाली गयी,
हवस है, भूख तन
की है ये, या फ़िर और कुछ,
है इनमें रूह किस
शैतान की डाली गयी,
कहेगा कौन, हम
प्राचीनतम हैं सभ्यता,
यहीं थी कन्या
पूजन की, प्रथा डाली गयी,
इन्द्रिय-संयम की
शिक्षा, मूल शिक्षा थी,
धरम की नींव थी,
ब्रह्मचर्य पर डाली गयी,
अब शर्म का ये
लफ्ज़ छोटा है बहुत,
है भारत माँ की
बेटी, लूट फ़िर डाली गयी,
व्यवस्था ये, ये
सत्ता और शासन अब पलट डालो,
जहां “संजीव”,
कुद्रष्टि नारी पर डाली गयी....... संजीव मिश्रा
काली-कट=कोलकाता,
दोशीजा=कन्या, कुमारी, लड़की , कुद्रष्टि=बद नज़र
"मर्मस्पर्शी रचना....."
ReplyDeleteAmitraghat.blogspot.com
मर्मस्पर्शी कविता.........."
ReplyDeleteAmitraghat.blogspot.com