अपने
भविष्य को लेकर आजकल बड़ा कन्फ्यूजिया गया हूं। निर्धारण नहीं कर पा रहा हूं, कौन सा मुखौटा लगाऊं। आम- आदमी ही बना रहूं, या आम और आदमी के फेविकोल जोड़ से ‘खास’ हो जाऊं। अतीत के कई वाकये मुझे पसोपेस में डाले हुए हैं।
कुछ महीने पहले मेरी गली का पुराना ‘चिंदी चोर’ उर्फ ‘छुटभैया’ धंधे को सिक्योर करने की खातिर ‘खास’ बनना, दिखना और हो
जाना चाहता था। एक ही सपना था उसका, कि बाय इलेक्शन या सेलेक्शन वह किसी भी सदन तक पहुंच जाए।
फिर बतर्ज एजूकेशनल टूर हर महीने ‘बैंकाक’ जैसे स्वर्गों की यात्रा कर आए। मगर, कल जब वह नुक्कड़ पर ‘सुट्टा’ मारते मिला, तो बोला- दाज्यू अब तुम बताओ यह ‘आम आदमी’ बनना कैसा रहेगा? मैं हतप्रभ। देखा उसे, तो उसमें साधारण आदमी से ज्यादा ‘आप’ वाला ‘आदमी’ बनने की ललक
दिखी, सो
कन्फ्यूजिया गया। इसलिए उसे जवाब देने की बजाए मैं ‘मन-मोहन’ हो गया।
फिर सोचा क्यों
न आपके साथ ही चैनलों की ‘डिबेट’ टाइप बकैती की जाए। बैठो, बात करते हैं, हम- तुम, इन कन्फ्यूजियाते प्रश्नों पर। आपसे रायशुमारी अहम है मेरे
लिए। तब भी फलित न निकला तो एसएमएस, एफबी, ट्वीटर का
ऑप्शन खुला है। जरुरी लगा तो प्रीपोल, पोस्टपोल, एग्जिट पोल भी संभव। रुको, बकैती से पहले बता दूं। गए साल प्रवचन में ‘बापू’ कहते थे, प्रभु की शरण में आम और खास सब बराबर हैं। मगर, बड़ी बात है (आम) आदमी बनना। उससे पहले सुना
था, ‘भैंस’ लाठी वाले की होती है। फिर सुना, देखा कि हर पांच साल में खास (नेता) लोग
दशकों से मूरख बनते आम आदमी को ‘खास’ कहते, बताते हैं। उसके भूत और भविष्य उनकी चिंता की
कड़ाही में उबलते हैं। नौबत पादुकाएं उठाने की आएं, तो उसे सिर माथे लगाने से हिचकते नहीं।
अब देखो, अरविंद ने बड़ी नौकरी छोड़ी, आम आदमी बनें, तो सीधे सीएम बन गए। उन्हीं के नक्शेकदम कई और ‘खास’ भी अपने ‘ओहदों’ को त्यागकर ‘आम- आदमी’ बनने के लिए धरती पकड़ होने लगे हैं। आशुतोष भैया तो मलाई
छोड़ चटाई पर आ भी गए। सो बंधु कन्फ्यूज बहुत है। समझना मुश्किल हो रहा है कि मेरे
कन्फ्यूजन को दूर कौन करेगा, केजू, राहुल या नमो। केजू कथा का मूल पात्र तो आदमी
पर ‘आम’ का प्रत्यय लगाना नहीं भूलता। इसी फार्मूले
से खुद को भी आदमी से पहले ‘आम’ बताता है। दामादजी की तरह ‘बनाना पीपुल्स’ नहीं कहता। वहीं राहुल बाबा तो वर्षों से झोपड़ी यात्राओं
से बताते रहे हैं कि खास होते हुए भी उन्हें ‘सुदामा’ के पास बैठना, उठना, लेटना अच्छा
लगता है। वही आम आदमी जिनके लिए कभी ‘दादी’ ने गरीबी
हटाओ का नारा दिया था।
इधर देसी
मीडिया ने अपने नरेंद्र भाई को शॉर्टनेम ‘नमो’ क्या दिया, कि हर कोई ‘शनिदोष निवारण’ शैली में ‘जाप’ करना नहीं
भुल रहा। आखिर चायवाले का ‘खास’ होना, और फिर कारपोरेटी रैलियों को जुगाड़ कर वापस चायवालों (आम)
तक पहुंचना भी तो बड़ी बात है। वेटिंग को कन्फर्म करने के लिए इशारों में बतियाए
रहे हैं- उन्हें 60 साल दिए, मुझे 60 महीने दे दो। भुज से लेकर चतुर्भुज तक 350 की स्पीड वाली बुलेट शंटिंग कर दूंगा। सो
भांति-भांति के मुखौटों को देख मैं कन्फ्यूज हूं। यदि मैं किन्नर नरेश (खास) बन
गया, तो कितने
दिनों का टिकाऊ समर्थन मांगना पड़ेगा। अभी तक तो दे दनादन कांग्रेसी घुड़की मिल
रही है। तभी ‘संजय’ की उधार दृष्टि से मैंने इलाहबाद को निहारा।
जहां संभवतः नमो और आशुतोष युद्धम् शरणम् गच्छामि। ऐसे में मेरे जैसे निठल्ले
चिंतित हैं, कि इनके रहते
अपने दशहरी, लंगड़े का
क्या होगा। सो मैं कौन सा मुखौटा लगाऊं, है कोई सॉल्यूशन आपके पास।
धनेश कोठारी
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