30.6.14

महामूर्ख हैं शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती-ब्रज की दुनिया

30 जून,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,मैं नहीं जानता कि हिन्दुओं के लिए पूजनीय शंकराचार्यों का चुनाव किस प्रक्रिया के तहत किया जाता है लेकिन मैं यह जरूर जानता हूँ कि वह प्रक्रिया दोषपूर्ण है। क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो एक दंभी,घमंडी और महामूर्ख द्वारिका पीठ का स्वामी नहीं होता। आपने एकदम सही समझा है मैं स्वरूपानंद सरस्वती की ही बात कर रहा हूँ जो न तो ज्ञानी हैं,न ही तत्त्वदर्शी,न तो ब्रह्मज्ञानी हैं और न ही आत्मज्ञानी फिर भी शंकराचार्य हैं और उस शंकराचार्य के उत्तराधिकारी माने जाते हैं जिसने कभी पूरी दुनिया से कहा कि ब्रह्मास्मि। तत् त्वमसि।। इन श्रीमान् ने वैसे तो पहले भी जमकर मूर्खतापूर्ण बातें की हैं लेकिन पिछले कुछ दिनों में तो इन्होंने हद ही कर दी है।

मित्रों,इन श्रीमान् का कहना है कि चूँकि साईं बाबा का जन्म एक मुस्लिम परिवार में हुआ था इसलिए हिन्दुओं को उनकी पूजा नहीं करनी चाहिए। मैं नहीं जानता कि स्वरूपानंद ने कहाँ से इस तथ्य का पता लगाता लेकिन अगर यह सत्य भी है तो इसमें कोई संदेह नहीं कि साईं बाबा एक महामानव थे। हम उनको राम और कृष्ण की श्रेणी में तो नहीं रख सकते लेकिन कबीर और रामकृष्ण परमहंस जैसे संतों की श्रेणी में तो रख ही सकते हैं। हिन्दू धर्म में महत्वपूर्ण यह नहीं रहा है कि कोई जन्मना क्या था बल्कि महत्त्व इस बात का रहा है कि कोई कर्मणा क्या था। रावण तो जन्मना ब्राह्मण था लेकिन हम उसको नहीं पूजते। महान हिन्दू संन्यासी स्वामी विवेकानंद ने तो यहाँ तक कहा है कि अगर वे ईसा को सूली चढ़ाने के समय मौजूद होते तो उनके रक्त को अपने माथे पर लगाते और अपने रक्त से उनके चरण धोते तो क्या विवेकानंद पर माता काली नाराज हो गईँ? स्वामी स्वरूपानंद को कैसे पता चला कि राम उमा भारती से नाराज हैं? क्या राम ने स्वयं आकर उनको इस बात की जानकारी दी? क्या स्वरूपानंद अन्य लोगों को भी राम के दर्शन करवा सकते हैं?

मित्रों,हम हिन्दू शुरू से ही महामानवों के साथ-साथ पशु-पक्षी,पेड़-पौधों और धरती के कुछ भू-भागों,मिट्टी पत्थरों के पिंडों तक की पूजा करते आ रहे हैं फिर मानव तो रामकृष्ण परमहंस के अनुसार ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है और साईं तो महामानव थे। हम साईं के शरीर की पूजा नहीं करते बल्कि उनकी त्यागपूर्ण जिंदगी और कृतियों को पूजते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार अगर कोई अच्छे लोगों के प्रति श्रद्धा नहीं रखता और बुरे लोगों से नफरत नहीं करता तो वह मानव कहलाने के योग्य ही नहीं है। फिर कोई कैसे साईं के प्रति श्रद्धा नहीं रखे?

मित्रों,इस स्वरूपानंद ने तो गंगा पर भी एक धर्म विशेष का एकाधिकार बता दिया है। कितनी बड़ी मूर्खता है यह! क्या यह महामूर्खता नहीं है? क्या हवा,नदी और धरती पर भी किसी का एकाधिकार हो सकता है? मैं ऐसे कई मुसलमानों को जानता हूँ जिनके घर गंगा किनारे हैं और जो सालोंभर गंगा स्नान करते हैं तो क्या इससे गंगा हिन्दुओं के लिए पूजनीय नहीं रही? यह आदमी बार-बार शास्त्रों का उदाहरण देता है। ऐसे ही लोगों के लिए कबीर ने कभी कहा था कि
मैं कहता हूँ आँखन देखी,तू कहता कागद की लेखी,
तेरा मेरा मनुआ एक कैसे होई रे।
लेकिन लगता है कि इन श्रीमान् ने कबीर के इस दोहे को कभी पढ़ा ही नहीं है। अनुभव हमेशा ज्ञान से बेहतर होता है ये श्रीमान् यह भी नहीं जानते। श्रीमान् शास्त्रों में संतोषी माता और साईं बाबा को ढूंढ़ रहे हैं। मैं नहीं श्री रामकृष्ण परमहंस कहते हैं कि चूँकि सारे शास्त्रों में मनमाफिक हेराफेरी की गई है इसलिए वे झूठे हैं। उनके अनुसार ईश्वर गूंगे का गुड़ है इसलिए उसका वर्णन किया ही नहीं जा सकता। ईश्वर का वास तो अच्छे गुणों और कर्मों में हैं। कोई तो पढ़ाओ इस स्वरूपानंद को रामकृष्ण साहित्य।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

भक्त और भगवान

भक्त और भगवान 

भक्त -भक्त अपने आराध्य का गुणगान करता है और उसकी शरण लेना चाहता है।
       भक्त अपने आराध्य की कृपा से मनुष्यों के कष्ट दूर करने के प्रयास में लगा
       रहता है। भक्त भगवान को रिझाने में अपना जीवन समर्पण कर देता है। भक्त
       मानव कल्याण के लिए पुरुषार्थ करता है और अपने शक्ति स्त्रोत भगवान से
       प्रार्थना करता है। भक्त भगवान का पूजन -अर्चन करता है और अपने स्वामी
       की सेवा में प्रस्तुत रहता है। मगर मनुष्य अपने लौकिक स्वार्थ को पूरा करने
      के उद्देश्य को लेकर इन दोनों के समीप जाता है और धन या पदार्थ के बल से
      इनकी प्रसन्नता चाहता है और भक्ति मार्ग में यह कृत्य आडम्बर कहलाता है।

      भक्त अपने गुणगान,धन ,सम्मान या किसी पदार्थ को पाकर प्रसन्न नहीं होता
      वह तो उसके आराध्य को प्रसन्न करने के प्रयास करने वाले सच्चे मनुष्य से
      हमेशा खुश रहता है और भगवान से उसके कल्याण की दुआ करता है। भक्त
      भगवान की महिमा का गान सुन कर प्रसन्न हो जाता है ,स्व-प्रशंसा उसे खिन्न
     कर देती है। भक्त की चाह भगवान के चरण वंदन और दर्शन की रहती है वह तो
     अपने स्वामी के बराबर स्थान पर स्वप्न में भी बैठना नहीं चाहता है मगर मनुष्य
    अपनी अभीष्ट की प्राप्ति के लिये उसे भगवान मान लेता है,बहुत स्वार्थी है ना मनुष्य !

    भक्त भगवान की लीला का अनुकरण नहीं करता है यदि उसके कारण से मानव जाति
     का दू:ख दूर हो जाता है तो वह अपने स्वामी की कृपा मानता है मगर इंसान अपने
    लालच के कारण भक्त को महिमा मंडित करने में लग जाता है। क्या कोई भक्त खुद
    को भगवान कहलाने की इच्छा रखता है ?क्या कोई भक्त खुद को भगवान के स्थान
    पर विराजमान होते देखना चाहता है ? तो फिर भक्त की इच्छा क्या रहती है ?क्या
   भक्त खुद की मृत्यु के उपरांत उसकी याद में मंदिर,मूर्ति या प्रतिष्ठा चाहता है ?भक्त
    का जीवन या लौकिक शरीर भगवान को समर्पित होता है उसका रोम -रोम हर क्षण
    अपने आराध्य के नाम स्मरण में बीतता है यह तो मनुष्य का स्वार्थ है जिस कारण
    से भक्त को भगवान मान उसे महिमा मंडित करता है। हमारी आस्था और विश्वास
    का केंद्र  सर्व शक्तिमान भगवान है और भक्त का जीवन चरित्र  अनुकरण के योग्य
    होता है।

भगवान - भगवान को सबसे अधिक प्रिय उसका भक्त लगता है। भगवान अपने ह्रदय
      में भक्त को स्थान देता है। जो मनुष्य भगवान के भक्त की सेवा करता है भगवान
      उस पर प्रसन्न हो जाते हैं। भक्त का पूजन,सत्कार और आदर भगवान खुद चाहते
     हैं। भगवान खुद अपने भक्त की रक्षा में लगे रहते हैं ,उसके कष्टों को दूर करते हैं।
     भगवान तो खुद भक्त की गाथा में तल्लीन रहते हैं परन्तु भगवान यह नहीं कहते
    हैं कि भक्त सम्पूर्ण सत्य स्वरूप है। भगवान तो उसे अपना अंश मानते हैं। भक्त
    भगवान में समा जाये यही भक्ति की पराकाष्ठा है।

मनुष्य भगवान की माया में उलझ कर रह जाता है। उसे अपने स्वार्थ के अनुकूल जो
अच्छा लगता है उसके कीर्तन में लग जाता है उसे भक्त या भगवान से खास लेना -देना
नहीं है। मनुष्य तो ठगना चाहता है चाहे वह भक्त हो या भगवान मगर सच्चाई यह है कि
मनुष्य से ना भक्त ठगा गया है और ना ही भगवान।        
     

27.6.14

85 %लीकेज वाला ट्यूब है अर्थ व्यवस्था

85 %लीकेज वाला ट्यूब है अर्थ व्यवस्था 

श्री राजीव गांधी ने कहा था सरकार रुपया खर्च करती है मगर आम जनता को
पंद्रह पैसे ही मिलते है !!बाकी पैसे कहाँ जाते हैं ?इसका उत्तर वो नहीं दे पाये थे।
ट्यूब में एक पंक्चर हो तो गाडी चलती नहीं है फिर 85 %पंक्चर अर्थ व्यवस्था
का कायाकल्प कैसे होगा ?अर्थव्यवस्था में इतने पंक्चर किसने हो जाने दिये ?

    रुपया सरकार की तिजोरी से निकलते ही घिसना चालू हो जाता है। भ्रष्ट
नेता,भ्रष्ट उद्योगपति ,भ्रष्ट नौकरशाही और भ्रष्ट हो रही न्याय व्यवस्था और
इनके दलदल में फँसे हैं 80%भारतीय जो इसलिए ईमानदार हैं क्योंकि उनके
पास तो अर्थ है ही नहीं।

   देश की जन कल्याणकारी योजनायें जनता के लिए तमाशा और उससे जुड़े
भ्रष्ट लोगों के लिए लॉटरी है। देश की नौकरशाही कागजों पर फूल बनाती है और
फाइलों पर चिपका देती है। जनता इसलिए खुश होती है कि ये कागज के फूल
मुरझाते नहीं हैं और बाकी चैनल इसलिए खुश है कि उन्हें असल में खुशबु आती
है।
   हमारी वितरण व्यवस्था की सबसे बड़ी खामी यह है कि उसका recheck का
बटन अँधा ,बहरा और लकवाग्रस्त है। राशन का अनाज बाजार में बिक जाता
है  या बड़ी मिलों में सप्लाई हो जाता है। अनाज सरंक्षण की व्यवस्था हर गरीब
के घर में है परन्तु उसको अनुपयोगी समझ लिया गया है। क्या कोई भी सरकार
रातों रात भंडारण और सरँक्षण व्यवस्था तैयार कर लेगी ?तो फिर उस अनाज
का सड़ना और बाजार के हवाले होना तय है।

  BPL से निचे का बड़ा वर्ग जिसके पास ना गाँव है ,ना समाज ;वह तो फुटपाथ
पर जीता और मर जाता है या जंगलों में गुजर बसर कर जिंदगी घसीट रहा है ,
उसके जीवन में उजाला कैसे होगा क्योंकि सरकार के पास उसके लिए कोई
योजना है ही नहीं। यह वर्ग सरकार की वितरण व्यवस्था के दायरे में कैसे और
कब आयेगा ?

   सरकार की सफलता का पैमाना हम बढ़ते स्टॉक मार्केट,बढ़ते अरबपति और
करोड़पति,बड़े उद्योग धंधों में देखते हैं मगर हम इस चकाचोंध में यह भूल जाते
हैं कि करोड़ों भारतीय बहुत पीछे छूटते जा रहे हैं। सरकार की कोशिश यह होनी
चाहिये कि पीछे छूटने वाले का रुक कर साथ करे और उन्हें साथ लेकर चले ना
कि उन पर रहम की रोटी बरसायें।     

25.6.14

महँगाई से लड़ने का तरीका क्या हो

महँगाई से लड़ने का तरीका क्या हो 

महँगाई नहीं रोक पाने में अभी तक सरकारें असफल क्यों रही है?

हमारा रुपया खर्च कहाँ होता है और उसे कहाँ खर्च करना होगा ,यह व्यवस्था
ही महँगाई को कम करेगी। भारत के लोग उधार के रूपये पर कितने दिन घी
पियेंगे।

हमारे पास पेट्रोल नहीं है और बाहर से खरीद करना पड़ता है फिर भी हम
पेट्रोल की खपत को कम करने के उपाय नहीं ढूंढते हैं.हम पब्लिक ट्रांसपोर्ट
की सेवा को दुरस्त नहीं कर पाते हैं,सड़कों को दुरस्त नहीं कर पाते हैं,यातायात
व्यवस्था को सहज नहीं बना पा रहे हैं, निजी कारों को सब्सिडी भाव से ही
पेट्रोल ,गैस  या डीजल की आपूर्ति कर रहे हैं। जब तक पेट्रोल की बचत के
तरीके नहीं खोजे जायेंगे तब तक हमारे धन का दुरूपयोग नहीं रुकेगा और
महँगाई भी नहीं रुकेगी। क्या पेट्रोल की राशनिंग का वक्त नहीं आ गया है ?
क्या 80 % भारतीयों के पास कार है ,नहीं हैं ना तो 20% रहीशो को सब्सिडी
वाला पेट्रोल,डीजल ,गैस उपलब्ध क्यों ?

आधुनिकीकरण,उदारीकरण ने हमें जेब खाली होने पर भी खर्च करने को
प्रोत्साहित किया। उधार लेकर जलसे करना सिखाया। गरीब के शौक को
बढ़ावा देना सामाजिक अपराध की श्रेणी में आता है। हम ब्याज पर पैसा
लेकर शौक पुरे करते हैं और ब्याज को चुकाने के लिए कर्ज लेते हैं। हमारे
बजट का बड़ा हिस्सा ब्याज चुकाने में चला जाता है और इस कारण से
रुपया मूल्य खोता जा रहा है।

बड़े उद्योगो को बढ़ावा दिया मगर पाया क्या ?सिवाय पूँजी के केन्द्रीयकरण के।
आज बहुत से बड़े उद्योगपति देश की बैंकों का ब्याज और मूल रकम कुछ भी नहीं
चूका रहे हैं तो बैंकों का घाटा पूरा कैसे होगा और उस बोझ को कौन ढोयेगा ?
80%गरीब भारतीय ही ना। बड़े उद्योगो को सब्सिडी क्यों ?उन्हें धंधा बढ़ाना है
तो सरकार सहायता दे और 80%वाले अपनी मेहनत से व्यापार करे!! क्या
किसानों,फुटकर व्यापारियों ,अति लघु ,कुटीर और लघु उद्योगो को बिना
ब्याज के कोई बैंक कर्ज देती है। 

हम अच्छी बन्दुक और तोप भी अपने यहाँ नहीं बना पा रहे हैं दूसरे स्वचालित
सामरिक उपकरणों की बात क्या करे। आज हमारा रुपया सामरिक उपकरण
पर खर्च हो रहा है। विकसित देश भारी मुनाफे पर सामरिक उपकरण हमें
बेचते हैं और हम उनकी पुरानी टेक्नोलॉजी को ऊँचे दाम देकर खुश होते हैं और
उनके कबाड़ को खरीद कर पैसा चुकाते हैं ?कब तक चलेगा ऐसा ??

महँगाई का भार गरीब जनता पर ना पड़े इसका ख्याल मोदी सरकार को करना
होगा ?कड़वी दवा उनके लिए जरुरी है जो तीन लाख सालाना से ज्यादा आय कमाते
हैं। 50-100 रुपया दिन के कमाने वाले पर कड़वी दवा इस्तेमाल करने की भूल
करने पर इस सरकार का ५साल बाद क्या हश्र होगा ?जिस तरह काँग्रेस गयी ,यह
भी चली जायेगी।

नेताओं और नौकरशाहों के काले धन पर हाथ डालो,राष्ट्रिय बैंकों का कर्ज ना चुकाने
वाले बड़े मगरमच्छों के जबड़े पकड़ो, कामचोर और रिश्वत खोर अफसरों को घर
बैठाओ ,जमाखोरी वाले से राजनैतिक साँठगाँठ ख़त्म करो। प्रशासनिक जबाबदेही
के मानक तय करो। गरीबी भगाने के लिए कागजी योजनायें आज तक असफल
हुयी है ,समय पुरुषार्थ को पुकार रहा है।    

      

23.6.14

न तो गुमराह हों और न गुमराह करें । 
गृह मंत्रालय के आदेश से घबराये जयललिता , द्रमुक और उमर अब्दुल्ला से पूछा जाए कि जब वे इंग्लिश में बात करते हैं तब उनकी क्षेत्रीय भाषाओँ और अस्मिताओं को खतरा नहीं पैदा होता ? आखिर हिंदी का सबसे ज्यादा प्रचार तो हिंदी फ़िल्में कर रही हैं तो क्या हिंदी फिल्मों को भी वे बंद करना शुरू कर देंगे तब उनकी क्षेत्रीय भाषाओँ की फ़िल्में गैर हिंदी  भाषी क्षेत्रों में चलती हैं क्या लोग उनका विरोध शुरू नहीं कर देंगे आखिर यदि  हम इंग्लिश से अपनी भाषाओँ पर खतरा महसूस नहीं करते तो फिर हिंदी  से क्यों ? देश को यदि किसी भाषा से सबसे ज्यादा खतरा है तो वह इंग्लिश से है क्योंकि यही भाषा हमारी क्षेत्रीय भाषाओँ सहित हिंदी संस्कृत को निगल रही है । आखिर एक युग वह था जब हमारे भारतीय राजा आपस में लड़ते रहते थे और अंग्रेजो ने अपने पाँव  पसार कर हमें गुलाम बना दिया आज हम आपस में लड़ रहे हैं और उनकी भाषा इंग्लिश हमें और हमारी भाषा को गुलाम बना रहे हैं । आपस में झगड़ कर हम अनायास ही एक विदेशी भाषा को जगह दे रहे हैं और हिंदी  को दर किनार कर रहे हैं । लगता है हमने इतिहास से कुछ नहीं सीखा ।  कभी कहा जाता था कि  भाजपा आ गयी तो देश टूट जाएगा , कभी कहा जाता रहा कि मोदी आ गए तो देश में आग लग जायेगी , आज विपक्षी खुद जगह जगह आग लगा रहे हैं कही पुतले फूंक रहे हैं कहीं बसें फूंक रहे हैं , सरकार को पानी डालना पड़  रहा है इस आग को बुझाने के लिए । कइयों ने कहा वे देश छोड़ देंगे यदि मोदी पी एम बन गए , आज वे गायब हैं । पार्टियां अंदर अंदर भयभीत हैं कि कहीं उनका अस्तित्व ही खत्म न हो जाए इसलिए फिर से ऊटपटांग काम  कर रही हैं । अब भाषा के नाम पर डराया जा रहा है । उधर कभी कहा जाता है कि  यदि कश्मीर से धारा तीन सौ सत्तर हटाई गयी तो कश्मीर अलग हो जाएगा । आप यकीन मानें , अब समय आ गया है कि  इन कृत्रिम भयों से निजात पायी जाए । न धारा ३७० हटने से कश्मीर अलग होगा , न हिंदी के विस्तार से क्षेत्रीय भाषाएँ ख़त्म होंगी क्योंकि अनेक भाषाओं का होना किसी देश की ख़ास पहचान होता है । हाल के नए शोधों के अनुसार एक से अधिक भाषाएँ जानने वाले लोग ज्यादा बुद्धिमान होते हैं और उनके शोध कार्य ज्यादा परिपक्व होते हैं । यह शोध पश्चिम की तरफ से किया गया है जिसे हम ज्यादा तरजीह देते हैं । शोध के नतीजों के अनुसार इंग्लैंड आदि देशों के नागरिकों को अब इंग्लिश के अलावा अन्य भाषाओं को भी पढ़ने की सलाह दी जा रही है ताकि उनके शोध ज्यादा परिपक्व हो सकें विशेषतया कला विषयों के क्षेत्र में । इसलिए हिंदी किसी भाषा को नहीं निगल रही बल्कि सरकार क्षेत्रीय भाषाओँ को भी बचाये रखने का पूर्ण प्रयत्न करेगी । इसलिए कृपया न तो गुमराह हों और न गुमराह करें । 

22.6.14

डॉ. मंजू गीता मिश्र के यहाँ पुरुष करता है महिलाओं का अल्ट्रासाउण्ड-ब्रज की दुनिया

पटना,ब्रजकिशोर सिंह। पटना के कदमकुआँ का जगतप्रसिद्ध जगतनारायण रोड। नाम बड़े और दर्शन छोटे चारों तरफ गंदगी-ही-गंदगी। यहीं पर स्थित है पटना की सबसे प्रसिद्ध स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. मंजू गीता मिश्र का महलनुमा क्लिनिक,एमजीएम। दिन शनिवार,तारीख-21 जून,2014। दिखाने के लिए महिलाओं की भीड़। डॉक्टर साहिबा एक सुर में सारी नई मरीजों को खून जाँच और अल्ट्रासाउण्ड लिख रही हैं। एक असिस्टेंट भी है जो नौसिखुआ मालूम होती है क्योंकि वो बार-बार दवाओं का उच्चारण गलत लिख देती है। पूछने पर महिलाएँ और उनके परिजन डॉक्टर साहिबा की ईलाज से काफी संतुष्ट दिखे। यहाँ मरीजों के बाहर जाने की जरुरत नहीं सारी जाँच यहीं पर हो जाती है। मगर तभी थोड़ी देर बाद सीमा अल्ट्रासाउण्ड जो उसी परिसर में स्थित है में कुछ हंगामा होने लगता है। पता चला कि इसका नाम मरीजों को धोखा देने के लिए सीमा अल्ट्रासाउण्ड रखा गया है दरअसल भीतर में एक पुरुष डॉक्टर महिलाओं के गर्भाशय और गुप्तांगों का अल्ट्रासाउण्ड कर रहा है। जब एक महिला मरीज के पति ने इस पर आपत्ति की तो डॉक्टर ने कहा कि मेडिकल क्षेत्र में तो ऐसा होता है।

वहाँ उपस्थित महिलाओं से जब हमने पूछा कि आप एक पुरुष डॉक्टर से अल्ट्रासाउण्ड करवाने में असहज तो नहीं महसूस करतीं तो उन्होंने कहा कि करती तो हैं मगर करें क्या। मंजू गीता जी से दिखवाना है तो सहना ही पड़ेगा लेकिन अगर कोई महिला अल्ट्रासाउण्ड करती तो जरूर ज्यादा अच्छा होता। उनका यह भी कहना था कि पटना में हर जगह तो महिला डॉक्टर ही अल्ट्रासाउण्ड करती है फिर यहाँ पर पुरुष क्यों? उन महिलाओं में से कुछ तो मुसलमान भी थीं जिनका मजहब इन सब बातों को लेकर काफी सख्त है। इस बारे में जब डॉ. मंजू गीता मिश्र से बात करने की कोशिश की गई तो वे ओटी में व्यस्त रहने के कारण उपलब्ध नहीं हो सकीं।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

आचरण और परिणाम

आचरण और परिणाम  

गाँव के स्कुल में पढाई अच्छी नहीं हो रही थी। गाँव वालों ने अच्छे मुख्य आचार्य 
और अध्यापकों की व्यवस्था के लिए गुहार लगाईं। उनकी शिकायत थी कि स्कुल 
में अध्यापक समय पर नहीं आते हैं और आने पर भी पढ़ाते नहीं हैं। बच्चे अनुशासन 
में नहीं हैं,पढ़ने की जगह नकल करके पास होना चाहते हैं। स्कुल प्रांगण में गंदगी 
रहती है ,पीने के पानी की समुचित व्यवस्था नहीं है। गाँव वालों के पास समस्याओं 
का ढेर था और उनकी माँग थी कि अच्छा आचार्य और अच्छे अध्यापक स्कुल में 
नियुक्त किये जाये। वे सब वर्तमान व्यवस्था से नाखुश थे। सरकार ने उनकी बात 
मान ली और आचार्य और अध्यापकों की नयी भर्ती कर दी। 

        नए आचार्य ने गाँव सभा बुलवाई और उनसे उनकी मांगें पूछी। गाँव वालों 
ने उपरोक्त बातें दोहरा दी। नए आचार्य ने गाँव वालों को आश्वस्त किया कि बदलाव 
लाया जायेगा। 

अगले दिन जो बच्चे स्कुल में समय पर नहीं आये थे उन्हें समय पर आने के लिए 
कहकर उस दिन घर लौटा दिया।जो बच्चे घर लौट आये थे उनके अभिभावकों को 
यह दंड अनुचित लगा। उनका मानना था कि १५--२० मिनिट देर से आने वाले बच्चों 
को क्लास में बैठाना चाहिए था। 

उसके बाद आचार्य ने उन बच्चों को स्कुल से निकाल दिया जो स्कुल यूनिफॉर्म में 
नहीं आये थे। जो बच्चे स्कुल यूनिफॉर्म में नहीं गए थे उन्हें वापिस घर लौटा देख 
उनके अभिभावक चिढ गये और नए आचार्य को कोसने लगे। 

उसके कुछ दिन बाद आचार्य ने उन बच्चों को दण्ड दिया जो स्कुल प्राँगण में गंदगी 
कर रहे थे। गाँव वालों को जब आचार्य द्वारा दण्ड देने की बात का पता चला तो गाँव 
वाले गुस्से में आ गये। 

२-३ दिन बाद अध्यापकों ने जो छात्र होमवर्क नहीं करके लाये थे उनको ३-४ घंटे 
स्कुल में ज्यादा रोक कर रखा और होमवर्क करवाया। बच्चो को देरी से स्कुल से 
छोड़ने की बात पर गाँव के लोग नए आचार्य को बुरा भला कहने लगे। 

त्रैमासिक परीक्षा में स्कुल के अधिकांश बच्चे असफल रहे ,ज्यादातर बच्चों के 
परिणाम पत्र में लाल निशान लगे थे। अपने -अपने लाडलों को नापास देख  
अभिभावक धीरज खो बैठे और पुरानी व्यवस्था को अच्छा ठहराने लगे। वे सब 
मिलकर शिक्षा अधिकारी के पास आचार्य की शिकायत लेकर पहुँच गये। 

शिक्षा अधिकारी ने स्कुल में आकर सारी परिस्थिति का जायजा लिया और 
गाँव वालों से बोले -नए आचार्य और अध्यापक व्यवस्था सुधारने में लगे हैं ,आप 
चिंतित ना हो। अभी जो परिणाम दिखने में आ रहे हैं भले ही ख़राब लग रहे हो 
मगर लगातार चलने वाली प्रक्रिया से अच्छे होते जायेंगे।

गाँव के बुद्धिजीवियों,पंचों ,खबरियों और पुराने स्कुल व्यवस्थापकों को यह 
बात गले नहीं उत्तर रही थी ,वे सभी गलत आचरण को त्यागे बिना अच्छे दिन 
लाये जाने के सपने देख रहे थे और नयी व्यवस्था को कोस रहे थे।      

21.6.14

सुशासन बाबू गए मांझी भी चले जाएंगे मगर क्या कुबतपुर में बिजली आएगी?-ब्रज की दुनिया

21-06-2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,मैं पहले के कई आलेखों में अपनी ससुराल के गांव यानि वैशाली जिले के देसरी प्रखंड के कुबतपुर (भिखनपुरा) का जिक्र कर चुका हूँ। इन आलेखों में आपको मैंने बताया है कि इस गांव की बिजली सुशासन बाबू के शासन की शुरुआत में ही चली गई। वजह यह थी कि ट्रांसफार्मर जल गया था और ठेकेदार रंजन सिंह 20000 रु. घूस में मांग रहा था। बाद में मेरे लिखने के बाद ठेकेदार और जूनियर इंजीनियर गांव आए। दोनों ने इसी साल 1 मई को खंभों पर से तार उतरवा दिया और जब मैंने जेई को फोन करके पूछा तो उन्होंने बताया कि अब इस तार की जरुरत नहीं है क्योंकि गांव में अब तीन फेजवाली बिजली आएगी। बाद में ट्रांसफार्मर भी लगा दिया गया लेकिन पोलों पर से तार अभी भी गायब है।
मित्रों,कभी ठेकेदार और जेई कहते हैं कि छोटे ट्रांसफार्मरों द्वारा बिजली आपूर्ति की जाएगी जैसा कि राजीव गांधी विद्युतीकरण परियोजना के अंतर्गत किया जाता है तो भी कभी कहते हैं कि बड़े ट्रांसफार्मर पर से बिजली दी जाएगी। इस बीच वे खंभों पर से दौड़ाने के लिए उपभोक्ताओं से ही तार मांग रहे हैं। कई उपभोक्ता तार खरीदकर उनका इंतजार भी कर रहे हैं लेकिन पिछले दो सप्ताह से उनका कोई अता-पता नहीं है। इस बीच जब मैंने जेई से उसी नंबर पर संपर्क करना चाहा जिस नंबर पर 1 मई को बात हुई थी तो उस नंबर से जो कोई भी फोन उठाता है रांग नंबर कहकर फोन काट देता है। इतना ही नहीं जिले के कार्यपालक अभियंता रामेश्वर सिंह का नंबर भी अब नहीं लग रहा है और डायल करने पर उधर से घोषणा सुनाई देती है कि इस नंबर से कॉल डाईवर्ट कर दिया गया है और फिर फोन कट जाता है। पता ही चल रहा है क्या किया जाए और किससे बात की जाए। बिजली मंत्री को फोन करिए तो पीए कभी कहता है कि साहब हाउस में हैं तो कभी कहता है कि मीटिंग कर रहे हैं। कुछ ऐसा ही हाल वर्ष 2006 में तक माखनलाल पत्रकारिता विश्ववि. के नोएडा परिसर का था जब मैंने वहाँ नामांकन लिया है। वहाँ के निदेशक अशोक टंडन हमेशा स्टाफ की मीटिंग करते रहते लेकिन विश्ववि. में कोई सुधार नहीं हो रहा था। तब मैं छात्रों के साथ मीटिंग में ही घुस गया था और कहा था कि कभी हमारी भी तो सुनिए ऐसे मीटिंग से क्या लाभ? फिर तो जो हुआ वह इतिहास है। परिसर बदला और फिर बहुत कुछ बदल गया।
मित्रों,सुशासन बाबू तो चले गए और अब जीतन राम मांझी बिहार के मुख्यमंत्री बने हैं लेकिन मुझे नहीं लगता कि इनके शासन-काल में भी कुबतपुर के लोगों को बिजली नसीब हो पाएगी। कहीं कोई सुननेवाला नहीं है। तंत्र के संचालक अधिकारी जैसे मन होता है वैसे काम करते हैं। राज्य का सबसे भ्रष्ट विभाग बिजली विभाग राज्य के लोगों को सहूलियत नहीं देता बल्कि झटके देता है। बिना रिश्वत दिए शहर के घरों में भी बिजली नहीं आती है तो फिर कुबतपुर में कैसे आएगी?मैं समझता हूँ कि कुबतपुर में बिजली आपूर्ति नीतीश जी के शासन का भी लिटमस टेस्ट था और मांझी जी के शासन का भी लिटमस टेस्ट है। देखना है कि मांझी सरकार इस टेस्ट में पास होती है या नहीं। इस गांव में बिना रिश्वत दिए बिजली आती है या नहीं। कुबतपुर में बिजली का आना या न आ पाना सिर्फ इस बात का फैसला नहीं करेगा कि राज्य में सुशासन है या नहीं बल्कि इस बात का भी निर्णय करेगा कि राज्य में शासन नाम की कोई चीज है भी या नहीं या फिर निरी अराजकता है।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

सुशासन बाबू गए मांझी भी चले जाएंगे मगर क्या कुबतपुर में बिजली आएगी?-ब्रज की दुनिया

21-06-2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,मैं पहले के कई आलेखों में अपनी ससुराल के गांव यानि वैशाली जिले के देसरी प्रखंड के कुबतपुर (भिखनपुरा) का जिक्र कर चुका हूँ। इन आलेखों में आपको मैंने बताया है कि इस गांव की बिजली सुशासन बाबू के शासन की शुरुआत में ही चली गई। वजह यह थी कि ट्रांसफार्मर जल गया था और ठेकेदार रंजन सिंह 20000 रु. घूस में मांग रहा था। बाद में मेरे लिखने के बाद ठेकेदार और जूनियर इंजीनियर गांव आए। दोनों ने इसी साल 1 मई को खंभों पर से तार उतरवा दिया और जब मैंने जेई को फोन करके पूछा तो उन्होंने बताया कि अब इस तार की जरुरत नहीं है क्योंकि गांव में अब तीन फेजवाली बिजली आएगी। बाद में ट्रांसफार्मर भी लगा दिया गया लेकिन पोलों पर से तार अभी भी गायब है।
मित्रों,कभी ठेकेदार और जेई कहते हैं कि छोटे ट्रांसफार्मरों द्वारा बिजली आपूर्ति की जाएगी जैसा कि राजीव गांधी विद्युतीकरण परियोजना के अंतर्गत किया जाता है तो भी कभी कहते हैं कि बड़े ट्रांसफार्मर पर से बिजली दी जाएगी। इस बीच वे खंभों पर से दौड़ाने के लिए उपभोक्ताओं से ही तार मांग रहे हैं। कई उपभोक्ता तार खरीदकर उनका इंतजार भी कर रहे हैं लेकिन पिछले दो सप्ताह से उनका कोई अता-पता नहीं है। इस बीच जब मैंने जेई से उसी नंबर पर संपर्क करना चाहा जिस नंबर पर 1 मई को बात हुई थी तो उस नंबर से जो कोई भी फोन उठाता है रांग नंबर कहकर फोन काट देता है। इतना ही नहीं जिले के कार्यपालक अभियंता रामेश्वर सिंह का नंबर भी अब नहीं लग रहा है और डायल करने पर उधर से घोषणा सुनाई देती है कि इस नंबर से कॉल डाईवर्ट कर दिया गया है और फिर फोन कट जाता है। पता ही चल रहा है क्या किया जाए और किससे बात की जाए। बिजली मंत्री को फोन करिए तो पीए कभी कहता है कि साहब हाउस में हैं तो कभी कहता है कि मीटिंग कर रहे हैं। कुछ ऐसा ही हाल वर्ष 2006 में तक माखनलाल पत्रकारिता विश्ववि. के नोएडा परिसर का था जब मैंने वहाँ नामांकन लिया है। वहाँ के निदेशक अशोक टंडन हमेशा स्टाफ की मीटिंग करते रहते लेकिन विश्ववि. में कोई सुधार नहीं हो रहा था। तब मैं छात्रों के साथ मीटिंग में ही घुस गया था और कहा था कि कभी हमारी भी तो सुनिए ऐसे मीटिंग से क्या लाभ? फिर तो जो हुआ वह इतिहास है। परिसर बदला और फिर बहुत कुछ बदल गया।
मित्रों,सुशासन बाबू तो चले गए और अब जीतन राम मांझी बिहार के मुख्यमंत्री बने हैं लेकिन मुझे नहीं लगता कि इनके शासन-काल में भी कुबतपुर के लोगों को बिजली नसीब हो पाएगी। कहीं कोई सुननेवाला नहीं है। तंत्र के संचालक अधिकारी जैसे मन होता है वैसे काम करते हैं। राज्य का सबसे भ्रष्ट विभाग बिजली विभाग राज्य के लोगों को सहूलियत नहीं देता बल्कि झटके देता है। बिना रिश्वत दिए शहर के घरों में भी बिजली नहीं आती है तो फिर कुबतपुर में कैसे आएगी?मैं समझता हूँ कि कुबतपुर में बिजली आपूर्ति नीतीश जी के शासन का भी लिटमस टेस्ट था और मांझी जी के शासन का भी लिटमस टेस्ट है। देखना है कि मांझी सरकार इस टेस्ट में पास होती है या नहीं। इस गांव में बिना रिश्वत दिए बिजली आती है या नहीं। कुबतपुर में बिजली का आना या न आ पाना सिर्फ इस बात का फैसला नहीं करेगा कि राज्य में सुशासन है या नहीं बल्कि इस बात का भी निर्णय करेगा कि राज्य में शासन नाम की कोई चीज है भी या नहीं या फिर निरी अराजकता है।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

18.6.14

अपरिग्रह से महँगाई मुक्ति

अपरिग्रह से महँगाई मुक्ति 

बढ़ती हुई महँगाई से गरीब और मध्यम वर्ग तो चिंतित होता ही है परन्तु शासक
दल भी परेशान रहता है। भारत की सरकार एक तरफ पर्याप्त खाद्य भंडार का दावा
करती है फिर भी महंगाई काबू में नहीं आ पाती है,क्यों ?

महँगाई के काबू में ना आने का कारण सरकार के पास वास्तविक आंकड़ों का
अभाव और जनता द्वारा आवश्यक पदार्थों को विकट परिस्थितिके भय से बिना
आवश्यकता के संग्रह करने की प्रवृति है। देश में महँगाई दर और उपभोक्ता सूचकाँक
का आधार वास्तविकता से कोसों दूर है ,हम गरीबी ,महँगाई के मानक वास्तविक आधार
पर तय क्यों नहीं करते हैं?क्या वास्तविकता छिपाने से गरीबी उन्मूलन हुआ है ?हमारे
पास अनाज, दाल,चावल के भण्डार के आँकड़े हो सकते हैं परन्तु किस राज्य को कितनी
मात्रा में और किस समय किस वस्तु की आवश्यकता है,के आँकड़े नहीं है और ना ही
उचित भंडारण और वितरण की व्यवस्था है। भारत में हर साल विपुल मात्रा में धान,
दालें,फल और सब्जियाँ की पैदावार होती है परन्तु उचित भण्डारण व्यवस्था ना तो किसान
के पास है और ना ही सरकार के पास। कंही पर अनाज सड़ रहा है तो किसी जगह फाके
पड़ रहे हैं उचित भंडारण व्यवस्था के अभाव में किसान को पैदावार कम दाम में बेचनी
पड़ती है और सरकार भी भंडारण व्यवस्था के अभाव में हाथ खड़े कर देती है।

जो काम साठ साल में नहीं हुआ या किया गया उसे तुरंत कैसे दुरस्त किया जाये यह एक
यक्ष प्रश्न है जिसका हल खोजने की जिम्मेदारी प्रशासन की है।

जब -जब भी देश में किसी खाद्य सामग्री की कमी होती है तब सबसे पहले उसी वस्तु की
अनावश्यक रूप से जनता द्वारा माँग बढ़ा दी जाती है। जैसे ही जनता किसी वस्तु की
कमी देख अनावश्यक घर में संग्रह करती है तो उस वस्तु से लाभ पाने की आशा में
मौजूदा व्यापारियों के अलावा कई पूँजीपति भी उस वस्तु की जमाखोरी में लग जाते हैं
नतीजा उस वस्तु के भाव अनावश्यक रूप से बढ़ जाते हैं। सरकार के पास जब यह खबर
चींटी की चाल से चलती हुयी पहुँचती है तब वह समीक्षा करने बैठती है और उस वस्तु की
पूर्ति बाजार में बढ़ाने के लिए ऊँचे दाम पर आनन -फानन में आयात करती है ,नतीजा
यह आता है कि देश का धन अनावश्यक रूप से खर्च होता है और नए पुराने जमाखोर
कमा लेते हैं।

अपरिग्रह का सिद्धांत यह सिखाता है कि हमें अनावश्यक रूप से किसी भी वस्तु के संग्रह
से बचना चाहिये क्योंकि वास्तव में उस वस्तु पर उस जरूरतमंद का अधिकार था जिसके
पास ऊँचे भाव में उस वस्तु को क्रय करने की क्षमता नहीं है।  धनी व्यक्ति उस वस्तु को
अनावश्यक रूप से संग्रह करके महँगी और आम आदमी की पहुँच से बाहर करके समस्या
को विकराल बना देता है। हमने देखा जापान में भूकम्प की भयावह आपदा आयी परन्तु
जापानी लोगों ने अपरिग्रह के सिद्धांत का आचरण करके व्यवस्था को सुव्यवस्थित रूप
से चलने दिया,सरकार आपदा निवारण के काम में लगी थी और नागरिक सुव्यवस्था बना
कर सरकार का सहयोग कर रहे थे। हमने अपरिग्रह का सिद्धांत दिया पर आचरण में
नहीं ला रहे हैं यह निकृष्ट आदत ही मुनाफाखोरों को जन्म देती है और महँगाई के रूप को
ज्यादा भयावह बनाती है।                  

17.6.14

इस्तीफा क्यों नहीं दे रहे सोनिया के चमचे राज्यपाल?-ब्रज की दुनिया

17 जून,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,इन दिनों केंद्र की मोदी सरकार जब पुराने राज्यपालों को हटाने जा रही है तो सारे छद्मधर्मनिरपेक्षतावादी दल बेजा शोर मचाने में लगे हैं। जब संप्रग सरकार ने वर्ष 2004 में राजग काल के राज्यपालों को हटाया था तब तो यही लोग तालियाँ पीट रहे थे फिर आज विरोध क्यों? क्या विरोधी दलों का काम सिर्फ विरोध करना है चाहे सरकार के कदम सराहनीय हों और देशहित में हों तब भी? उनको जब मौका मिला था तब उनको भी तो इस संवैधानिक पद का सम्मान करते हुए राजग काल के राज्यपालों को शांतिपूर्वक अपना कार्यकाल पूरा करने देना चाहिए था।

मित्रों,हमने देखा है कि पिछले 10 वर्षों में संप्रग की सरकार में राज्यपाल के पद की गरिमा को रसातल में पहुँचा दिया गया। आरोप तो यहाँ तक लगे कि कांग्रेस आलाकमान पैसे लेकर जैसे-तैसे लोगों को राज्यपाल बना रहा है। तब मैंने 3 अक्टूबर,2011 के अपने एक आलेख राज्यपाल हैं कि आदेशपाल द्वारा यह आरोप भी लगाया था कि राज्यपालों को आदेशपाल बना दिया गया। बिहार का उदाहरण अगर हम लें तो बिहार में लगभग प्रत्येक राज्यपाल के समय विश्वविद्यालयों में उच्चाधिकारियों की नियुक्तियों में खरीद-फरोख्त के आरोप लगे। कई बार पटना उच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा। विश्वविद्यालयों का परीक्षा-विभाग घूसखोरी का अड्डा बन गया।

मित्रों,अगर हम संप्रग काल में नियुक्त सारे राज्यपालों पर नजर डालें तो पता चलता है इनमें से अधिकतर लोगों को सिर्फ इसलिए राज्यपाल बनाया गया क्योंकि ये सोनिया परिवार की चापलूसी करते थे और चहेते थे। कई ऐसे लोग भी राज्यपाल बना दिए गए जिनको विधानसभा और लोकसभा चुनावों में जनता ने सिरे से नकार दिया था। कई लोगों पर तो राज्यपाल बनने से पहले से संगीन घोटालों के भी आरोप थे। सवाल उठता है कि ऐसे नाकारा लोगों को सिर्फ संवैधानिक पद के नाम पर वर्तमान केंद्र सरकार क्यों ढोये? हम जानते हैं कि नरेंद्र मोदी का एजेंडा देश को काफी आगे ले जाने का है और सुशासन देने का तो है ही? क्या ऐसे सोनिया के चमचे लोग मोदी के एजेंडे के लागू होने में कभी सहायक सिद्ध हो सकते हैं?

मित्रों,हम जानते हैं कि संविधान के अनुसार राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यंत पद को धारण करता है। हम यह भी जानते हैं कि संविधान में राष्ट्रपति का मतलब केंद्र सरकार से है तो फिर उचित तो यही होता कि ये लोग अपनी पार्टी के लोकसभा चुनावों में हार के बाद खुद ही पद छोड़ देते और नई सरकार को फिर से अपनी टीम गठित करने का मौका देते। इससे पार्टियों में सद्भावना भी बनी रहती और इनका महामहिमों का सम्मान भी बचा रह जाता। हम यह भी जानते हैं कि राज्यपाल राज्यों में केंद्र का प्रतिनिधि होता है तो फिर जब केंद्र में इनकी चहेती सरकार रही ही नहीं तो ये लोग उसके प्रतिनिधि होने का कैसे जबर्दस्ती दावा कर सकते हैं?

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

15.6.14

देशभक्ति का पतन

देशभक्ति का पतन 

किसी भी देश में देशभक्ति का ह्रास तब होता है जब -

देश का शीर्ष नेतृत्व खुद के स्वार्थों को पूरा करने में डूबा रहता है

देश के राजनेता राजधन की लूट खसोट में लगे रहते हैं

देश की नौकरशाही आराम तलब,कामचोर और भ्रष्ट हो जाती है

देश की न्याय व्यवस्था अंधी ,बूढी और लाचार हो जाती है

देश के संचार साधन धनी लोगों की जबान बन कर सच कहने से कतराने
     लगते हैं

देश के शिक्षक ज्ञान के प्रकाश को पैसों में बेचने का धंधा करते हो 

देश की भाषा और संस्कृति को जाहिल समझ फ़ेंक दिया जाता है

देश के इतिहास पुरुषों की गाथाओं को विकृत करके पढ़ाया जाता है

देश में आक्रमणकारी राजाओं के इतिहास को गौरवशाली ठहराया जाता है

देश के नागरिक स्वदेशी उत्पाद के प्रयोग को छोड़ बाहरी देशों के उत्पादों का
    का अंधाधुंध उपयोग करते हैं

देश के नागरिक स्वधर्म को छोड़ पराये धर्म का गुणगान और स्तुति करने में
    गर्व अनुभव करते हो

देश के नागरिक पुरुषार्थ छोड़ राजकीय सहाय की ओर ताकता हो

देश की सीमाओं की रक्षा में खर्च को व्यर्थ का खर्चा समझा जाता हो

देश की नारी विकृतियों का अनुकरण करने में खुद की शान देखती हो

देश का पुरुष नारी के अपमान से खुद का मनोरन्जन करता हो

देश के धर्म गुरु सांसारिक भोग विलास में डूबे हो

देश का युवक निकम्मे काम में व्यस्त हो या बेरोजगार फिरता हो

देश के वयोवृद्ध स्वजनो से अपमानित हो घर त्यागने को मजबूर हो

देश के बालक सद्ग्रन्थों की जगह मायावी चलचित्रों के जाल में फँसा हो

देश में हर कोई सद आचरण से विमुख और भाषण कला में निपुण हो गया हो

         
   

14.6.14

नाना -नानी पार्क में दो घडी मिलन

ललित -३
(कुछ अपनी, कुछ उनकी )

नाना -नानी पार्क में दो घडी मिलन

मुंबई के उस पार्क का नाम था तो कुछ और पर सब उसे नाना-नानी पार्क के ही घरु नाम से सम्बोधित करते। जब भी १०-५ दनो के लिए मायानगरी आना होता ,मेरा हस्बे-मामूल पार्क का एकाध चक्कर तो लग ही जाता। रोज सुबह शाम उस पार्क में बूढ़े ही बूढ़े नजर आते थे।किसम -किसम के पके चेहरे. किसी के चेहरे में वक्त की बेतरतीब झुर्रियों का झुरमुट होता तो कोई चिकने चेहरे वाला सुकोमल-क्लांत चेहरा लिए होता। कोई लुंगी में तो कोई मटमैली धोती पर पतला सा कुरता पहने। बुजुर्ग महिलाये ज्यादातर मराठी नौ गजी धोती या सूती बिना कलफ की गुड़ी-मुड़ी साड़ी में दिखतीं। हाँ , इक्का दुक्का पंजाबी-सिंधी शलवार -कुर्ती में भी कुछ बूढी औरतों के झुण्ड दीखते थे जो गुरद्वारे मत्था टेकने और लंगर की कार -सेवा करने के लिए घर से निकली होतीं। उनकी बातचीत के विषयों में बहुधा बहू -बेटों की आलोचना , पडोसी की नयी गड्डी से लेकर खांसी -सर्दी के लिए घर में ही जुशांदा -काढ़ा बनाए की विधि तक के किस्से शामिल रहते। बीच में ही ''उमर पचपन,दिल बचपन'' मार्का कोई शोख मिसेस भल्ला जोर से दूसरी को चिकोटी लेते उच्च स्वर में बोलती सुनाई देती -हए ! किन्ने सोणे लग रेओ तुस्सी अज ! की गल्ल है! फेशियल-वेशियल ! जिस पर सामने से ज्वाब आता -चल स्वा ते मिटटीए ! तुसी वेख्या मैनु कदी मेकअप पाते ! ओ तो अज न ! जरा सुब्बेरे स्टीम लित्ति सी ,जुखाम हो रया सी तो ! इस कर के स्किन जरा चिट्टी दिख रही होग्गी। और फिर समवेत खिल-खिलाने का स्वर तो षोडशियों को भी मात दे जाता।
उसी पार्क में रोज टाइम पास करते एक वृद्ध जोड़े पर मेरी आँखे अनायास टिक जाती थी। वे दोनों ७५ पर के थे। मराठी वेशभूषा। बुजुर्ग पुरुष का पहनावा सफ़ेद झक्क धोती,बुश शर्ट और , चॉकलेटी रंग की बंडी और गले में पतला सा गुलूबंद। पार्क के नियमित आने -जाने वालो से पता चला उनका नाम भास्करराव देशमुख था। गौर वर्ण , माथे पर अष्ट गंध का गोल टीका और सर पर मराठी टोपी लगाये वे बिलकुल विठ्ठल मंदिर के कीर्तनकार लगते। वे रिटायर्ड न्यायाधीश थे। बुद्धि की चमक उनकी कांति को और भी बढ़ा देती। उनसे विपरीत श्रीमती देशमुख ने कृष शरीर और सांवला रंग पाया था। पर नैन -नक्श तीखे थे। नाक में एक हीरे की चमकी और गले में मंगलसूत्र के अलावा वे एक पारम्परिक मोहनमाळ भी पहनती थी,जिसके बारे में पंजाबी महिला टोली का आकलन था कि -कम से कम चार तोले की तो होएगी ही। बड़ी स्नेहिल स्वाभाव की धनी श्रीमती देशमुख को सब आज्जी (दादी) कहकर सम्बोधित करतेऔर श्री दशमुख को नाना । आज्जी अपनी थैली से कभी ''उकडलेले शेंगदाने "(उबले मूंगफली के दाने ) तो कभी काजू-किशमिश का प्रसाद तो कभी देशी घी के बेसन के लड्डू मुक्त हाथ से पार्क के स्थाई -अस्थाई सदस्यों को बाँटा करती। एक दिन मेरा नंबर भी लगा। मैं भागवत साहब का नाती हूँ सुनकर बड़ी खुश हुई आज्जी -अहो ऐकले का ! आपल्या श्यामल चा मुलगा आहे हो ! किती एवढा सा होता जेंव्हा मी पाहिले होते तुला। खुप मोठा हो रे बाबा ! फिर थोड़ी देर इधर -उधर की बातचीत कर जब मैं जाने को उठा तो आज्जी ने नाना को कुछ इशारा किया। तुरंत नाना ने पांच सौ रुपये का एक नोट मेरे हाथ में रख दिया। ये किसलिए नाना-मैं संकोच से भर गया। अरे रख रे ! हमारे पोते जैसा है तू। अच्छा ! फिर मिलना कहते हुए दोनों निकल पड़े। …।और मेरे अचरज की सीमा नहीं रही , जब मैंने उन्हें विरुद्ध दिशाओं में मुड़ते देखा। मेरे साथ बेंच पर बैठा मंगेश शायद मेरे विस्मय को भाँप गया। मुँह से ''च्च च्च '' की आवाज निकलता बोला -बेचारे नाना -आज्जी ! इस उम्र में भी साथ नहीं रह सकते। इसलिए पार्क में मिलने आना पड़ता है !.... क्या ?… पर क्यों ! -अरे क्यों क्या बाबा ! एक लड़का -एक लड़की है इनको। दोनों आमने-सामने के फ्लेट में रहते हैं। दोनों चिक्कर पैसा कमाते। मुलगा डॉक्टर है और मुलगी फेमस गायनोकोलॉजिस्ट। मगर दोनों भाई-बहनो में पुणे की प्रॉपर्टी को लेकर जबरदस्त राडा। कोर्ट -कचेरी सब बाप्पा रे बाप्पा ! मंगेश अपनी मुम्बईया हिंदी में बता रहा था। .... इस लिए बाप को मुलगी रखती है और माउली (माँ )को मुलगा नहीं छोड़ता । क्या तो बोले लड़के को बाप का जल्दी उठकर 'श्रीराम जयराम जय जय राम '' का जाप करना पसंद नहीं। उसकी नींद में खलल जो पड़ता है। पोरगी भी कम नहीं है। सारा काम कराती है आई से नौकरों माफिक। पर आज्जी बेचारी सहन कर लेती है। मगर नाना थोड़े गर्म स्वाभाव के हैं और हठी भी। ऊपर से जज्ज का तुर्रा । तो दोनों अलग अलग रहते हैं. पैसा बहुत है नाना साहेब के पास। पर खर्च करें तो किस पर ? इसलिए यहाँ सब पर लुटाते हैं।
मेरी आँखों के सामने ''ग़दर'' ''वीरजारा'' और ''ट्रैन टू पाकिस्तान'' से लगाकर ''बागवान'' तक के कई फ़िल्मी दृश्य घूम गए जिनमे ''विभाजन की त्रासदी '' देखकर कितनी ही बार टाकीज में आँखे नम हुई थी। अपने ही पेट जाये बच्चों की वजह से अपने जीवनसाथी से मिलने की खातिर जीवन की साँझ बेला में किसी को सार्वजनिक पार्क का सहारा लेना पड़े तो वो अभागा अपनी अकूत सम्पदा का क्या अचार डालेगा ? सच है -पूत सपूत तो क्यों धन संचे /पूत कपूत तो क्यों धन संचे?
-विवेक मृदुल

पगथिया: शिक्षा जगत दे सकता है -पर्यावरण और नैतिकता

पगथिया: शिक्षा जगत दे सकता है -पर्यावरण और नैतिकता:     पर्यावरण और नैतिकता से देश की बहुत सी रुग्णताएँ मिट सकती है और इस अहम काम को पूरा करने के लि...

13.6.14

कविता: बिंब

कविता: बिंब: झरनों सा गीत गाता ये मन  सरिता की कलकल मधुगान  सृष्टि है.... अनादि-अनंत  भावनाओं से भरा है ये प्राण  वरदान है कण-...

12.6.14

कुछ अपनी ,कुछ उनकी

ललित -२
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संस्कारों के भूत
कनॉट प्लेस के जनपथ पर भारतीय जीवन बीमा निगम की भव्य ईमारत के नीचे लगे जनपथ बाजार की रंगीनियाँ निहार रहा था। क्या कुछ नहीं था वहां ! एक से एक फैशनेबल युवतियां , विदेशी रति-मदनो की टोलियां , तरह तरह के पाश्चात्य परिधानों की नुमाइश और सेल और बीच बीच में चटपटे आलू -मूंग दाल की चाट के खोमचे। ये जगह हर देल्हियाइट की फेवरेट स्थली है और आई-टॉनिक लेने का सुन्दर स्थान भी। मेरे साथ बीना (म.प्र) का एक साथी नीरज था , जिसने कुछ ही दिन पहले हमारी फर्म ज्वाइन की थी। मध्यप्रदेश का होने के नाते दो ही दिन में हमारी दोस्ती प्रगाढ़ हो गयी थी। मैं उन दिनों एक निजी कनॉट प्लेस बेस्ड फर्म में लेखापाल था और वो जूनियर लेखापाल के रूप में पदस्थ हुआ था। इसलिए भी शायद उसके लिए मैं फ्रेंड -फिलॉसफर -गाइड का रोल अदा करने लगा था।उससे रूम भी शेयर कर लिया … तो नीरज और मैं काफी देर तक विंडो शॉपिंग करते रहे। आखिर जब कुछ भूख बढ़ने लगी तो मैं उसे सीधे एक खोमचे पर ले गया। वहां खीरे -मूली के कटे हुए टुकड़े नीबू -चाट मसाला लगाकर मिल रहे थे। अच्छी -भली धनाढ्य (और थुल-थुल) महिलाये भी वहीँ खोमचे के सामने डेरा जमाये -भैया देंणा एक खीरा होर की टेर लगाती सी-सी कर पत्तल चाटती दिख रही थी। मैंने भी झट दो पत्तल खीरे के लिए और एक नीरज को थमा दिया। फिर खाते -खाते हम बुक शॉप में किताबे देखने लगे। थोड़ी देर बाद मेरा नीरज की ओर ध्यान गया तो मैंने पाया वो खीरे का पत्तल वैसे ही थामे था। ''ओ बई ,खात्ता क्यों नहीं ? तुझे तो भूक लग री सी न ? '' मैं भरसक कोशिश करते हुए पंजाब्बी लहजे में बोला। ये मेरा दिल्ली वालों जैसा दिखने का अपना फंडा था। नीरज के चेहरे पर अजीब संकोच का भाव उमड़ आया - भैयाजी ,हमे बाजार में खड़े होकर खाने की आदत नहीं है। बड़ा अजीब सा लगता है। पिताजी घर पर ही हर चीज लेकर आते थे ,चाहे फल हों या चाट। और फिर किसी ने ऐसे मुझे देख लिया तो क्या सोचेंगे।
मुझे जोर की हंसी आ गयी और चिढ भी छूटी-''ओ यार माइयवे (ये गाली होती है ,ये मैं जानता था और ये भी की खुद को पंजाबी मुंडा सिद्ध करने के लिए इसे बीच -बीच में बोलना जरुरी है )तेरे को कौन देखेगा यहाँ। अबे मजे कर। और जो इत्ता सोचा न तो मर जायेगा बच्चू !'' पर मेरे समझाने का उस पर घंटा कोई असर नहीं हुआ। हम फिर रूम पर आ गए। दो -एक चीज और भी खरीदी थी हमने खाने के लिए। पर इस ग्राम्य-संस्कृति के ध्वजा वाहक के साथ होते हुए अब मुझसे भी कुछ ना खाया गया। आखिर हम अपने रूम पर आ गए। उसने हाथ -मुह धोया तो मुझे भी वही सब करना पड़ा। फिर वो दो थालियां ले आया और सारी खाने की चीजे प्लेट में करीने से जमा दी। भैयाजी ! अब खाते हैं। खुद को ''गॉडफादर ''समझ रहा था मैं ,पर नीरज ने धम्म से मेरी औकात बता दी। … उस दिन मुझे शायद पहली बार ऐसे लगा जैसे मैं सपरिवार हूँ और अपने भाई-बहनो के साथ नाश्ता कर रहा हूँ। सच है ! महानगर में दो पैसे कमाने की जद्दोजेहद में मैंने अपने घर के तमाम संस्कार ताक पर धर दिए थे। लेकिन नीरज ने अनजाने में जैसे उन भूतों को बोतल से बाहर कर दिया। उस दिन तो बहुत बुरा लगा था उसके इस ''पिछड़ेपन '' का , पर अब लगता है कि वो नहीं , मै पिछड़ रहा था। उसने तो मुझे सही समय पर जगा दिया।
इन भूतों से मिलना सचमुच विरल अनुभव रहता है। खास कर तब जब आप अपनी मिटटी ,अपने वतन से दूर हों।

-विवेक मृदुल

यूपी में कब राष्ट्रपति शासन लगाएगी मोदी सरकार?-ब्रज की दुनिया

12-06-2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,इन दिनों यूपी की जो हालत है उससे आप भी अच्छी तरह से वाकिफ हैं। चारों ओर कत्लो गारद और दंगे। बलात्कारों की तो जैसे बाढ़ ही आ गई है। यहाँ तक कि पुलिसवाले भी इस कुकृत्य को बखूबी अंजाम दे रहे हैं और राज्य के डीजीपी इसे रूटीन घटनाओं का नाम दे रहे हैं। तो क्या पुलिसवाले भी बलात्कार करके उसी रूटीन को पूरा कर रहे हैं? क्या बलात्कार करना पुलिसवालों की ड्यूटी में शामिल है?

मित्रों, अभी पढ़ने को मिला कि राज्य में यादव थानों पर डीजीपी भी हाथ नहीं डाल सकते क्योंकि तब उनको शिवपाल सिंह यादव की डाँट सुननी पड़ती है। यादव थानों का मतलब उन थानों से है जहाँ के थानेदार यादव हैं। जगह-जगह भाजपा कार्यकर्ताओँ को चुन-चुनकर मारा जा रहा है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो फिर कौन खुलकर भाजपा का झंडा उठाएगा?

मित्रों,कहने का मतलब है कि पूरे यूपी में कानून और संविधान का शासन समाप्त हो गया है और जंगलराज कायम हो गया है। ऐसे में सवाल उठता है कि केंद्र की मोदी सरकार कब वहाँ राष्ट्रपति शासन लगाएगी और वहाँ की जनता को कंसों के शासन से मुक्ति दिलवाएगी? आखिर किस बात का इंतजार है उसे? अगर मोदी सरकार ने भी राज्यसभा में बहुमत के लिए मुलायम सिंह यादव ते घिनौने हाथों को थाम लिया है तो फिर यूपी की उस जनता का क्या होगा जो दुर्भाग्यवश जन्मना यादव नहीं है? माना कि अभी वहाँ की सरकार को आए दो साल ही हुए हैं लेकिन इतने दिनों में ही वहाँ जिस तरह के हालात बन गए हैं क्या ऐसे में वहाँ की सरकार को उसका कार्यकाल पूरा करने देना वहाँ की जनता के साथ अन्याय और अत्याचार नहीं होगा?

मित्रों,भारत का संविधान कहता है कि राज्यों में कानून और संविधान का शासन चल रहा है या नहीं देखना केंद्र सरकार का काम है। इस काम को पूरा करने के लिए संविधान ने उसे अनुच्छेद 355 और 356 के तहत व्यापक अधिकार दिए हैं। क्या मोदी सरकार को अपने संवैधानिक कर्त्तव्यों का पालन करते हुए राज्य में अविलंब राष्ट्रपति शासन नहीं लगा देना चाहिए? नरेंद्र मोदी ने बार-बार देश को सुशासन देने का वादा किया है फिर यूपी में राष्ट्रपति शासन लगाए बिना यूपी में सुशासन कैसे आएगा? क्या अपने उन कार्यकर्ताओं की रक्षा करना भारत के प्रधानमंत्री बन चुके नरेंद्र मोदी का कर्त्तव्य नहीं है जो अपनी पार्टी के विकास को कार्यकर्ताओं की 5 पीढ़ियों की शहादत और मेहनत का परिणाम बताते नहीं थकते?
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

6.6.14


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-नितिन सबरंगी
जैसे सबकुछ महंगा है ओर जिंदगी ही बेहद सस्ती है। देश में हर साल 1 लाख 50 हजार से ज्यादा लोग सड़क दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं। घायल होने वालों का आंकड़ा इससे भी बड़ा है। 30 लाख घायल होते हैं।  दुर्घटनाओं में हम दुनिया के मुकाबले नंबर वन हैं। हर घंटे करीब 13 लोगों की मौत हादसों में हो जाती है। 36 लाख किलोमीटर लंबी सड़कों पर मौत दनदनाती है। दुर्घटनाओं से 1 लाख करोड़ रूपये का नुकसान भी होता है। दुर्घटनाओं में हर साल सामाजिक ओर आर्थिक कीमत चुकानी पड़ती है। नेशलन क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट में दुर्घटनाओं में होने वाली मौत का चौंकाने वाला खुलासा हुआ है। 2011 में देश में हर दिन100 लोग दुर्घटना में मारे गए। लापरवाही व शराब की प्रवृत्ति ने इस रफ्तार को ओर भी तेज कर दिया है। कभी रफ्तार, कभी लापरवाही, तो कभी शराब का सुरूर लोगों को तेजी से मौत के मुंह में ले जा रहा है। कानून बिल्कुल लचीला हो ऐसा भी नहीं है बल्कि कड़वी हकीकत यह है कि उसका पालन करने से गुरेज किया जाता है। कई लोग इसे अपनी झूठी शान के खिलाफ समझते हैं नतीजा मौत के रूप में भी सामने होता है। देशभर में रोजाना 377 लोग सड़क हादसों में अपनी जान गंवाते हैं। कारों की भिडंत के बाद हुई गोपीनाथ मुंडे की मौत ने बैक सीट पर एयर बैग्स की अहमियत याद दिला दी है। जिंदगी की तेज रफ्तार ओर लापरवाही की कीमत ही शायद ऐसी है।

5.6.14

पौधरोपण करने खर्च करते हैं खुद की कमाई

जिला मुख्यालय जांजगीर में पौधरोपण करने युवाओं में गजब का जुनून नजर आता है। चार युवाओं ने मिलकर ‘जज्बा फाउंडेषन बनाया, इसके बाद कारवां बढ़ता गया। जज्बा फाउंडेषन के युवाओं ने 3 साल पहले पौधरोपण का यज्ञ शुरू किया। आज इन युवाओं ने 3 हजार से अधिक पौधरोपण पर्यावरण संरक्षण में मिसाल कायम किया है। अहम बात यह है कि पौधरोपण करने के लिए इन युवाओं द्वारा खुद की कमाई का 5 से 10 फीसदी हिस्सा खर्च किया जाता है।
बिगड़ते पर्यावरण से आज हर कोई प्रभावित है, लेकिन पर्यावरण की चिंता बहुत कम लोग करते हैं। इसी माहौल में जांजगीर का ‘जज्बा फाउंडेषन’ के युवाओं द्वारा पर्यावरण संरक्षण के लिए किए जा रहे प्रयास की जितनी तारीफ की जाए, कम ही है।
दरअसल, तीन साल पहले जांजगीर के चार युवकों नवनीत राठौर, नरेष पैगवार, ऋषिकेष अग्रवाल, ऋषिकेष उपाध्याय ने पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने के लिए ‘जज्बा फाउंडेषन’ बनाया और शहर में पौधरोपण की शुरूआत की। कुछ ही महीनों में इन युवाओं की मेहनत और लगन रंग लायी और सैकड़ों पौधे रोपे गए। साथ ही इनके जूनुन को देखकर जांजगीर के अनेक युवा ‘जज्बा फाउंडेषन’ से जुड़ गए। इस तरह पौधरोपण का यह कारवां बढ़ता गया।
आज स्थिति यह है कि 20 से 25 युवाओं ने मिलकर नगर की कई जगहों में हरियाली ले आई है। खास बात यह है कि युवाओं द्वारा रोपे गए अधिकांष पौध आज भी जीवित हैं और हरियाली बिखर रहे हैं। युवाओं द्वारा पौधरोपण के साथ उसके संरक्षण पर विषेष ध्यान दिया जाता है। पर्यावरण को बचाने का सपना पाले इन युवाओं की फौज में अब शहर के दूसरे लोगों ने भी सहभागिता निभानी शुरू कर दी है, जिनमें डॉक्टर, व्यवसायी से लेकर कई नौकरीपेषा और जनप्रतिनिधि शामिल हैं।
‘जज्बा फाउंडेषन’ के संस्थापक सदस्य नवनीत राठौर कहते हैं कि पौधरोपण कर पर्यावरण को बचाने की प्रेरणा उन्हें अपने पूर्वजों से मिली है। वे कहते हैं कि जहां भी खाली स्थान मिलता है, वहां पौधरोपण करने का प्रयास किया जाता है और पौधों के संरक्षण के लिए हर स्तर पर प्रयास किया जाता है। वे बताते हैं कि पौधरोपण करने के लिए जज्बा फाउंडेषन के सदस्य खुद की कमाई का 5 से 10 फीसदी हिस्सा खर्च करते हैं और पर्यावरण को बचाने में योगदान देते हैं। इसी का परिणाम है कि बीते 3 बरसों में अब तक 3 हजार से अधिक पौधों का अलग-अलग जगहों पर रोपण किया जा चुका है।
जज्बा फांडेषन के एक और संस्थापक सदस्य नरेष पैगवार कहते हैं कि पौधरोपण एक पुनीत कार्य है। शहर में लगातार पेड़ों की कटाई हो रही थी। इसी के तहत हमारी सोच बनी की कि पर्यावरण की दिषा में पौधरोपण कर समाज के लिए कार्य किया जाए।
जज्बा फाउंडेषन के एक अन्य सदस्य राहुल अग्रवाल कहते हैं कि पर्यावरण बिगड़ रहा है और भागमभाग के समय में पौधरोपण करने कोई ध्यान नहीं देता। इसीलिए जज्बा फाउंडेषन ने पर्यावरण को बचाने के लिए पौधरोपण करने मन बनाया। वे चाहते हैं कि और भी लोग पौधरोपण के इस महाभियान से जुड़े, आने वाले दिनों में आसपास के क्षेत्रों में भी पौधरोपण किया जाएगा।
जज्बा फाउंडेषन के युवाओं ने पौधरोपण के प्रचार-प्रसार के लिए एक वेबसाइट भी बनाई है। साथ ही फेसबुक पर भी लोगों को पर्यावरण संरक्षण के प्रति लोगों को जागरूक करने का प्रयास, निरंतर जारी है। निष्चित ही जज्बा फांडेषन के युवाओं के ‘जज्बा’ एक मिसाल बन गया है और इसी का परिणाम है कि शहर विकास के लिए पेड़ों की कटाई के बाद भी हरियाली नजर आ रही है।

...ये भी निभाते हैं भूमिका
‘जज्बा फाउंडेषन’ के युवाओं के सकारात्मक सोच को देखते हुए शहर के अनेक युवाओं का संपर्क हुआ है। संस्थापक सदस्यों के अलावा पर्यावरण को बचाने किए जा रहे पौधरोपण में अब जज्बा फाउंडेषन में अमन अग्रवाल, मनमोहन अग्रवाल, आलोक अग्रवाल, सुषील अग्रवाल, जिला अस्पताल के एमडी डॉ. अनिल जगत, डेंटिस्ट डॉ. सौरभ शर्मा एवं सनत राठौर भी अहम भूमिका निभाते हैं। इनके अलावा अन्य सदस्य भी हैं, जो पर्यावरण संरक्षण करने किए प्रयास में महती भूमिका निभाते आ रहे हैं।

इन इलाकों में पौधरोपण
वैसे तो शहर में जहां भी खाली जगह मिलती है, वहां इन युवाओं द्वारा पौधरोपण का प्रयास किया जाता है। बीते इन 3 बरसों में अकलतरा रोड के डिवाइडर, जिला अस्पताल, हसदेव क्लब तुलसी भवन, नैला के मुक्तिधाम में पौधरोपण किया गया है। सदस्यों का कहना है कि आने वाले दिनों में जो भी उद्यान बेजार हो गए हैं, वहां हरियाली लाने पौधरोपण किया जाएगा। इस दिषा में सदस्यों द्वारा निरंतर प्रयास किए जा रहे हैं।

पर्यावरण दिवस पर पौधरोपण
पर्यावरण दिवस 5 जून को कचहरी चौक के पास अंबेडकर उद्यान में नपा अध्यक्ष रमेष पैगवार और उपाध्यक्ष नीता चुन्नू थवाईत के नेतृत्व में ‘जज्बा फाउंडेषन’ के सदस्यों ने पौधरोपण किया। इस उद्यान में अंबेडकर की प्रतिमा लगी है, लेकिन साफ-सफाई का अभाव था। इसी को ध्यान में रखकर पौधरोपण किया गया, ताकि अंबेडकर उद्यान में हरियाली बनी रहे और लोगों वहां तक पहुंचे।

युवाओं ने रोपे ये पौधे...
युवाओं द्वारा हरश्रृंगार, पुरनजीवा, प्राइड ऑफ इंडिया, करंज, झारूल, गुलमोहर, हाउडी क्लाउडी, स्वर्णचंपा, मधुकामिनी, कचनार, अमलताष, बरगद, पीपल समेत अन्य पौधे रोपे गए हैं। पौधरोपण की सबसे बेहतर स्थिति नैला के मुक्तिधाम में देखी जा सकती है।

क्या मोदी का हिन्दी प्रेम दिखावा है?-ब्रज की दुनिया

5 जून,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। यह बात तो हम सभी जानते हैं कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बहुत अच्छी हिन्दी जानते हैं। लोकसभा चुनाव प्रचार के समय वे भारत को लगातार हिन्दी में संबोधित करते रहे। यहाँ तक कि केरल और तमिलनाडु में भी वे हिन्दी ही बोलते रहे और दुभाषिये की सहायता ली। इस साल सितंबर में संयुक्त राष्ट्र महासभा में एक बार फिर से हिन्दी गूंजेगी। इससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी कई बार संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी में भाषण कर चुके हैं। मोदी द्वारा हिन्दी में संबोधन की खबर को सुनकर खुशी तो होती है लेकिन आश्चर्य और शक होता है कि क्या मोदी का हिन्दी प्रेम दिखावा है? अगर नहीं तो फिर भारत के प्रधानमंत्री की आधिकारिक वेबसाइट http://pmindia.nic.in/ पर जनता को हिन्दी में अपनी बातें रखने की अभी तक अनुमति क्यों नहीं दी गई है? राजस्थान से लेकिन बिहार तक पूरे हिन्दी क्षेत्र में अगर मोदी को जनता ने सिर आँखों पर नहीं बैठाया होता तो क्या वे आज भारत के प्रधानमंत्री होते और अगर होते तो इतनी मजबूत स्थिति में होते? फिर प्रधानमंत्री बनते ही नरेंद्र मोदी ने हिन्दीभाषियों को अंगूठा क्यों दिखा दिया? http://pmindia.nic.in/feedback.php लिंक पर जाकर आप भी देख सकते हैं कि प्रधानमंत्री जी इन दिनों सिर्फ अंग्रेजी में ही जनता की शिकायतें सुन रहे हैं। फिर हिन्दीभाषी जनता क्या करे और कैसे अपनी समस्याओं से अपने प्रधानमंत्री को अवगत करवाए? क्या हिन्दीभाषियों को अपनी समस्याओं को अपनी भाषा में दर्ज करवाने का अधिकार नहीं होना चाहिए? आजकल तो दुनिया की किसी भी भाषा में लोग अपनी बातें रख सकते हैं। ऐसी सुविधा तो माइक्रोसॉफ्ट खुद ही दे रही है फिर सिर्फ अंग्रेजी में ही शिकायत दर्ज करवाने का प्रावधान क्यों? वोट मांगा हिन्दी में और पीएम बनते ही हिन्दी को अंगूठा दिखा दिया क्या यह दोहरा मानदंड नहीं है? क्या यह भारत की कथित राष्ट्रभाषा और स्वयं भारतमाता का अपमान नहीं है? क्या भारत की जनता को,भारतमाता की संतानों को भारतमाता की अपनी भाषा में बात रखने का अधिकार नहीं होना चाहिए? अगर नहीं तो फिर भारतमाता की जय और वंदे मातरम् नारा लगाने का क्या मतलब है? क्या मोदी का भारतमाता से प्रेम और उनके प्रति उनकी भक्ति भी सिर्फ दिखावा था मात्र चुनाव जीतने के लिए? यह कैसा राष्ट्रवाद है राष्ट्रवादी पार्टी भाजपा का? फिर अंग्रेजों,कांग्रेसियों और भाजपा में क्या अंतर है कम-से-कम भाषा के स्तर पर?
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

1.6.14

काँग्रेस "तथा "आप "की हार और मेनेजमेंट अध्याय

काँग्रेस "तथा "आप "की हार और मेनेजमेंट अध्याय 

2014 के चुनाव परिणाम से आईआईएम ,मेनेजमेन्ट विश्व विद्यालय और
उद्योग जगत की हस्तियाँ सफलता के नये सूत्र ढूंढ रही है। सभी लोग मोदी
और मोदीत्व का विश्लेषण कर रहे हैं मगर व्यावसायिक सफलता के लिए
सूत्र जीत में नहीं विफलता में ढूँढे जाने चाहिये। "कांग्रेस "और "आप "की
बड़ी हार के अध्याय से आधुनिक भारत में सफलता के सूत्र ढूंढे जा सकते
हैं जिससे हम व्यावसायिक विफलता से बच सकते हैं।

लोग क्या चाहते हैं वही दो - "कांग्रेस "और "आप " की हार का पहला कारण
भारत के जन मानस की माँग को नहीं समझ पाना था। लोग महँगाई और
घटते रोजगार से परेशान थे और काँग्रेस मुफ्त में रोटी बाँटने की नीति बाँट
रही थी और आप जनता के हाथों से खुद के लिए रोटी सिकाने का दुःस्वप्न
देख रहा था। सफलता के लिए मजदूरों तथा स्टाफ को लोकलुभावन प्रलोभन
मत दो उनकी योग्यता का छल से व्यवसाय हित मत साधो। कार्यरत
कर्मचारियों को अच्छे भविष्य के लिए वर्तमान में कुशलता से लक्ष्य का पीछा
करने में कार्यरत करो।
अहँकार की जगह विनम्रता - "काँग्रेस "और "आप " अहँकार से लबालब थे। हर
काँग्रेसी अपने को नेता मान रहा था और "आप "का नेतृत्व खुद को तारणहार
मसीहा के रूप में देख रहा था। दोनों के पाँव चलते समय जमीन पर टिकते नहीं
थे। मेनेजमेंट को चाहिये कि वह व्यवसाय की सफलता में कर्मचारियों के मुल्य
को समझे और उन्हें महत्व दे। व्यावसायिक सफलता में खुद को श्रेय देना तथा
कर्मचारियों को नगण्य समझना विफलता का कारण होता है। सफलता के समय
में पैर की ओर गौर करते रहे कहीं जमीन से ऊपर तो नही उठ रहे हैं। सदैव विनम्र
बने।
टीम का नेता चुनें -"कांग्रेस " इस चुनाव में अपना भविष्य के टीम लीडर को चुनने
में विफल रही और "आप "भी विफल रही। जब हम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष
करते हैं तब टीम लीडर जरूर बनाये और टीम लीडर भी ऐसा चुने जो उत्साही हो
और लक्ष्य के पीछे बिना थके दौड़ने वाला हो। काँग्रेस नकारात्मक परिणाम की
अपेक्षा से भयभीत हो बिना लीडर के मैदान में जँग लड़ रही थी और बिना लीडर के
सेना मन चाहे ढँग से नीरस भाव से लड़ रही थी। "आप "तो बिना ताकत के सीमा
से ज्यादा बोझ उठा कर लड़खड़ा रहा था और रेंग भी नहीं पा रहा था। हर व्यवसायी
को चाहिये की संस्था का लक्ष्य निर्धारण करने के बाद हर टीम का टीम लीडर रखे
ताकि उचित परिणाम पाया जा सके।
बेदाग और पारदर्शी आचरण - "काँग्रेस के पास बेदाग और पारदर्शी आचरण वाली
नीति नहीं थी तो "आप "के पास अनुभव हीनता और अस्पष्ट नीति थी। "आप" खुद को
भगवान और बाकी सभी को बेवकूफ कह रही थी नतीजा यह रहा की खुद बेवकूफ
बन गहरे कुएँ में गिर पड़ी और काँग्रेस ना तो खुद को बेदाग और पारदर्शी बता पायी
जिसका परिणाम कमर तोड़ रहा। सफल व्यवसायी को चाहिए कि अपने प्रतिस्पर्धी
की आलोचना के बजाय खुद के प्रोडक्ट की सफलता के प्रयास पर ध्यान दे। अपने
प्रोडक्ट में नवीनता और मौलिकता दे उसे बेदाग रखे।
व्यवस्थित प्रचार - "कांग्रेस "प्रचार के पुराने औजार लेकर लड़ती रही और असफल रही
"आप "खुद के प्रोडक्ट को सर्वश्रेष्ठ तथा मार्किट में उपलब्ध प्रोडक्ट को घटिया साबित
करती रही और खुद घटिया बन गयी। मेनेजमेंट को चाहिये की प्रोडक्ट का प्रचार अच्छे
ढ़ंग से करे क्योंकि जनता प्रोडक्ट का इस्तेमाल बाद में करती है पहले प्रोडक्ट के प्रचार
के बारे में सुचना चाहती है। यदि अपने प्रोडक्ट को बेहतर और प्रतिस्पर्धी के प्रोडक्ट को
घटिया बताएँगे तो लोग पहले उस प्रोडक्ट को इस्तेमाल करना चाहेंगे जिसे हम घटिया
बता रहे थे  इसलिए बेमतलब का नेगेटीव प्रचार भी प्रतिस्पर्धी का ना करे।
सेल के बाद सर्विस - "आप "और कांग्रेस की नाकामी का बड़ा कारण सेल के बाद सर्विस
ना देना रहा था। दोनों दल सत्ता में आये ,सत्ता भोगी पर सर्विस ना दे पाये। सफल व्यवसायी
को सेल के बाद सर्विस पर ध्यान देना चाहिये वरना जनता उधर चली जाती है जहाँ यह
भरोसा या सेवा बेहतर मिलती हो।