रहीमदास ने उत्तम प्रकृति का उल्लेख करते हुए प्रकृति को श्रेणी बद्ध किया, सम्भवतः उत्तम-मध्यम-अधम इन तीन श्रेणियो में प्रकृति होती है। उत्तम प्रकृति का प्रतीक चन्दन कहा। लेकिन वक्त की नजाकत को भांपते हुए मन-वाणी और कर्म के विभेद को प्रकट करना चन्दन जैसी उत्तम प्रकृति नहीं, गिरगिटी-प्रकृति कहा जा सकता है, जो अधम प्रकृति की श्रेणी में आती है। प्रकृति शब्द की व्यतिपत्ति प्रकृष्ट कृतेः इति प्रकृति, ईश्वर (परमात्मा) की प्रकृष्ट कृति यानी परमात्मा की क्रियाशक्ति प्रधानप्रकृति है। वही स्वदज, अंडज, जरायुज, उद्भिज प्राणियों आत्मतत्व से प्रकट प्रकृति ‘स्वभाव’ के रूप में है। परमात्मा व जीवात्मा की प्रकृति के साथ किसी प्रकार की छेड़छाड़ अनिष्टकारी आपदा (त्रासदी) का आमंत्रण है। यहां दो और प्रतीक दृष्टव्य हैं- 1. उष्ट्र-प्रकृति (छिद्रन्वेषण) विक्रमांकदेव चरितम् के अनुसार ऊंट किसी मनोहारी उपवन में पहुंच जाये तो वह कांटों की खोजने के लिए सुरम्य उद्यान को तहस-नहस कर देता है। 2. भृंगी-प्रकृति सर्वविदित है कि भृंगी कीट स्वराग गायन से प्रत्येक विजातीय कीट को सारूप्य कर देता है, भृंगी कीट को लोकभाषा में लखारी कीट कहा जाता है। वह बर्र आदि किसी भी भी कीट को अपने आवास में लाकर बंधक बना लेता है, और अपने गायन से उस दूसरी प्रजाति के कीट को भृंगी (लखारी) बना लेता है। इस तरह चन्दन, भृंगी, गिरगिट, उष्ट्र की उत्तम-मध्यम-अधम प्रकृति के प्रतीक उदाहरण के रूप में सामने हैं।
‘‘का करि सकत कुसंग’’ उत्तम प्रकृति पर संगति का प्रभाव नहीं पड़ता। बैसे संगति अपना प्रभाव जरूर छोड़ता है, यहां भृंगी-प्रकृति इसका सहज दाहरण है। मनोविज्ञान भी वंशानुक्रम पर संगति (वातावरण) को हावी सिद्ध करता है। मुझे याद आता है एक घटनाक्रम- ‘‘एक पूर्व एमएलए समारोह में चीफगेस्ट थे मुझे संचालन करना पड़ा। एमएलए साहब के संबोधन में मेरे द्वारा उपजाति बदल गई दरअसल उन दिनों आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, हजारीप्रसाद द्विवेदी के कृतित्व पर शोधकार्य कर रहा था, लिहाजा प्रसाद के साथ द्विवेदी लिखना और बोलना तत्कालिक प्रकृति हो गई थी, लिहाजा एमएलए साहब के आवाहन में प्रसाद के साथ द्विवेदी मुंह से निकला तो वे खुश होकर बोले- ‘‘वाह! शास्त्रीजी, आपने उस उपजाति को बदलकर उपकार किया, जो आज हेयदृष्टि से देखी जाती है।’’ मेरे मुंह से अनायास तुलसी बाबा की चौपाई आ गई और संचालक की हैसियत से कह बैठा- ‘‘शठ सुधरहिं सत्संगति पाई, पारस परस कुधात सुहाई’ बैसे शिक्षा क्षेत्र ब्रह्मणत्व का प्रतीक है, जिससे आप जुड़े हैं।’’ यह सुनकर वे बोले - ‘‘तो क्या मैं शठ हूं?’’ फिर मैने कहा - ये आप ही जाने।’’ इस घटनाक्रम से प्रकृति और संगति को परिभाषित करने में सहूलियत होगी। इस दिशा में बाबा तुलसी का सोरठा उल्लेखनीय है- ‘‘मूरख हृदय न चेत, जो गुरु मिलहि विरंचि सम।’’ वास्तव में मूर्ख और चन्दन में काफी साम्यता है! जहां संगति का प्रभाव नहीं पड़ता। मूर्ख से तात्पर्य परमहंस गति से है, पूर्णावतार ऋषभदेव के पुत्र भरत के जड़त्व (जड़भरत) के पौराणिक कथानक से समझें, रहूगणों की पालकी उठाते समय अहिंसावृत्ति को न त्यागना और उटक-उटक के चलना और आवेश का शिकार होना। वही जड़भरत की भृंगी-प्रकृति रहूगण को सिद्धिमार्ग में लेजाने में सफल हुई। संगति के दो भेद सत्संग और कुसंग भी प्रकृति द्वारा ही तय किये जाते हैं। किसी को कुसंग भी सत्संग लगता है और सत्संग सर्वथा कुसंग। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकुष्ण अर्जन से कहते हैं ‘‘संगं त्यक्त्वा धनंजय’’ हे अर्जुन! संग त्यागकर युद्ध कर। संग का अर्थ आसक्ति है। रहीमदास के दोहे में चन्दन के अनासक्त भाव का प्रकट करता है, इसी लिए चन्दन को उत्तम प्रकृति का प्रतीक बताया गया है।
‘‘चन्दन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग’’ चन्दन शीतलता का प्रतीक है, उष्णता अवरोधी चन्दन की उत्तम-प्रकृृति अनासक्त को परिभाषित करती है, भले ही विष रूपी दाहकता के साथ रहते हुए उष्णता से लिप्त न होना ही अनासक्ति है। यथा कमल जो पानी में पड़े रहने के बाद बाहर आने पर सूखा रहता है, पानी में आसक्त नहीं होता जबकि अन्य पुष्प सर्वथा जब में आसक्त रहते है और गल जााते हैं। चन्दन को मस्तक पर लगाने से मस्तिष्क रूपी हार्डडिस्क को सर्वथा हाई ताप के दुष्प्रभाव से बचाना है।
चन्दन के वृक्ष पर विषघरों का लिपटना, विषाक्त उष्णता रूपी प्रकृति को चन्दन की शीतलता के द्वारा औषधिवत् ग्रहण करना है। पौराणिक आख्यानों के अनुसार जब जमीन पर रेंगने वाले ‘विषधर’ अपनी विष की सिद्धावस्था में नभचर पक्षी की भांति उड़ने लगते हैं, तो उनकी उड़ान का रुख नंदनकानन की ओर होता है। यानी चन्दन का सानिध्य पाने के लिए उड़ान भरने की सामर्थ्य आनी चाहिए। चन्दन का सानिध्य विषधर को विष-उगलने यानी चन्दन को विषाक्त (जहरीला) बनाने की प्रवृत्ति को त्यागकर शीतलता ग्रहण करने को प्रेरित करता है।
चन्दन की उत्तम अनासक्त प्रकृति विषधर भुजंग के साथ रहकर भी अपनी शीतलता से उष्ण गुणसम्पन्न दाहक तेजवन्त सर्प को सुखानुभूति कराता है। हाल के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ‘‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’’ को ही लें, जिसे सत्यनिष्ठ उत्तम प्रकृति के चन्दन वाहुल्यवत नन्दनवन मानकर सभी ने उसके वैशिष्ट का समर्थन किया किन्तु नियतिवश चन्दन के नन्दनवन में कदाचारी-विषधरांे का जुड़ना लिपटना और चन्दन को विषाक्त बनाने का उपक्रम चलाया। जो उत्तम प्रकृति के थे वे चन्दन अनासक्त भाव से यथावत् रहे, किन्तु चन्दन के भ्रम को फैलाने वाले धूतरें आदि जहरीले उद्भिज विषधरों के सानिष्ध में और अधिक विषाक्त हो गये।
आज के दौर में रहीमदास के उक्त दोहे को मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना के अनुसार खुद को चन्दन और साथी को भुजंग सिद्ध करने वाले भावार्थ निकाले जा रहे हैं। शायद इसी प्रवृत्ति पर महाकवि शिशुपाल ‘‘शिशु’’ को लिखना पड़ा था- ‘‘ओ विद्यालय के पाठों के रट्टू तोते! गूदा निकालकर रक्खो अपने भेजे का। तब शायद समझ सको कि छन्द के प्याले में कवि लाया, कितना अर्क निचोड़ कलेजे का।’’ सन्तकवि रहीमदास आज अपने दोहे के साथ हो रहे बलात्कार से जरूर आहत होंगे।
देवेश शास्त्री
इटावा
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