13.8.15

दोस्तियों की छांव के सिवाय इंसानियत के वास्ते अब कोई पनाह नहीं

आसमान में सूराख हमने नहीं किये,आसमां सूराख है और  कायनात में बेइंतहा सूखा है आगे,बादल फिर बरसेंगे नहीं सुनामियों में दम तोड़ने लगा है समुंदर भी और हिमालयहो गया है नंगा और सपाट सिरे से आंकड़ों में जकड़ा वतन मेरा मर रहा है आहिस्ते आहिस्ते होश में आओ लोगों कि तमाशा बहुत रंगीन है कि चोरों में जंग छिड़ी है हिस्से के बंटवारे के लिए

-पलाश विश्वास-

मजा भी बहुत आ रहा है लेकिन किस्सा बेहिसाब संगीन है। इस किस्साई संगीन से जो भी हो जख्मी,माफ करें।

गुगल बाबा की मेहरबानी है कि दुनिया देखने लगी है कि कुछ कुछ किस्से हमारी झोली में भी हैं। अब सुंदर भी हो गया है गुगल और यूं समझें की गुगल ही हमारा असली मालिक है।वे सुंदर भी खड़गपुर के एक्स स्टुडेंट हैं और वहां अब सुंदर जश्न भी है।अब थोड़ा दिल थामकर बैठें,दमादम जो हम पोस्ट कर रहे हैं।शायद फिर बहुत जल्द वह सिलसिला थमने वाला है क्योंकि हमें भी जीने के लिए आखिर देर सवेर गुगल के विज्ञापन लगाने हैं।सिर्फ अपनी रिहाई का इंतजार है।गुगल बाबा अब सुंदर है तो सुंदर का स्वागत है।



बाकी न जाने भूकंप के झटके कैसे कैसे कितने और कहां कहां आने है।हम आगाह कर रहे थे बार बार भूकंप की जद में है समूचा महादेश।

अब आहिस्ते आहिस्ते भूकंप का दायरा बढ़ रहा है।

सिर्फ आंखमिचौनी हैं जबर्दस्त और हम बेतहाशा भागमभाग में शामिल,भगदड़ में कुचले जा रहे हैं हम,आँखों पर पट्टियां इतनी बेरहम है कि पता ही नहीं है कि दबे पांव भूकंप सिरहाने है जो तहस नहस कर देगा सबकुछ।

खंडहरों और वीरानगियों के सिवाय कुछ भी नहीं बचेगा।

कुछभी नहीं यकीनन।

आँखों पर पट्टियां इतनी बेरहम है कि पता ही नहीं है कि तमाशा बहुत रंगीन हैं जो हम इतना अरसा बक रहे थे और बांच रहे थे जो हकीकत,महाभारत और रामायण के सारे किरदार फिर जिंदा हैं।

बीच बाजार संतन में झगड़ा है भारी कि किसने कितना माल दबाया है और किसने कितना खाया है।

चोरों में जुद्ध है भाइयों कि सबका हिस्सा कम पड़ा है और कोई कम हिस्से से मान नहीं रहा है हरगिज।

बहुतै शोर मचा है कि सारे चोर जमा है कहीं और लड़ भिड़कर अपना हिस्सा चोरी का जायज साबित करने लगे हैं और फिर वहीं गूंज है दसों दिशाओं में।

बाकी कोई खबर नहीं है।

कान हों तो गर से सुन भी लीजिये।

पट्टियों से फारिग हों तो आँखों देखा देख भी लीजिये कि हम अरसे से जो हकीकत बता रहे थे उस हकीकत को उन्हीं की जुबानी सुन लीजिये कि काजल की कोठरियों में सारे चेहरे कालिख पुते हैं और हम सूअर बाड़े से जुते हैं।

न जाने कब तक जारी रहेगा भूस्खलनों का सिलसिला।

इंसानियत का वतन किरचियों में बिखर रहा है और वतनफरोश दुनियाभर के मुक्त बाजार के दल्ला हैं।

रोज रोज वे सरहद बदल रहे हैं।

कंटीले तारों की बाडा़बंदी कर रहे हैं वे रोज रोज।

सबकुछ टूट रहा है।

बिखर रहा है सबकुछ।

जो बचा हुआ है,बचा न रहेगा वह भी।

समुंदर में हजार हजार के नोट बह निकले हैं।

समुंदर भी दहशतगर्द है इन दिनों और तेल के कुंए भी वहीं गहराइयों तलक।

सुनामियों के सिलसिले में समुंदर भी सूखने लगा है।

इंसानी खून के सिवाय पीने के लिए अब बचा नहीं कुछ।

गौर से बैठिये दस्तरखान पर हुजूर कि जो परोसा है,जायका उसका बस खून है जो कहीं दीख नहीं रहा है।

इंसानी हड्डियां और इंसानी गोश्त की दावत में हम शामिल हुए हैं और आदमखोर तलाश रहे हैं।

आसमान में सूराख हमने नहीं किये,आसमां सूराख है और

कायनात में बेइंतहा सूखा है आगे,बादल फिर बरसेंगे नहीं।

पानी जो था कुदरत में ,वह सारा उतर चुका है और अब पानियां लापता हैं उसीतरह जैसे बारिशें लापता होने लगी है।

जिसे आप बारिश समझते हैं इन दिनों,वह हमारे ही गुनाहों की बारिश है,न कोई बरकत है किसीकी और न रहमत है किसी की।

हम सारे लोग बेइंतहा डूब में शामिल हैं और पीने के लिए न पानी है और न खेत सींचने के लिए कहीं पानी है।

हमारे गुनाहों ने आग लगा दी है कायनात में और पानियां आग में फिर राख हैं और कोई ताज्जुब नहीं है कि किसी के रगों में न खून है और न वजूद पानी है।

पानी जो था कुदरत में ,वह सारा उतर चुका है और अब पानियां लापता हैं उसीतरह जैसे बारिशें लापता होने लगी है।

फिर न कहना हमने आगाह न किया था।हज्जारों हज्जार साल से हम चीखते रहे हैं मुहब्बत के नाम कि नफरत से बाज भी आओ।

फिर न कहना हमने आगाह न किया था।हज्जारों हज्जार साल से हम चीखते रहे हैं कि सियासत के गुंडों के हवाले मत करो वतन।

फिर न कहना हमने आगाह न किया था।हज्जारों हज्जार साल से हम चीखते रहे हैं कि मजहब भी आखिर सियासत है।सियासती मजहब में दफनाओ न इंसानियत कि वतन कोई बाजार नहीं है।

दिलों में मुहब्बतें थी बहुत बहुत।दिलों का कत्ल लेकिन दस्तूर चल निकला।न जाने कब से दिलों के कातिल हो गये हैं हम सभी कि मुहब्बत का अहसास भी नहीं है किसी को।

बेइंतहा नफरत का कारोबार है सियासत और बेइंतहा नफरत का कारोबार है मजहब भी,ऐसा खुल्ला बाजार बन गया है वतन कि बेच डाला ईमान।

रब का नाम लेेते हैं बेमतलब सारे लोग।

सबकुछ दिखावा है।

मजहबी जुनून भी मुहब्बतों के कत्ल खातिर छलावा है।

 न रब से वास्ता किसी का है और न मजहब से वास्ता किसी का है। हम सारे लोग जीते मरते सियासती हैं खालिस तिजारत में शामिल।

इंसानी खून के सिवाय पीने के लिए अब बचा नहीं कुछ।गौर से बैठिये दस्तरखान पर हुजूर कि जो परोसा है,जायका उसका बस खून है जो कहीं दीख नहीं रहा है।इंसानी हड्डियां और इंसानी गोश्त की दावत में हम शामिल हुए हैं और आदमखोर तलाश रहे हैं।

पता भी नहीं है किसी को आखिर हम खा क्या रहे हैं और हम पी भी क्या रहे हैं।जायकाें में जी रहे हैं,मुहब्बत को तलाक तलाक तलाक।

वजूद कहीं है तो दिल कहीं है।वजूद को नहीं मालूम कि दिल कहां कहां कब कब क्यों आखिर तड़प रहा है कि हर शख्स बीमार है।

दिलों को भी अपने भीतर मौजूद मुहब्बत का रसद मालूम नहीं है।

सुनामियों में दम तोड़ने लगा है समुंदर भी और

हिमालय हो गया है नंगा और सपाट सिरे से।

आंकड़ों में जकड़ा वतन मेरा मर रहा है आहिस्ते आहिस्ते

होश में आओ लोगों कि तमाशा बहुत  रंगीन है कि

चोरों में जंग छिड़ी है हिस्से के बंटवारे के लिए।

सब्जियों के भाव जानते हों तो,अनाज अगर घर आता हो,बिजली भी लगीं हो,बच्चे भी पढ़ते हों,आनाजाना कहीं हों और हगते नहीं हरगिज एक ही जगह और न कमोड से मुहब्बत हो सिर्फ और न बाथरूम हो सारी दुनिया तो हिसाब भी लगाइये कि शून्य से नीचे मुद्रास्फीति दर है तो शून्य ऊपर चढ़ गयी यह मुद्रास्फीति दर तो समझ लीजिये क्या क्या भाव होंगे।

फिर अपनी अपनी आमदनी के मुताबिक बजट भी कोई बना लीजिये तब बूझे लें आंकड़ों का हिसाब।

बाकी आंकड़ों के सिवाय विकास कुछ भी नहीं है।

जो मंहगाई का सच है वही आखिर विकास के गोलगप्पों का सच है।दावतों से बाज आइये।

दावत में फिर वही दस्तरखान है।फिर वही पीना है।चबाना है।

जायका का मजा यह है कि कभी मालूम नहीं होता दरअसल कि आप पी भी क्या रहे हैं और आप खा भी क्या रहे हैं।मुंह में क्या है।

आधार फिर निराधार है।फिर फिर सुप्रीम कोर्ट का फैसला है।

अब भी हमें लगता है कि बहुतेबहुत जरुरी है आधार निराधार।

सुप्रीम कोर्ट ने कोई फतवा भी नही दिया है कि कोई आपसे आधार नंबर मांगने की जुर्रत न भी करें और न वतनफरोशों को इंसानियत की तिजारत से कोई परहेज है।

 गौरतलब है कि निजता का कोई हक मौलिक हक है ही नहीं है और जो हक हकूक मौलिक हैं,उन्हें लागू करने का भी कोई फतवा नहीं है।हक हकूक किसी का कोई न छीनें,ऐसा भी कोई फतवा नहीं है।

मेहनतकशों का क्या,हजारोंहजार सालों से वे गुलामी में जीते हैं।

जंजीरों से जिन्हें हो गयी हो मुहब्बत वे आजाद हरगिज हो नहीं सकते चाहे आजादी का जश्न हो बहुत रंगीन,आजाद कोई नही है।

जल जंगल जमीन के हकहकूक के हक में हर फैसला अब तक हुए हैं।कानून न जाने कितने कब कब बनें,सिर्फ करोड़ टकिया फीसवाले डाउ कैमिकल्स के वकील ही जानै हैं।

कानून हैं तो लागू भी होने हैं,ऐसा भी कोई फतवा नहीं है।

न फिर कानून का राज कहीं है।

बेदखली बेइंतहा हों और इसीलिए दुश्मनी की आग लगी है।

इसीलिए तमाम दंगे फसाद,इसीलिए सारी की सारी वर्दियां और इसीलिए सारे के सारे बूट कि बेदखली का चाकचौबंद इंतजाम है।

आंकड़ों का क्या है कि अमेरिका में सारे काले ईसाई हैं और व्हाइट हाउस भी इन दिनों काला है।लेकिन कालों का कोई रखवाला नहीं है।

अमेरिका ने जितने कत्ल किये वे भी करोड़ों क्या अरबों का हिसाब है।जोड़ सकें तो जोड़ लें कि अमेरिका ने कत्ल कहां कहां न किये हैं।

महाभारत में कुल कितने कत्ल हुए,कितने आखिर कत्ल हुए राम रावण युद्ध में और फिर कितने अश्वमेध में आंकड़े नहीं हैं।

दुनियाभर में युद्ध महायुद्ध गृहयुद्ध और परमाणु धमाकों में जितने मारे गये,उतने इंसान मरते नहीं है रोज रोज और न किसी कयामत में उतने कभी मारे जाते हैं,फिरभी कोई आंकड़ा नहीं है।

कोई नहीं बता सकता कि करबला में आखिर कितने मारे गये जबकि मातम का सिलसिला कभी नहीं थमने वाला है।

बूटों के तले कितने आखिर कुचले गये,कोई आंकड़ा होता नहीं है।

डूब में आखिर कितने डूब गये,कोई आंकड़ा नहीं होता जिसतरह,वैसे ही नहीं मालूम की धर्मस्थलों पर कब्जे की जंग में कितने इंसान मारे जाते हैं रोज रोज कि कितने फिर असल में मारे गये गुजरात में या फिर पंजाब में या फिर हिदुस्तान में या फिर बांग्लादेश या फिर पाकिस्तान में या फिर श्रीलंका नेपाल में,अफगानिस्तान में।

मरने वालों का आंकड़ों कभी जैसे मालूम होता नहीं है वेसे ही किसी को मालूम नहीं होता कि किस किसने कब कब कौन कौन सा वतन किस किसके हाथों बेच दिया और कुनबे के लिए कितना कमा लिया।और किस किस बैंक कि किन किन अकाउंट में जमा है माल।

बहरहाल बाजार बनने के बाद यूनान पर विदेशी कर्ज देश की कुल आय का दो सौ फीसद है।

बहरहाल मुकत् बाजार की जन्नत में बच्चे या तो भूखों पेट सोते हैं और या फिर जो रईस हैं,उनके हाथों में बंदूकें होती हैं और वे उसी तरह गोलियां बरसताे हैं,जैसे दुनियाभर में उनकी फौजें बरसाती हैं।

मुक्त बाजार का सबसे बड़ा खतरा,बच्चों ततके हाथों में बंदूकें हैं और उनके दिलों मे कोई मुहब्बत नहीं है।

पता नहीं कि इस बाजार में कहां कहां बच्चे दहशतगर्द हैं और गुड़ियों का सर काटकर कत्लेआम के लिए तैयार है।

निजीकरण का सीधा हिसाब है कि पागल दौड़ है बेइंतहा।

पागल दौड़ का हिसाब है कि दिल कहीं है ,वजूद कहीं है।

कही कुछ उत्पादन है ही नहीं है।

न धरती को कुछ उगाने की इजाजत है क्योंकि दसों दिशाएं सीमेंट की मजबूत दीवारे हैं।

चीन की महाप्राचीर खुल्ला है हालांकि।

जर्मनी की दीवार भी जमींदोज है।

हम लेकिन रोज रोज दीवारें बनाने में मशगुल है।

दीवारों के सिवाय हमारा वजूद कोई नहीं है।

इस वजूद में दिल भी कोई नहीं है।

न जाने कहां खो गया है दिल,कोई नजाने कि उसका दिल कहां है।कोई न जाने कि उसे भी किसी न किसी से सख्त मुहब्बत है।

आंधियां इसतरह सुनामी बनकर खिलने लगी हैं दिशाओं में।

आसमान में सूराख हमने नहीं किये,आसमां सूराख है और

कायनात में बेइंतहा सूखा है आगे,बादल फिर बरसेंगे नहीं।

सुनामियों में दम तोड़ने लगा है समुंदर भी और

हिमालय हो गया है नंगा और सपाट सिरे से।

आंकड़ों में जकड़ा वतन मेरा मर रहा है आहिस्ते आहिस्ते।

होश में आओ लोगों कि तमाशा बहुत  रंगीन है कि

चोरों में जंग छिड़ी है हिस्से के बंटवारे के लिए।


मजा भी बहुत आ रहा है लेकिन किस्सा बेहिसाब संगीन है।

इस किस्साई संगीन से जो भी हो जख्मी,माफ करें।

दिलों में मुहब्बतें थी बहुत बहुत।

दिलों का कत्ल लेकिन दस्तूर चल निकला।

न जाने कब से दिलों के कातिल हो गये हैं हम सभी कि मुहब्बत का अहसास भी नहीं है किसी को।

बेइंतहा नफरत का कारोबार है सियासत और बेइंतहा नफरत का कारोबार है मजहब भी,ऐसा खुल्ला बाजार बन गया है वतन कि बेच डाला ईमान।


आंकड़ों में जकड़ा वतन मेरा मर रहा है आहिस्ते आहिस्ते

होश में आओ लोगों कि तमाशा बहुत  रंगीन है कि

चोरों में जंग छिड़ी है हिस्से के बंटवारे के लिए।

दोस्तियों की छांव के सिवाय इंसानियत के वास्ते अब कोई पनाह नहीं।

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