आजादी के बाद जिस अनुपात में महानगरों से लेकर छोटे—छोटे कस्वों का विकास हुआ उस अनुपात में गांव पिछड़ता चला गया और शुरु हो गया गांव से शहरों की ओर पलायन का सिलसिला। फलस्वरूप गांव में खेती,पशुपालन और घरेलु उद्योग चौपट हो गए। कल और आज के गांव में बुनियादी फर्क आ गया है जिससे हमारे लोकजीवन में विकृतियां बढ़ी है। धीरे—धीरे लोक संस्कृति,लौकिक रीति— रिवाज और परंपराओं में भारी बदलाव के कारण गॉव में रहनेवालों की जीवन—शैली बदल गयी है।शिक्षा,स्वास्थ्य और पेयजल,रोजगार के मसले का समाधान आजादी के सड़सठ वर्षों बाद भी नहीं हो पाया है। लोकतंत्र खत्म हो गया और विकास की किरणें पहुंची नहीं।
नृपेन्द्र प्रसाद वर्मा का सद्य: प्रकाशित ग्रामीण जीवन पर आधारित इक्कावन कविताओं का संग्रह 'चलो गांव की ओर' टूटते और शहरीकरण की भेंट चढ़ते गांव की तल्ख सच्चाईयों को वयां करता है। इस संग्रह का शीर्षक 'चलो गांव की ओर' रखा गया है जो शहर से गांव की ओर लौटने का कवि का अभियान है। भारत कभी गांवों का देश कहलाता था पर अब शहरों का देश हो गया है। शहर फैलता जा रहा है और गांव सिकुड़ता चला जा रहा है। 92 हजार गांव विकास तथा शहरीकरण की भेंट चढ़ गए। खेती,पशुपालन एवं अन्य कार्यों के लिए कामगारों की कमी होती जा रही है। तभी तो कवि कहता है—'सब के सब गांव छोड़कर/ भागे जा रहे हैं शहर की ओर/ भेड़ियाधसान हो रहे हैं/ भौतिकता के अंधे कुएॅं में/ ठप्प पड़ गया है/ गांव में खेती और पशुपालन का धंधा।' पूरे देश को अन्न खनिज,श्रम और सीमा पर सुरक्षा के लिए जवान देनेवाल गांव अब खत्म होने के कगार पर है। राजनीतिक नफा—नुकसान के लिहाज से गांव के हक को मार कर सरकार स्मार्ट सिटी बना रही है,जो गांव को खत्म कर ही बनेंगे। गांव का विकास तो नहीं हुआ परन्तु शहरी विकृति ने गांव की जीवन शैली को बदमिजाज जरूर कर दिया है। ग्रामीण संस्कृति को नष्ट—भ्रष्ट कर दिया है। स्थिति ऐसी हो गयी है कि ' न घर का रहे न घाट का' कहावत को चरितार्थ कर रही है। दलित और स्त्री चेतना के नाम पर ठगा जा रहा है। अब भी गांव में बंधुआ मजदूर और स्त्री के शोषण—उत्पीड़न की व्यथा—कथा सुनने को मिलती है। राजनीतिक छद्म—छल की धूल तेजी से गांव में उड़ने लगी है। गांव के लोग जितने सरल और निश्चल भाव के होते थे अब उनमें प्रपंच के पौधें उगने लगे हैं। यह एक साजिश के तहत हो रहा है कि गांव के लोगों की चेतना नहीं जगे। अपने अधिकार के लिए आवाज नहीं उठा सकें।
इस दशा से कवि मर्माहत है। गॅवई जीवन की भोगी हुई वास्तविकता की आहट इस संग्रह की प्राय: कविताओं में सुनाई पड़ती है। स्वावलंवी गांव को खत्म कर बाजार गांव का वैभव लूट रहा है। लगातार किसानों की आत्महत्या गांव की स्थिति को वयां करने को काफी है। मजदूरों का लगातार पलायन सरकारी योजनाओं की सफलता और उसके कार्यान्वयन पर सवाल खड़े करती है।कॉरपोरेट लूट को बढ़ावा मिला है। जगह—जगह विस्थापन के सवाल पर संघर्ष विकास के विरोध में नहीं गांव को बचाने की लड़ाई है। ऐसी स्थिति में देश में आर्थिक् समानता और वर्गविहीन समाज की बात करना बिल्कुल नाइंसाफी है। गांव के साथ हो रही इस छद्म राजनीति के कुचक्र को तोड़ने के लिए ही इस संग्रह की एक कविता ' जागो—जागो मजदूर किसान'में किसानो और मजदूरों को उद्वोधित करते हुए उसे अपने अधिकारों के प्रति जगाने का काम कवि करता है। यहां कवि की धारणा उन मार्क्सवादियों की तरह नहीं जो भारत में पश्चिमी देश के सिद्धांत के वूते आर्थिक समानता और वर्गविहीन समाज बनाने की बात करता है। कवि की स्पष्टोक्ति है कि इसका समाधान भारतीय दर्शन और चिंतन के आधार पर ही हो सकेगा। इसलिए तो कवि अपनी कविता में कहते हैं— ' लाल चीन आदर्शन होगा/ न रूसी होगी मेरी पहचान/ कबीर की वाणी में गूंजेगा/ भारत में समाजवाद का ज्ञान।'
इस संग्रह की कविताओं में कवि की वहुविध दृष्टि की झलक मिलती है। गांव के जीवन का शायद ही कोई ऐसा कोना हो जहां कवि की दृष्टि नहीं पहुंच पायी है। वाबजूद इसके गांव की कुछ ऐसी समस्या है जिस ओर कवि की दृष्टि नहीं पहुंच पायी है। उम्मीद है कि भविष्य में कवि का घ्यान उन समस्याओं की ओर भी जाना चाहिए ताकि गांव के वैभव को बचाने की सार्थक पहल की जा सके और गांव की ओर लोगों कों लौटने के लिए प्रवृत किया जा सके। इस संग्रह की कविताओं के पीछे कवि का उद्देश्य भी यही है जिसे अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा भी है— ' इस संग्रह की एक भी कविता यदि गांव से पलायन करनेवालें को पुन: गांव की ओर लौटने के लिए प्रवृत कर सकी तो निश्चय ही कविता की प्रयोजनीयता सिद्ध हो सकेगी। इस संग्रह की कविताओं की अन्तर्यात्रा में मैंने अनुभव किया कि गांव को बचाने के लिए सार्थक पहल होनी चाहिए।
समीक्षित पुस्तक— चलो गांव की ओर
कवि —नृपेन्द्र प्रसाद वर्मा
मूल्य 250/रूपये
मानव प्रकाशन,131, चितरंजन ऐवेन्यू
कोलकाता—700073
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