20.9.15

टीआरपी बढ़ाने में माहिर सम्पादकों का बौद्धिक कद कितना नीचा है, बताने की जरूरत नहीं है

तकनीक के आगे आदमी, तकनीक के पीछे आदमी

केपी सिंह-
यह तकनीकी क्रांति का युग है तकनीक ने सभी क्षेत्र में अपने हस्तक्षेप को दिखाया है। जिसमें दुनियां बहुत तेजी से बदली है और बदल रही है। पत्रकारिता भी तकनीक के हस्तक्षेप से अछूती नहीं है। तकनीकी क्रांति ने पत्रकारिता के चाल चेहरे और चरित्र को काफी हद तक बदला है।



दरअसल पत्रकारिता या जिसे आज उसकी व्यापक विधाओे की समूह वाचक संज्ञा के रूप में मीडिया के नाम से परिभाषित किया जा रहा हैै। तकनीकी प्रगति का ही उत्पाद है। हमारे देश में आजादी की लड़ाई में उपनिवेश वाद के विरूद्ध जनता की भावनाओं को तीव्र करने के लिये पत्रकारिता का सहारा लगभग सारे प्रमुख राष्टीय नेताओं ने लिया। फिर वे महात्मागांधी हो चाहे बाबा साहब अम्बेडकर। यह बात दूसरी है कि उस समय मानवीय नेतृत्व तकनीक का उपयोग अपने सरोकारों के लिये करता था। लेकिन आज तकनीक नेता है और मानव उसका संसाधन बन गया है। इसलिये पत्रकारिता सरोकारों की बात सोचे बिना तकनीक के मुताबिक ढलने को मजबूर है। जीवन में हर दिन से लेकर हर वर्ष और हर दशक तक विभिन्न गतिविधियों का अनुपात तय है। माना कि योग शरीर को निरोगी रखने की एक सिद्ध साधना है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि कोई व्यक्ति पूरे दिन योग करने लग जाये। इससे उसकी सेहत में बढ़ोत्तरी होने की बजाय उसे गंभीर रोग हो सकता है। इसी तरह लोकतंत्र में जनता के लिये सूचनाओं की उपलब्धता बेशक जरूरी है।

लेकिन उसे कितनी सूचनायें एक दिन में परोसी जाये इसका कोई अनुपात होना चाहिये। 24 घण्टे के न्यूज चैनल पत्रकारिता के नये स्वरूप को प्रतिबिबिंत कर रहे है। जिनके साथ यह सवाल उठने लगा है कि आखिर हर समय टीवी पर न्यूज चलाने की क्या जरूरत है। तकनीक के लोगों पर और समाज पर हावी होने की वजह से 24 घण्टे के न्यूज चैनल को ढोना उनकी मजबूरी साबित हो रहा है। इससे पत्रकारिता की दुनिया में तमाम विकार पैदा हो रहे है। एक तो हर घण्टे नये समाचार देने की होड़ की वजह से तमाम गैर जरूरी सूचनायें मानवीय मस्तिष्क के हार्डवेयर को लोड कर रही है। जिससे चिड़चिड़ापन, एकांतिता, असामाजिकता, विस्मृति आदि मनोवैज्ञानिक बीमारियां लोगों को ग्रसित कर रही है। समाज में तमाम अनाचार लोगों की उन पर होने वाली गंभीर प्रतिक्रिया की वजह से थमे रहते थे। लेकिन अब लगातार सूचना संघात ने उनकी संज्ञान लेने की क्षमता को नष्ट कर दिया है। जिससे कितना भी बड़ा मामला हो जाये क्षणिक प्रतिक्रिया के बाद लोग शांत हो जाते है। पत्रकारिता की जनान्दोलन खड़ा करने की क्षीर्ण होती क्षमता इसी वजह से है।

कभी कहा होगा डगलस कैटर ने कि पत्रकारिता लोकतंत्र का चैथा स्तम्भ है। लेकिन तकनीक की वजह से ही इसे आज बाजार ने पूरी तरह हाईजैक कर लिया है। पत्रकारिता लोगों के सरोकार के लिये नहीं हो रही बल्कि बाजार के उद्देश्यों को पूरा करने के लिये की जा रही है। प्रबुद्ध नागरिकों के लिये आज कोई सामग्री न छपती है और न प्रसारित होती है। लोगों की विलासी इच्छाओं व तृष्णाओं के उद्दीपन के लिये समाचार प्रकाशित व प्रसारित किये जाते है। क्योंकि अब मीडिया और लोगों के बीच सेल्समैन और ग्राहक का रिश्ता है न कि पहले की तरह अखवार और पाठक का रिश्ता। नेट मीडिया ने तो लाइक और हिट के लिये पराकाष्टा पार कर दी है। अश्लील और अनावश्यक रूप से सनसनीखेज हैडिंग लगाकर नेट मीडिया द्वारा समाज के माहौल को खराब करने का पापाचार किया जा रहा है। जिस पर उगुलियां भी उठ रही है लेकिन किसी को कोई परवाह नहीं है।

आज मीडिया के सम्पादक की कुशलता, प्रसार संख्या या टीआरपी बढ़ने से नापी जाती है। जिसके लिये वह निकृष्ट से निकृष्ट हथकंडा अपनाने से बाज नहीं आते। आज भले ही लोगों को यह भ्रम हो कि रचनात्मकता, अन्वेषण और ज्ञान पिपासा बढ़ाने के लिये काइन्ड में इनसेन्टिव जरूरी है लेकिन यह बात बिल्कुल गलत है। जो लोग ज्ञान की साधना करते है वे तभी अपना काम सही तरीके से कर पाते है। जब उन्हें पैसे का लोभ न हो। यहां तक कि यश का भी लोभ न हो। पौराणिक काल में जिन ऋषियों के पास ज्ञान का भण्डार था और जिन्होंने कालजयी ग्रन्थ रचे उनके नाम तक लोग नहीं जानते। ज्ञान की पराकाष्ठा पर पहुंच चुके ऐसे ऋषियों को एक पीठ सौपकर उसका व्यास बना दिया जाता था।

आज तक लोग नहीं जान पाये कि अमुक व्यास का असली नाम क्या है। लेकिन जब व्यापार के लिये पुस्तकों के साथ उसके लेखक का नाम देने की परम्परा शुरू हुयी तो क्या कोई ऐसी पुस्तक लिखी जा सकी जो व्यासों के युग में प्रतिपादित दर्शन के टक्कर की हो। जब सीन और साइट के आधार पर लिखने वाले कवि नहीं थे तब जो महाकाव्य रचे गये क्या आज रचे जा सकते है। क्या एंडरसन ने बल्व का आविष्कार बहुत पैसों का लालच मिलने की वजह से किया था। क्या ग्राहमवेल को बेतार संचार प्रणाली के आविष्कार के बदले बहुत बड़े मेहनताने का लालच दिया गया था। मीडिया भी ज्ञान का एक क्षेत्र है जहां पवित्रता से काम तभी हो सकता है जब इसकी बागडोर बाजारू सम्पादकों के हाथों में न रहे।

टीआरपी बढ़ाने में माहिर सम्पादकों का बौद्धिक कद कितना नीचा है बताने की जरूरत नहीं है। पत्रकारिता की असली चुनौतियां इन्हीं सवालों से जुड़ी हुयी है। लेकिन वैश्वीकरण के इस युग में ऐसी पत्रकारिता को लाना एक यूटोपिया ही लगता है, पर दुनिया में तमाम चीजे ऐसी हुयी हैं जिनकी होने के पहले कल्पना तक करना आम लोगों के लिये मुश्किल था। असाधारण लोग नये युग का निर्माण करते है और असाधारण प्रजातियां पैदा होना इस युग में बंद नहीं हो गया। वर्तमान पत्रकारों में भी युग निर्माता व्यक्तित्व हो सकते है उन्हें नये युग के श्रीगणेश के लिये कुछ कर गुजरने का जोखिम ठानना होगा।
kp singh
bebakvichar2012@gmail.com

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